Caste based census analysis | IBC24 News Special Blog

बतंगड़: ‘जाति’ है कि जाती नहीं..

Edited By :  
Modified Date: August 3, 2023 / 06:18 PM IST
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Published Date: August 3, 2023 5:51 pm IST

 

सौरभ तिवारी, डिप्टी एडिटर IBC24

सौरभ तिवारी, डिप्टी एडिटर IBC24

पटना हाईकोर्ट ने जाति आधारित गणना और आर्थिक सर्वे पर रोक लगाने को लेकर दायर याचिकाओं को खारिज कर करके बिहार में जातियों की शिनाख्ती का रास्ता साफ कर दिया है। (Caste based census analysis) बिहार सरकार ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि सर्वे से एकत्रित आंकड़ा का उपयोग जनता के कल्याण के लिए किया जाएगा। जातिगणना का उद्धेश्य भले जनकल्याण बताया जा रहा हो, लेकिन लोग इतने भोले नहीं हैं कि वो जातीय राजनीति की प्रयोगशाला वाले इस राज्य में होने वाली जातिगणना के पीछे की सियासी मंशा को ना भांप सकें।

कैसा विरोधाभास है कि संविधान का अनुच्छेद 15 जहां धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करने की बात करता है वहीं दूसरी ओर वो राजनीतिक दलों की ओर से समाज को जातियों के रूप में विभाजित करके अपनी सियासी कुमंशा को साधने की कोशिश पर मौन भी साध लेता है। तत्कालीन जरूरतों को देखते हुए दस साल के लिए लागू किए आरक्षण व्यवस्था का अब तक जारी रहना ये सिद्ध करता है कि जातीय विभाजन करके अगर समाजिक उत्थान करना इतना आसान होता तो संविधान लागू होने के 73 साल बाद भी इस ‘बैसाखी व्यवस्था’ को बरकरार रखने की मजबूरी ना रहती।

दरअसल जाति का मसला लोकतंत्र की वो अनिवार्य बुराई बन चुका है, जिससे अब छुटकारा संभव नहीं दिखता। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता को जनार्दन माना जाता है, लेकिन राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थ के लिए इस जनार्दन को ही जातियों में बांट दिया है। अंग्रेज भले सत्ता का हस्तांतरण करके चले गए हों लोकिन सत्ता हथियाने और चलाने की मूल नीति आज भी वही है- फूट डालो और राज करो। केवल शासक ही बदला है, शासन का चरित्र वही है। तब गोरों ने महाराजाओं में फूट डालकर सत्ता हथियाई, आज काले-गेहुंआ अंग्रेज मतदाओं में फूट डालकर राज कर रहे हैं।

सत्ता हथियाने की इस फिरंगी नीति का ही नतीजा है कि मतदाता की पहचान अब उसके नाम से नहीं बल्कि जाति से होती है। मतदाता अब जाति में विभाजित होकर वोटबैंक में तब्दील हो चुका है। (Caste based census analysis) लिहाजा राजनीतिक दलों के लिए किस वार्ड, विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र में कितने वोटर हैं से ज्यादा ये जानना जरूरी हो गया है कि उनमें से कितने सामान्य, कितने दलित और कितने पिछड़ा हैं। केवल दलित और पिछड़ा वर्गीकरण से मन नहीं भरा था सो अब विभाजन को और महीन करके महादलित और अतिपिछड़ा में भी बांट दिया गया है। समाज विभाजन की इस तिकड़म को ही लोकतांत्रिक टर्म में ‘सोशल इंजीनियरिंग’ कहा जाता है।

इस सोशल इंजीनियरिंग का ही नतीजा है कि ‘जाति’ जाती नहीं। कैसी विडंबना है कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जिस प्रदेश से ‘जाति तोड़ो- जनेऊ तोड़ो’ सामाजिक आंदोलन का शंखनाद किया था वो प्रदेश ही जातीय राजनीति की सबसे बड़ी प्रयोगशाला बना हुआ है। इस प्रयोगशाला के शोधकर्ताओं में वही राजनेता शामिल हैं जो खुद को लोकनायक जयप्रकाश नारायण की वैचारिक और राजनीतिक विरासत के सच्चे उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं। जातीय वैमनस्य के इस दौर में एक तरफ जनेऊ को जाति निर्धारण का कारक ठहरा कर जनेऊधारियों को ‘यूरेशिया’ भेजने की मसखरी भरी सलाह दी जाती है तो दूसरी तरफ जातियों को तोड़ने की बजाए उनकी संख्या बढ़ाने की कवायद जारी है। इसी वैचारिक दोगलेपन का कारण है कि देश में जातियों की संख्या घटने की बजाए बढ़ती जा रही है।

