#NindakNiyre: बस्तर के किलों को ढहाने भाजपा की रणनीति कमजोर तो कांग्रेस की डिफेंस वॉल भी कोई मजबूत नहीं, देखिए कौन, कितना, किस पर भारी

#NindakNiyre: बस्तर के किलों को ढहाने भाजपा की रणनीति कमजोर तो कांग्रेस की डिफेंस वॉल भी कोई मजबूत नहीं, देखिए कौन, कितना, किस पर भारी

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  • Publish Date - March 31, 2023 / 03:10 PM IST,
    Updated On - March 31, 2023 / 03:10 PM IST

बरुण सखाजी. सह-कार्यकारी संपादक, आईबीसी-24

छत्तीसगढ़ की सियासत में बस्तर विजय सत्ता का रास्ता मानी जाती है। हालांकि ऐसा हमेशा नहीं होता, लेकिन ज्यादातर होता है। इस क्षेत्र में अभी सभी 12 सीटें कांग्रेस के पास हैं। ऐसे में खोने के लिए भी कांग्रेस के पास ही सबसे ज्यादा है। 2018 में भाजपा ने एक सीट दंतेवाड़ा जीती थी, लेकिन नक्सल हमले में विधायक भीमा मंडावी की मौत के बाद यहां उपचुनाव में कांग्रेस की देवती कर्मा जीत गईं। माना जा रहा है इस बार बस्तर में भाजपा ज्यादा मेहनत करके कांग्रेस का खेल बिगाड़ने की कोशिश कर रही है। इसके जवाब में कांग्रेस भी अपना जोर लगा रही है। आज समझते हैं बस्तर में भाजपा कांग्रेस का गुणाभाग।

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2018 के नतीजों को 2019 में बदलने की रणनीति पर भाजपा

बस्तर मूलतः 7 जिलों का एक संभाग है। यहां 12 विधानसभा सीटें आती हैं। इसे जमीनी तौर पर उत्तर बस्तर और दक्षिण बस्तर में बांटा जाता है। 12 विधानसभा सीटों में से 11 आदिवासी समाज के लिए आरक्षित हैं। इस क्षेत्र में 2 लोकसभा सीटें हैं। 2018 में कांग्रेस ने बस्तर की 12 विधानसभा सीटों में से 11 जीती थी। जबकि लोकसभा चुनाव 2019 में वह बस्तर की कांकेर लोकसभा सीट नहीं जीत पाई, लेकिन बस्तर जीत गई थी। 2003 से लेकर अब तक यहां जो जीता वही सरकार में रहा है, लेकिन 2013 अपवाद है। 2013 में यहां भाजपा हारी थी लेकिन सरकार बनाने में कामयाब रही। 2018 में बस्तर की 12 विधानसभा सीटों में औसत 73 परसेंट वोटिंग हुई थी। इनमें कांग्रेस को 47.3 परसेंट वोट मिले थे। वहीं भाजपा को 34.6 वोट मिले थे। यानि भाजपा कांग्रेस की तुलना में बस्तर की 12 सीटों में 13 परसेंट वोट से पीछे थी। महज 3 महीनो बाद 2019 अप्रेल-मई में चुनाव हुए तो बस्तर लोकसभा में 8 सीटों में कांग्रेस को 46 परसेंट वोट मिले और भाजपा को 42 परसेंट वोट मिले थे। बस्तर में कांग्रेस ने लोकसभा जीत तो ली, लेकिन वोट परसेंट का फासला महज 4 परसेंट ही रह गया। दंतेवाड़ा और जगदलपुर में कांग्रेस हारी थी। वहीं बस्तर की 4 सीटें अंतागढ़, कांकेर, भानूप्रतापपुर और केशकाल कांकेर लोकसभा का हिस्सा हैं। इनमें लोकसभा में कुल 5 लाख 4 हजार 371 वोट पड़े थे। इनमें से कांग्रेस को 2 लाख 63 हजार 319 और भाजपा को 2 लाख 43 हजार वोट मिले थे। ऐसे देखें तो कांग्रेस को 52 परसेंट और भाजपा को 48 परसेंट वोट मिले थे। अंतागढ़ और केशकाल में भाजपा जीती थी। यानि 2018 में मिले 47.3 परसेंट वोट की तुलना में 2019 लोकसभा में कांग्रेस के पास इन 12 सीटों पर पड़े 13 लाख 76 हजार वोट में से 6 लाख 64 हजार 858 वोट ही लौटे। जो 48 परसेंट थे। जबकि भाजपा ने इन 12 विधानसभा सीटों से 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए 6 लाख 1 हजार के करीब वोट हासिल किए। यह 43 परसेंट थे। यानि बस्तर से भाजपा ने कांग्रेस के मुकाबले 2018 विधानसभा में जो 13 परसेंट कम वोट हासिल किए थे, उनकी रिकवरी करते हुए अब वह महज 5 परसेंट वोट के फासले तक आ गई। जबकि इन 12 विधानसभा सीटों में से 4 विधानसभा सीटों पर भाजपा जीत भी गई थी। अंतागढ़ में भाजपा ने कांग्रेस के मुकाबले 2019 में 15 हजार अधिक वोट, केशकाल में 12 सौ, दंतेवाड़ा में 8 हजार और जगदलपुर विधानसभा में 18 हजार अधिक वोट हासिल किए थे। यानि 2018 में 12 में से 11 हारने वाली भाजपा ने तीन महीनों में ही बस्तर में 12 में से 4 पर जीत दर्ज कर ली थी। विधानसभा-लोकसभा में अंतर को इसलिए बताना जरूरी है, क्योंकि यहां भाजपा लोकसभा-2019 वाली रणनीति पर काम कर रही है।

