Vat Vriksh Puja Vidhi : वट सावित्री व्रत पर सुहागन महिलाएं किस प्रकार करें वट वृक्ष की पूजा व कितनी बार लपेटें कच्चा सूत? जाने पूजा विधि
How should married women worship the Vat tree on Vat Savitri Vrat and how many times should they wrap raw thread around it? Know the method of worship
Vat Vriksh Puja Vidhi
Vat Vriksh Puja Vidhi : वट सावित्री व्रत, जिसे बरगद की पूजा भी कहा जाता है, हिंदू महिलाओं द्वारा अपने पति की लंबी आयु और सौभाग्य की कामना के लिए किया जाता है। ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि पर वट सावित्री का व्रत रखा जाता है। इस बार यह व्रत 26 मई, सोमवार के दिन पड़ रहा है। इसी दिन शनि जयंती भी है। यह व्रत सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है। यह व्रत मुख्यतः देवी सावित्री की कथा से जुड़ा है, जो अपने पति सत्यवान को यमराज से वापस लाने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ बरगद के पेड़ के नीचे पूजा करती है।
Vat Vriksh Puja Vidhi
वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना इस व्रत का अंग बना। महिलाएँ व्रत-पूजन कर कथा कर्म के साथ-साथ वट वृक्ष के आसपास सूत के धागे परिक्रमा के दौरान लपेटती हैं। इस दिन सुहागन महिलाएं सोलह श्रृंगार कर विष्णुजी-माता लक्ष्मी और वट वृक्ष की पूजा करती हैं। परन्तु क्या आप जानते हैं कि पूजा के समय बरगद के पेड़ (वट वृक्ष) पर कितनी बार कच्चा सूत लपेटना चाहिए और इसका क्या महत्व होता है? आइए इस विषय में जाने विस्तार से..
Vat Vriksh Puja Vidhi
वट वृक्ष की पूजा का महत्त्व
माना जाता है कि वट सावित्री के व्रत वाले दिन वट वृक्ष की पूजा विधिपूर्वक अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है एवं इस पर विधि-विधान से कच्चा सूत लपेटने से पति की आयु लंबी होती है और सभी प्रकार के दुखों से छुटकारा मिल सकता है। ऐसी मान्यता है कि ज्येष्ठ अमावस्या के दिन देवी सावित्री के पति को बरगद के पेड़ के नीचे नया जीवनदान मिला था। यमराज ने सावित्री देवी की निष्ठा और पति परायणता को देखकर उनके मृत पति को पुनः जीवित कर दिया था। कहा जाता है कि तभी से सुहागिन महिलाओं द्वारा पति की लंबी उम्र के लिए वट वृक्ष की पूजा करना बहुत फलदायी माना जाता है और देवी उन्हें अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद भी देती हैं।
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वट सावित्री व्रत की पूजा विधि
बरगद के पेड़ को अक्षयवट भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि यह हमेशा जीवित रहता है। बरगद के पेड़ को पूजा करने से पहले जल से स्नान कराएं। मान्यता है कि बरगद के पेड़ में ब्रह्मा, विष्णु और महेश वास करते हैं। सुहागिन महिलाओं को इस दिन सुबह जल्दी उठकर स्नानादि कर लेना चाहिए। इसके बाद, व्रत का संकल्प लें और पीले या लाल रंग के वस्त्र धारण करें। मान्यता है कि वट सावित्री व्रत के दिन लाल या पीले रंग के वस्त्र पहनना बहुत शुभ होता है। साथ ही, इस दिन सोलह श्रृंगार भी जरूर करना चाहिए।
तत्पश्चात शुभ मुहूर्त के मुताबिक, सबसे पहले गणेश जी और माता गौरी की पूजा करें। तत्पश्चात बरगद के वृक्ष की पूजा करें। पेड़ के तने को कलावा से बांधें और स्वच्छ वस्त्र से ढकें। पेड़ को रोली, चंदन और अक्षत से तिलक लगाएं। धूप, दीप और कपूर जलाएं और भोग लगाएं। बरगद के पेड़ पर कच्चा सूत लपेटकर परिक्रमा करें। वट वृक्ष की पूजा करने के बाद सावित्री-सत्यवान की कथा का पाठ करें और अन्य लोगों को भी सुनाएं तत्पश्चात पति की लंबी उम्र की कामना करें। इस प्रकार वट सावित्री व्रत के दिन पूजा करने से महिलाओं को सौभाग्य प्राप्त होता है।
