कोरोना का संक्रमण फैलने लगा है, अब तक लॉकडाउन क्यों नहीं किया?
लो, लग गया लॉकडाउन। अब ठीक।
अरे! लॉक डाउन से क्या होगा? किट कहां है किट। जांच किट…PPE किट?
लो, आ गई किट। अब ठीक!
खाक ठीक! लोग तो लॉक डाउन में फंसे हैं। खाएंगे क्या, जियेंगे कैसे? मजदूरों को उनके घर पहुंचाइए।
लो, चलने लगी श्रमिक एक्सप्रेस। अब ठीक!
अरे! अब चलाने से क्या फायदा। ये सब लॉकडाउन लगाने के पहले कर लेना था? और जो ये लाखों लोग पैदल ही गांव की ओर चल दिए हैं, उनके लिए क्या?
है ना! ये रहा 20 लाख करोड़ का पैकेज।
अरे! ये राहत पैकेज है कि मजदूरों के साथ छलावा।
कुछ इसी अंदाज से भारत कोरोना की जंग लड़ रहा है। प्रकृति प्रदत विपत्ति में भी राजनीतिक मौकापरस्ती। मजदूर मजबूर है, लेकिन सियासत भरपूर है। जिस मजदूर की बदौलत देश विकास के पथ पर आगे बढ़ना सुनिश्चित करता है, वो खुद अनिश्चित भविष्य के पथ पर आगे बढ़ा जा रहा है…अश्रु स्वेद रक्त से लथपथ…लथपथ…लथपथ।
मजदूरों की व्यथा की आड़ में आरोप प्रत्यारोप का प्रलाप चल रहा है। कुछ तो मजदूरों पर ही तोहमत मढ़ रहे हैं कि जब लॉकडाउन लगा है तो घर जाने की जरूरत क्या है? पटरी ट्रेन के चलने के लिए होती है, उस पर सोएंगे तो कटेंगे ही। कहीं सड़क पर चलते हुए कुचले जा रहे हैं तो कहीं फुटपाथ पर सोते हुए। कहीं ट्रक में जाते हुए हादसों का शिकार हो रहे हैं तो कहीं बस में। ऊपर से लानत ये कि ये खुद अपनी मौत के जिम्मेदार हैं। अरे! जब सरकार ट्रेन और बस चला रही है, तो क्या कुछ दिन सब्र करते नहीं बनता था? जितना कष्ट परिवार के साथ हजारों किलोमीटर दूर घर जाने के लिए उठा रहे हैं, उससे कम कष्ट में तो जहां थे वहीं किसी तरह गुजर-बसर कर लेते। घर जाने के लिए ऐसे बावले हुये जा रहे हैं, जैसे वहां मालपुआ खाने को धरा हो।
कुछ तो ये उलाहना दे रहे हैं कि अब तो फैक्ट्रियां भी चालू हो गई हैं, लेकिन जब किसी का दिल घर जाने के दिल मचल ही उठा हो, तो सरकार भी क्या करे? इधर मजदूरों की घर रवानगी पर उन्हें लानत भेजी जा रही है तो उधर केंद्र और राज्य के बीच एक दूसरे पर तोहमत मढ़ने की बेशर्म सियासत भी जारी है।
मजदूरों के रिवर्स पलायन से पैदा हुए हालात के लिए केंद्र और विपक्ष के बीच चल रही तकरार मुख्यतः मजदूरों की घर वापसी के इंतजामों पर एक दूसरे पर दोषारोपण से जुड़ी है। केंद्र पर आरोप है कि उसने लॉकडाउन से पहले प्रवासियों को उनके घर तक पहुंचाना सुनिश्चित क्यों नहीं किया? लेकिन सोचने वाली बात ये है कि इस कोशिश से जैसी अफरा-तफरी और अराजकता पैदा होती, उसके भयावह परिणाम की केवल कल्पना ही की जा सकती है। ऊपर से गांव-गांव तक जो संक्रमण पहुंचता सो अलग। तब तो लॉकडाउन के जरिए संक्रमण की चेन तोड़ने का उद्देश्य ही निरर्थक हो जाता।
वस्तुतः मौजूदा हालात के लिए केंद्र और राज्य के बीच समन्वय की कमी के साथ ही राज्य सरकारों द्वारा मजदूरों के रहने-खाने का इंतजाम नहीं कर पाने की नाकामी जिम्मेदार है। महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली जैसे औद्योगिक राज्य जहां सर्वाधिक प्रवासी मजदूर हैं, वे लॉकडाउन में इन्हें दो वक्त की रोटी तक दे सकने में नाकारा साबित हुए। अफसोस! जिन मजदूरों का पसीना इन राज्यों की फैक्ट्रियों की चिमनियों से भाप बनकर निकलता था, वे इनके आंसुओं को संभाल नहीं सके।
दूसरी बड़ी समस्या केंद्र और राज्य के बीच समन्वय के अभाव की है। रेल मंत्री और गैर भाजपाशासित राज्य ट्रेनों की अनुमति और किराए के विवाद में उलझे हैं। मजदूर को रेल परिचालन के सरकारी झमेलेबाजी से कोई मतलब नहीं, उसे इतना पता है कि जब जरूरत थी, तब ट्रेनें नहीं चलीं। रेल मंत्रालय और राज्य सरकारें एक दूसरे को झूठा ठहरा रही हैं। कौन सच्चा है और कौन झूठा ये सरकारें जाने, लेकिन सच-झूठ की इस तोहमतबाजी में पिस बेचारा मजदूर रहा है।
ये शासकीय-प्रशासनिक कुप्रबंधन नहीं तो और क्या है कि एक ओर लॉकडाउन की वजह से लाखों बसें डिपो और स्कूलों में बिना इस्तेमाल के खड़ी हैं और दूसरी तरफ बेबस मजदूर सड़कों पर चल रहे हैं। कैसी बिडंबना है कि मजदूर जब पांव-पांव अपने गांव जा रहे हैं तो सरकारें परिवहन खर्च को लेकर कांव-कांव कर रही हैं। जब मजदूर अपनी जमा पूंजी से बाकी दिनों के गुजर-बसर का हिसाब लगा रहा है, तब सरकारें एक दूसरे के राहत कोष का हिसाब मांग रही है।
इस विपदा ने राजनीति के विद्रूप चेहरे को बेपर्दा कर दिया है। भविष्य में जब कभी इस कोरोना आपदा काल का लेखा-जोखा निकाला जाएगा तो हर सियासी दल के खाते में बट्टा जरूर लगा होगा।
सौरभ तिवारी
डिप्टी एडिटर, IBC24
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