Amit Shah In Rajnandgaon
बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक
Kisan Andolan Converting to Civil War किसान आंदोलन को चुनावी आंदोलन कहिए। ऐसी मांगे जिनमें किसी की कोई परवाह नहीं। न मुकम्मल वजह न कोई बड़ा मांगों का आधार। बस किसी तरह से देश में अस्थिरता पनपना चाहिए।
Kisan Andolan Converting to Civil War यह सुनकर भले ही आपको लगता हो किसी राजनीतिक दल से संबद्ध व्यक्ति का बयान है, किंतु ऐसा है नहीं। दरअसल किसान आंदोलन के नाम पर जो अराजकता फैलाई जा रही है। जो भय लोकमानस में भरा जा रहा है। जो सरकारों को धमकाने की प्रथा चलाई जा रही है वह किसके लिए कष्टकर होने वाली है। समूचे भारत को थ्रेट पर रखकर बचकानी मांगों के साथ कोई कैसे इतना उग्र हो सकता है?
किसानों की आड़ में जो देश में किया जा रहा है उसकी आम जनमानस को निंदा करने का वक्त है। इस नए दौर के नए ढंग ने देश में अराजकता के बीज बोए हैं। घरेलू युद्ध की तरफ धकेलने की हिमाकत की है। ऐसा नहीं है कि सरकारें ऐसे अराजक तत्वों से निपट नहीं सकती, किंतु भारत की आर्थिक, सामाजिक रफ्तार पर विपरीत असर न पड़े, सिर्फ लिहाज इसका है। किसानों की मागों का एक-एक प्वाइंट जरा देखिए, कैसे कौन सी मांग कितने आधार वाली है।
मांग नंबर-1- किसानों को एमएसपी का कानून चाहिए
एमएसपी पर कानून का मतलब है देश में हर चीज की कीमतों में बेतहाशा उछाल लाना। हम जो भी उपभोग करते हैं उसका अधिकतम रॉ मैटेरियल खेती से आता है। जो कपड़ा पहनते हैं, जो फास्टफूड खाते हैं, जो सुबह-शाम डिनर करते हैं, यहां तक कि जो शाम की रंगीन पार्टयों में शराब परोसी जाती है। सबका बेस खेती है। ऐसे में अगर इनकी मिनिमम प्राइस तय कर दी गई तो देश में श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे हालात बन जाएंगे। सोचिए गेहूं की एमएसपी 4 हजार रुपए रख दी जाए तो यह आटा बनते तक हमारी थालियों में रोटी बकर 6 हजार रुपए तक में पहुंचेगा। क्या हमारा भारत सिर्फ किसानों को कीमत देने के लिए भावुक होकर अपने बच्चों के निवाले छीन ले। दूसरी बात यह खुद किसानों के लिए घातक है। वे एक, दो, तीन फसलें उगाएंगे, बाकी की जरूरतें बाजार से ही पूरी करेंगे। गेहूं उगा लेंगे, कपास का कपड़ा तो बाजार से लाना होगा, रबड़ का जूता बाजार से लाना होगा, घरेलू अनेक सामग्री बाजार से आती हैं। तो भावुक न होइए, यह सब प्रोपगेंडाबाजी है। किसान हम सब हैं। और किसानों के प्रति सबका आदर है। किंतु यह जो प्रदर्शनकारी हैं ये इन्हें ढाल बनाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। राजनीतिक टकराव को उकसा रहे हैं। देश में घरेलू युद्ध का स्वप्न देख रहे हैं।
मांग नंबर-2- स्वामीनाथन आयोग के अनुसार कीमतें तय हों
स्वामीनाथन आयोग ने उत्पादन के संतुलन पर भी जोर दिया था। इस पर किसान आंदोलन के अगुवा कोई बात नहीं कर रहे। इसका मतलब है हर राज्य में जलवायु के अनुरूप जो संभव उत्पादन है वह किया जाना चाहिए। चूंकि एमएसपी को कानून बनाने से यह संतुलन पूरी तरह से बिगड़ जाएगा। अभी जिन उत्पादों में एमएसपी है वहां देख लीजिए क्या स्थिति है। चूंकि जिन फसलों की कीमत ज्यादा होती है, स्वाभाविक है किसान वही उगाएंगे। तब भारी असंतुलन होगा। कुल जमा यह मांग किसानों की नहीं अराजकों की है जो देश में सिविल वॉर चाहते हैं।