अगर जातीय सर्वे के सूत्रधार राज्य बिहार की ही बात करें तो यहां इस वक्त 214 जातियां मौजूद हैं जिन्हें राज्य सरकार ने जातीय सर्वे के लिए कोड प्रदान किया है। जबकि देश में आखिरी बार ब्रिटिश काल में 1931 में हुई जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक बिहार और ओडिशा में कुल 97 जातियां थी। इनमें से 14 जातियां अब ओडिशा में रहती हैं। यानी वर्ष 1931 में बिहार और झारखंड में कुल 83 जातियों का ही अस्तित्व था। इनमें से 29 जातियां मुस्लिम समुदाय से जुड़ी हैं। अगर बाकी बची 185 जातियों में से 1931 की जगगणना में दर्ज 83 जातियों को निकाल दिया जाए तो इसका मतलब है कि ये 102 जातियां बाद में अस्तित्व में आईं। हिंदुओं में जातियों की उत्पत्ति और उनके साथ हुए भेदभाव का सारा दोष हिंदू धर्म ग्रंथों और ब्राह्मणों के ऊपर मढ़ने वाला भारत का तथाकथित प्रगतिशील, वामपंथी और समाजवादी तबका क्या इस सवाल का जवाब देगा कि इन नई जातियों को किसने बनाया?

ये केवल जातीय राजनीति के लिए बदनाम बिहार और उत्तरप्रदेश की ही बात नहीं है। और ना ही जाति आधारित राजनीति का संकुचन केवल क्षेत्रीय दलों तक ही सीमित रह गया है। जातीय राजनीति का विस्तार अब क्षेत्रीय दलों के दायरे को लांघ कर राष्ट्रीय राजनीतिक स्तर पर हो चुका है। अब कांग्रेस का ही उदाहरण लीजिए। जो पार्टी कभी ‘जात पर ना पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर’ के नारे के साथ मतदाताओं से वोट मांगती थी, आज जातीय जनगणना की वकालत करते हुए 50 फीसदी आरक्षण की सीमा हटाने और दलितों-आदिवासियों को आबादी के अनुसार आरक्षण देने की मांग कर रही है। ‘जात पर ना पात पर’ जैसे राष्ट्रीय अपील वाले नारे से होते हुए ‘जिसकी जितनी भागेदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ जैसे क्षेत्रीय नारे तक के सफर में कांग्रेस के सियासी हैसियत के पतन की भी कहानी समाहित है। कभी देश में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस आज कई प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों की हैसियत पर पहुंच चुकी है। शायद यही वजह है कि अपनी जमीन वापस हासिल करने के लिए कांग्रेस ने वोट बैंक का ये जातीय टोटका आजमाया है।

वस्तुतः देखा जाए तो जातीय दोष से कोई सियासी दल अछूता नहीं बचा है। दरअसल बिना जातीय समीकरण साधे राजनीति कर सकना अब ना मुनासिब रह गया है और ना ही मुमकिन। यहां तक कि जातिवाद और परिवारवाद को लेकर प्रतिद्वंद्वी दलों को कोसने वाले नरेंद्र मोदी भी खुद मौका पड़ने पर जाति का कार्ड खेलना नहीं भूलते। याद करिए 2014 का चुनाव प्रचार अभियान जब प्रियंका गांधी ने उन पर नीच राजनीति करने का आरोप लगाया था। तब मोदी ने इस नीच शब्द को अपनी जाति से जोड़कर विक्टिम कार्ड खेल डाला था। तब मोदी ने कहा था कि ‘मैं नीच जाति में भले पैदा हुआ, लेकिन मैं नीच स्तर की राजनीति नहीं करता।’

वोट बैंक के विस्तार में जुटे नरेंद्र मोदी ने तो विपक्षी दलों से एक कदम आगे बढ़ कर नया दांव चल दिया है। विपक्षी दल तो हिंदू समाज को जातियों में विभाजित करके वोटबैंक बनाने की कवायद में जुटे थे, (Caste based census analysis) लेकिन मोदी ने तो मुस्लिम समाज के वोट बैंक में ही सेंधमारी कर दी है। मुस्लिम वर्ग के पसमांदा वर्ग को लुभाने के लिए की जा रही कवायद जाति की राजनीति नहीं तो भला और क्या है?

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