शिवसेना संकट ने हर राजनीतिक दल और देश को कुछ न कुछ सिखाया है। इनमें सबसे ज्यादा सीखने की किसी को जरूरत है तो वह है शिवसेना के अभी तक के मुखिया उद्धव ठाकरे को। उद्धव की अनुभवहीनता और मुख्यमंत्री बनने की जल्दबाजी ने आज शिवसेना को इस मोड़ तक ला दिया है। ऐसी तकनीकी बगावत है यह कि आप भाजपा पर आरोप तो लगा सकते हो, लेकिन यह खारिज नहीं कर सकते कि इसमें आपका दोष नहीं है।
अच्छी भली चलती सरकार के सबसे बड़े दल के दो तिहाई विधायकों को सिर्फ पैसों के दम पर, लालच देकर कोई कहीं नहीं ले जा सकता। यह एक कसक, आत्मसम्मान की उपेक्षा, संवादहीनता से उपजा मनोविज्ञानिक संकट भी है। संजय राउत जैसे असभ्य, असंसदीय भाषा-व्यवहार वाले नेता को अपनी ढाल बनाकर चलना ठीक नहीं है। आज भी जब सुलह की जानी चाहिए तो उद्धव और संजय मिलकर विधायकों को चेतावनी दे रहे हैं। यह चेतावनी वोट वाले लोकतंत्र में सदा ही निगेटिव जाती है। अब बाल ठाकरे जैसे दबंग नेता नहीं हैं, जिनकी एक आवाज पर मुंबई जल उठे। एकनाथ शिंदे की बढ़ती ताकत को देखते हुए अभी तो सेना के संगठन में भी फाड़ हो सकते हैं। ऐसे में चेतावनी, धमकी की भाषा से महाराष्ट्र को चलाने की गलती उद्धव ठाकरे को नहीं करना चाहिए।
शरद पवार के सामने भीगी बिल्ली बनकर खड़े उद्धव को यह समझना चाहिए कि वे एक राजनीतिक व्यक्ति हैं। शरद पवार चाहते हैं कि उनका मुकाबला भाजपा से सीधा रह जाए। कांग्रेस के साथ वे नेगोशिएशन के बाद हमेशा ही विजयी मुद्रा में हैं। ऐसे में बढ़ते भाजपाई प्रभुत्व को रोकने के लिए जरूरी है कि सेना टूटे और वह सिर्फ वोटकाटू भर रह जाए। इसलिए शरद पवार नहीं चाहते कि सेना खत्म हो, मगर ये जरूर चाहते हैं कि यह दांतविहीन रह जाए।
ऐसे हाल में उद्धव की यह नासमझी ही कही जाएगी कि वे इसे गुस्से, आक्रोष से डील कर रहे हैं। जो रही-सही संभावनाएं रह जाती हैं। कुछ विधायक वापसी को लेकर द्वंद में थे वे अब और उद्धव की ओर नहीं झुकेंगे। यह सब किसने किया, सिर्फ संजय राउत ने। संजय राउत रिवेंजफुल और असभ्य, असंसदीय भाषा व व्यवहार वाले नेता हैं। ऐसे में उद्धव को देखना होगा कि वे इससे क्या लें और कहां इन्हें रोक दें।
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