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बस्तर की राजनीतिक जमीन

बस्तर की राजनीतिक जमीन में धर्मांतरण एक नया फैक्टर बनकर उभर रहा है। इससे पहले यहां जंगल, नक्सल, सुरक्षा बल, आदिवासी हक-हुकूक विषय रहे हैं। बस्तर में नक्सल का प्रभाव कम तो हुआ है, लेकिन कुछ सीटों पर यह निर्णायक है। ऐसे में यहां के हालात को सीटवार जानना जरूरी है।

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कुंजाम की तैयारी, कवासी पर भारी

बस्तर में वर्षों से पत्रकारिता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार मनीष गुप्ता बताते हैं कोंटा और बीजापुर ऐसी नक्सल प्रभाव वाली सीटें हैं, जहां नक्सल निर्णय 50 फीसदी तक ईवीएम पर असर डालते हैं। इनके ठीक उलट 10 से 20 फीसदी नक्सल निर्णय के असर वाली सीटों में अंतागढ़, भानुप्रतापपुर, केशकाल हैं। जबकि नारायणपुर में 40 फीसदी तक असर कहा जा सकता है। बाकी 6 सीटों में नक्सल का असर इग्नोरीबल है। कोंटा मंत्री कवासी लखमा की सीट है, यहां मनीष कुंजाम दमखम से तैयारी कर रहे हैं। मनीष दो बार सीपीआई से विधायक रह चुके हैं। इस बार भी वे असरदार नजर आ रहे हैं। लखमा मंत्री बनने के बाद एंटी इनकमबैंसी से जूझ रहे हैं। भाजपा अच्छे प्रत्याशी की तलाश कर रही है। अगर यहां भाजपा ने सीपीआई के साथ अघोषित समझौता किया तो स्थिति पलट भी सकती है।