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वट वृक्ष पर कितनी बार लपेटें कच्चा सूत
मान्यताओं के अनुसार बरगद के पेड़ की जड़ में ब्रह्मा, तने में भगवान विष्णु और डालियों पर भगवान शिव निवास करते हैं। यही कारण है कि वट वृक्ष को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का संयुक्त स्वरूप माना जाता है। साथ ही, बरगद के पेड़ की नीचे की तरफ लटकी हुई शाखाओं को मां सावित्री भी कहा जाता है। ऐसे में वट वृक्ष की पूजा करने और उस पर कच्चा सूत लपेटने से देवी सावित्री के साथ-साथ त्रिदेवों की कृपा भी प्राप्त होती है। माना जाता है कि वट वृक्ष पर कच्चा सूत 7, 21 या 108 बार लपेटकर परिक्रमा करनी चाहिए। मुख्यतौर पर सुहागिन महिलाएं पूजा के दौरान बरगद के पेड़ के तने के चारों ओर 7 बार कच्चा सूत लपेटती हैं। सात पर धागा लपेटने की यह परंपरा बहुत पुराने समय से चली आ रही है।
वट सावित्री व्रत कथा
वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सावित्री भारतीय संस्कृति में ऐतिहासिक चरित्र माना जाता है। सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है। सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। कहते हैं कि भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी। उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं। अठारह वर्षों तक यह क्रम जारी रहा। इसके बाद सावित्रीदेवी ने प्रकट होकर वर दिया कि ‘राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी।’ सावित्रीदेवी की कृपा से जन्म लेने की वजह से कन्या का नाम सावित्री रखा गया।
कन्या बड़ी होकर बेहद रूपवान थी। योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी थे। उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा। सावित्री तपोवन में भटकने लगी। वहाँ साल्व देश के राजा द्युमत्सेन रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण किया।कहते हैं कि साल्व देश पूर्वी राजस्थान या अलवर अंचल के इर्द-गिर्द था। सत्यवान अल्पायु थे। वे वेद ज्ञाता थे। नारद मुनि ने सावित्री से मिलकर सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी थी परंतु सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह रचाया। पति की मृत्यु की तिथि में जब कुछ ही दिन शेष रह गए तब सावित्री ने घोर तपस्या की थी, जिसका फल उन्हें बाद में मिला था।
जब सत्यवान की मृत्यु का समय आया, सावित्री ने तीन दिन का उपवास रखा। सत्यवान की मृत्यु के दिन, वह उसके साथ जंगल गई और सत्यवान की मृत्यु हो गई। सावित्री ने यमराज का पीछा किया और अपने दृढ़ निश्चय और प्रेम से प्रभावित करके यमराज से तीन वरदान प्राप्त किए।
पहले वरदान में उसने अपने ससुराल वालों के राज्य की वापसी मांगी, दूसरे में अपने पिता के लिए एक पुत्र, और तीसरे में अपने लिए संतान मांगी। यमराज ने वरदान स्वीकार किए और सत्यवान को जीवनदान दिया।
सावित्री वट वृक्ष के पास लौट आई और सत्यवान जीवित हो गया। इस घटना के बाद, महिलाएं वट सावित्री व्रत रखती हैं और वट वृक्ष की पूजा करती हैं ताकि उनके पति की आयु लंबी हो और उनका वैवाहिक जीवन सुखी बना रहे।
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