Paramhans_Shrirambabajee: शरणागति वही है जो लगे कि अभी नहीं है, जो लगे कि है वह तो निरा पाखंड है…

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  • Publish Date - November 30, 2025 / 10:00 AM IST,
    Updated On - November 30, 2025 / 10:00 AM IST

बरुण सखाजी श्रीवास्तव

शरणागति का जब आभास होने लग जाए तो समझना चाहिए शरणागति नहीं है और जब लगे कि शरणगति है तभी सबसे ज्यादा सावधानी की जरूरत होती है। एक शरणागत स्यवं को कभी शरणागत नहीं समझता। जो समझता है उसकी शरणागति पूर्ण नहीं है। परमहंस श्रीराम बाबाजी अक्सर जब कहीं जाने लगते तो कहते थे, हां तो धरो सामान, अब देखो कहां जात है बाबा। कहां जात है बाबा… वाक्य ऊपर से यूं लगता है जैसे महाराजजी अपनी पूर्ण आध्यात्मिक फकीरी में यह बोल रहे हैं, लेकिन सत्य ये है कि वे शरणागति के महत्व को बता रहे हैं। शरणागति का अर्थ जान-समझकर परमात्मा के चरणों में अनुराग से ज्यादा इन चरणों में निर्मल, अकलंक, अटल, निश्छल अर्पण है। परमेश्वर के सभी फैसलों से अपना मेल है। स्वाभाविक मेल।

हम संसारी भी परमात्मा के चरणों में समर्पण का दावा करते हैं। अंदर से भाव पैदा करते हैं। बाहर से भी रटंत लगाकर रखते है। यह होना भी चाहिए, क्योंकि एक दिन बाहर का तापमान भीतर तक जाता ही है, लेकिन इस बीच अंदर और बाहर के ठीक बीच में एक दीवार भी खड़ी होने लगती है। हमे पता ही नहीं चल पाता कब भीतर का भीतर रह गया और बाहर का बाहर। यानि बाहर जो भक्ति का तापमान बढ़ रहा था भीतर वह आग्रहों का ताप बन गया। बाहर के भक्तिभाव की ऊष्मा से भीतर प्रकाशित होने की बजाए अपने बुने हुए जाल में मन को फंसा डाला। बाहर हम कह रहे हैं शरणागति है, भीतर कह रहे हैैं ऐसा ही हो। ऐसा ही हो अर्थात हमने जो सोचा, समझा, जाना, माना, किया, पाया वही हो। जबकि शरणागत को तो पता भी नहीं होता वह क्या है।

हमने जो सोचा, जाना, माना, किया, पाया ही अगर होना है तो शरणागति कहां हुई। शरणागति सर्वोच्च अवस्था है। इसमें गलत-सही कुछ रह ही नहीं जाता। सच-झूठ कुछ होता ही नहीं। शुद्ध-मलिन कुछ होता ही नहीं। मैं, मेरा कुछ है ही नहीं। जो है वही है और वह ईश्वरीय है। जैसे परमभक्त तुलसीदासजी कहते हैं, सिया राम मय सब जग जानी। जब समग्रता में ईश्वर का दर्शन होने लगे। जब सब कुछ उसका ही नजर आने लगे। यह शरणागति है और यही परमभक्ति। बाकी तो हमारा भ्रम है।

हमारे भीतर बैठे चालाक मन को चतुर भक्तिमय बनाना बड़ा जटिल काम होता है। यह काम एक गुरु ही कर सकता है। मनुष्य कभी नहीं कर पाएगा। हनुमानजी चतुर हैं, ज्ञानियों में अग्रगण्य हैैं और निश्छलता में परमभक्त। परमभक्त बिना शरणागति के कोई हो नहीं सकता। शरणागति बिना भक्ति के हो नहीं सकती। दोनों एक दूसरे में गुत्थगुत्था हैं।

भवसागर में शरणागति और वो भी ग्रहस्थ की, कैसे संभव है। बड़ी जटिलता है। बड़ा उलझाव है। लेकिन संभव है, अगर हम अपने गुरु के तत्व को समझें। परमगति को समझें। परमहंसत्व को अनुभव करें। हम अपने मन के किलों में कैद पराधीन व्यक्तित हैं। यूं लगता है, हमारी शरणागति है। जो हो रहा है उसमें आनंद आ रहा है, जो हो रहा है बस हो रहा है, जो हो रहा है हम साक्षी होकर देख रहे हैं, जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है, जो हो रहा है वही होना था, ये सिर्फ कहे जाने वाले वाक्य नहीं हैं। न ये सोचने वाले वाक्य हैं। न ये महसूस किए जाने वाले वाक्य है। ये होने वाले वाक्य हैं। जब हम ऐसे हो जाते हैं तब हम वैसे ही हो जाते हैं, फिर कुछ रह नहीं जाता। न शरणागति का भाव, न भक्ति का भाव, न अच्छे-बुरे का विश्लेषण, न मेरे-तुम्हारे का विस्तार। सब एक हो जाता है। सब एक का अर्थ वह जो है और जो नहीं है। वह जो रूप है, अरूप है, आकार है, निराकार है, जो है भी और नहीं भी, सब वही है। शरणागति होती है, न यह सोची जा सकती है, न कही जा सकती है, न महसूस की जा सकती है। ज्यों अभी मैं लिख रहा हूं। लिखने का भाव है। लिखने का क्रम है। लिखने की क्रिया है। लिखने के अपने दोष और गुण हैं। लिखने का सिलसिला है। लिखने के पीछे चल रहे भाव हैं। यह शरणागति नहीं है। न इसका कोई स्वाद ही की समझ है। बस शरणागति को दूर अत्यंत दूर से देखने का भाव जरूर है। शरणागति वही है जो लगे कि अभी नहीं है।

अगली बार बात करेंगे मन में हिलोरें मारती ख्याति की बीमारी पर।

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