दंतेवाड़ा, नारायणपुर में भाजपा की तैयारी, बीजापुर में मेहनत कम

दंतेवाड़ा में कांग्रेस की देवती कर्मा को भी अधिक मेहनत की जरूरत है। यहां नगरीय क्षेत्र में भाजपा की स्थिति ठीक है, जबकि ग्रामीण क्षेत्र में भी पैठ है। लोकसभा में दंतेवाड़ा में भाजपा को कांग्रेस के 36 हजार वोटों के मुकाबले 44 हजार वोट मिले थे। यानि 8 हजार की लीड। बीजापुर में भाजपा को बहुत मेहनत की जरूरत है। यहां महेश गागड़ा के बूते मुश्किल है। नारायणपुर में कश्यप परिवार अरसे से काबिज है। इस बार की चोट करारी है, लेकिन मिली जिम्मेदारी के हिसाब से केदार जोर मार सकते हैं। कांग्रेस अतिरिक्त सावधानी बरत रही है। चूंकि धर्मांतरण का मुद्दा यहीं से उछल रहा है, जिसका भाजपा को फायदा हो सकता है।

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भानू सर्व आदिवासी समाज की लैबोरेटरी

भानुप्रतापपुर उपचुनाव में कांग्रेस जीती है। लेकिन यह सर्व आदिवासी समाज की लैबोरेटरी है। सर्व आदिवासी समाज ने 21 हजार से अधिक वोट लेकर दिखा दिया है कि अच्छी रणनीति के बूते वे हराऊ-जिताऊ फैक्टर बन सकते हैं। बस्तर में कांग्रेस में आंतरिक खींचतान वाले समीकरण भी एक बड़ा फैक्टर हैं। बतौर चुनावी विश्लेषक कहा जा सकता है उत्तर बस्तर का जनजातिय समाज ज्यादा प्रतिक्रियावादी है। भानू इसी क्षेत्र में आता है।

अंतागढ़ में भाजपा का अंत नहीं आसान

अंतागढ़ भाजपा के विक्रम उसेंडी के प्रभाव वाली सीट है। विक्रम मंत्री रह चुके हैं। लोकसभा भी जा चुके हैं। वे यहां के कद्दावर नेता हैं। भाजपा उम्मीद कर रही है विक्रम इस बार अच्छा कर सकते हैं। कांकेर लोकसभा में आने वाली अंतागढ़ सीट ने भाजपा के वर्तमान सांसद मोहन मंडावी को कांग्रेस के वीरेश ठाकुर के 44 हजार वोटों के मुकाबले 59 हजार वोट दिए थे। यानि भाजपा को 15 हजार की लीड अकेले अंतागढ़ ने दी थी।

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कांकेर, कोंडागांव में मेहनत ज्यादा

कांग्रेस से कांग्रेस के शिशुपाल सोरी विधायक हैं। कोंडागांव से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम हैं। हाल के कुछ दिनों में हमने देखा है, मोहन मरकाम और सत्ता शक्तिपुंज के बीच असहमतियां बढ़ी हैं। मोहन भाजपा सरकार में मंत्री लता उसेंडी से बहुत कम मार्जिन से जीते थे। ऐसे तमाम फैक्टर हैं जो कोंडागांव को कांग्रेस के लिए कठिन बना रहे हैं। कांकेर में बड़ा एरिया नगरीय क्षेत्र है और सामान्य व ओबीसी मतदाता भी पर्याप्त हैं। ऐसे में यहां भी 2018 के नतीजे दोहराए जाना कठिन है।

केशकाल का सोशल फैब्रिक अलग

केशकाल का सामाजिक तानाबाना बहुत जुदा है। इसलिए यहां कांग्रेस आत्मविश्वास में दिख रही है। संतराम नेताम को कांग्रेस ने जोगी के विरुद्ध इस्तेमाल किया था। क्षेत्र में उनकी स्वीकार्यता का उन्हें फायदा मिल सकता है। लेकिन इसके उलट कांग्रेस इसलिए भी सशंकित है, क्योंकि यहां लोकसभा में भाजपा को कांग्रेस के 62 हजार वोटों के मुकाबले 63 हजार वोट मिले थे। यानि 12 सौ वोटों की लीड मिली थी।

बस्तर, जगदलपुर, चित्रकोट में पार्टियों में कलह

बस्तर के विधायक लखेश्वर बघेल के लिए रास्ता ज्यादा कठिन नहीं है। भाजपा ने चेहरे की तलाश में है। यहां कोई बड़ा राजनीतिक दांव दोनों दलों के पास नहीं है। जगदलपुर बस्तर की इकलौती सामान्य सीट है। यहां से रेखचंद जैन कांग्रेस से विधायक हैं। पार्टी तमाम विकल्पों पर बात कर रही है। भाजपा यहां दम लगा रही है। भाजपा को उम्मीद है यह सीट वह जीत सकती है। भाजपा इसका कारण लोकसभा चुनावों को मानती है। लोकसभा चुनावी की रणनीति के मुताबिक जगदलपुर से भाजपा ने सर्वाधिक 18 हजार की लीड हासिल की थी। यहां लोकसभा में भाजपा को 77 हजार और कांग्रेस को 59 हजार वोट मिले थे। चित्रकोट दीपक बैज की सीट थी, लेकिन वे सांसद चुने गए तो उपचुनाव में राजमन बेंजाम विधायक बन गए। राजमन और दीपक बीच प्रेमपूर्वक संबंध कम ही दिखाई देते हैं। ऐसे में यहां प्रभाव, वजूद और रसूख का संग्राम हो सकता है। इसका फायदा स्वाभाविक रूप से विरोधी दल को मिल सकता है।

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बस्तर में राजा, धर्मांतरण, आरक्षण का असर

बस्तर क्षेत्र धर्मांतरण एक बड़ा फैक्टर है। गांवों में टकराव की खबरें आम हैं। पुलिस पर गुस्साई भीड़ के हमले दिख रहे हैं। यह सब चुनाव पर असर डाल सकते हैं। वहीं इस बार के चुनाव में राजपरिवार से कमल भंजदेव और किरण देव भी हैं। कमल की सक्रियता देखी जा सकती है। जगदलपुर इकलौती सामान्य सीट है। यहां संतोष बाफना भाजपा से पहले विधायक रह चुके हैं। इस बार उन्हें लेकर भाजपा सशंकित है। ऐसे में राजपरिवार भी एक फैक्टर हो सकता है। आरक्षण का सबसे ज्यादा असर उत्तर बस्तर के क्षेत्र में दिखाई देता है। दक्षिण बस्तर में यह उतना असरदार नहीं है। आरक्षण पर फंसा पेंच किसे फायदा देगा कहना मुश्किल है, क्योंकि इसमें कांग्रेस-भाजपा दोनों आरोपों के दायरे में हैं। सर्वआदिवासी समाज इसी मसले को कोर इश्यू बना रहा है।

तो कुल जमा क्या कहा जाए

यूं तो चुनाव हैं। लोग अपनी राय ईवीएम में जब तक दर्ज न कर दें तब तक कुछ नहीं कहा जा सकता। बतौर राजनीतिक विश्लेषक मैं यह जरूर कह सकता हूं कि बस्तर में 2018 जैसा इकतरफा जनमत तो नहीं दिखाई दे रहा है। जाहिर है टक्कर होगी। कुछ सीटों पर कड़ी टक्कर भी होगी। ऐसे में एक बात साफ है। बस्तर में सीटों का गणित 12-0 या 11-1 या 10-2 या 9-3 या 8-4 तो नहीं रहेगा। यह फिफ्टी-फिफ्टी भी हो सकता है या थोड़ा ऊपर-नीचे भी। चूंकि भाजपा लोकसभा वाली रणनीति पर काम कर रही है, जिसमें उसे 12 में से 4 सीटों पर बढ़त मिली थी। खैर, बने रहिए मेरे यानि बरुण सखाजी के साथ।