मांग नंबर-3- किसान, खेत मजदूरों का कर्जा माफ हो, पेंशन दी जाए
क्यों दी जाए? क्यों कर्जा माफ हो? कर्ज का अर्थ कर्ज है, अनुदान नहीं। यूं भी विभिन्न सरकारें किसानों को भरपूर सहायता देती आई हैं और दे रही हैं। खेती मजदूरों को पेंशन किस बात की दी जानी चाहिए। जरा सोचिए, क्या यह किसी स्वस्थ अर्थव्यवस्था में रोड़ा नहीं है। यूं भी खेती मजदूर ही क्या अनेक श्रमिकों के लिए विभिन्न राज्य सरकारें भरपूर सहयोग देती हैं। 80 करोड़ लोगों को खाद्यान्न अभी दिया जा रहा है जिसे 5 बरस बढ़ाया गया है। देश में फूडसेफ्टी कानून की बात चल रही है। तब यह बेमानी है। सारा किस्सा अर्थव्यवस्था को बेपटरी करने का है। बेपटरी वाला देश सिविल वॉर में जाता है।
मांग नंबर-4- भूअधिग्रहण 2013 फिर से लागू हो
सवाल ये है कि भूअधिग्रहण पहले से ही बाजार भाव से चौगुना देने का है। इस पर क्षेत्रीय स्तर पर तमाम किसान मिलकर प्रदर्शन करके कुछ बढवा ही लेते हैं। उदाहरण के रूप में छत्तीसगढ़ में नया रायपुर के लिए 16 साल पहले जमीन अधिग्रहण किया गया। किसानों ने जमीनें दे दी, लेकिन नया कानून आया तो फिर आंदोलन करने लगे। अंततः यह आंदोलन किसानों का था तो उतना उग्र नहीं हो पाया जैसा कि दिल्ली वाला आराजक तत्वों का हो रहा है। यह मांग जैसी मांग नहीं है। यह भी देश को घरेलू लड़ाई की तरफ झोंकने की टेक्निक है।
मांग नंबर-5 लखीमपुर खीरी के दोषियों को सजा दी जाए
बिल्कुल जायज मांग है। इस हिंसा में मारे गए पुलिसकर्मियों को रौंदने वाले अराजक तत्वों को भी वैसे ही कुचला जाना चाहिए जैसा उन्हें कुचला गया। हिंसा में मरे कथित किसानों के परिजनों को मिली सहायता वापस लेकर जांच होनी चाहिए। जो दोषी हों उन्हें सजा मिलना चाहिए। ऐसा करने से देश गृहयुद्ध से बचेगा।
मांग नंबर-6- मुक्त व्यापार समझौते पर रोक लगाई जाए
यह किसी को पल्ले नहीं पड़ रहा। आढ़तियों की कहानी है। ज्यादा न उलझिए। यह भी बाजार की रफ्तार पर अंकुश है और देश को गृहयुद्ध में झोंकने की कोशिश है।
मांग नंबर-7 विद्युत संशोधन विधेयक-2020 को रद्द किया जाए
बहुत सी राज्य की सरकारें सब्सिडी या फ्री में किसानों को बिजली देती हैं। देना चाहिए और देंगी भी। यह विधेयक ऊर्जा को केंद्रीकृत करता है। इसके बाद केंद्र सरकार टैरिफ से लेकर बहुत सारे बिजली संबंधी निर्णय करेगी। इन अराजक किसानों को भय है, इससे फ्री बिजली नहीं मिलेगी। जबकि फ्री बिजली किसानों को मिलती रहने वाली है। इसमें दूसरी बात सब्सिडी को खाते में देने की बात है। इससे पता चलेगा कौन-कौन असली यूजर हैं। अभी किसान के नाम पर कनेक्शन लेकर लोग घरों में बिजली जलाते हैं और कई जगह औद्योगिक इस्तेमाल भी करते हैं। सिर्फ इसलिए विरोध हो रहा है इसका, ताकि देश की ऊर्जा को इन बिचौलियों द्वारा बेजा खींचा जा सके। ऊर्जा में शक्तिशाली देश दुनिया में शक्तिशाली देश बनता है। ये चाहते हैं देश में ऊर्जा का इस तरह से एकीकरण न हो पाए ताकि देश पीछे जाए।
मांग नंबर-8- मनरेगा में 200 दिन का काम और 700 दिहाड़ी कर दी जाए
कमरतोड़ महंगाई हो जाएगी। आपको घर में पेंट भी करवाना है तो 200 रुपए किलो के पेंट को पोतने के लिए एक हजार रुपए का एक मजदूर मिलेगा। किसानों को इससे क्या फायदा हुआ। यह मांग सिर्फ कुछ खेती, मजदूरों से जुड़े संगठनों को साथ लाने के लिए रखी गई है। यह अव्यवहारिक है। इससे देश में भारी महंगा मैन पावर हो जाएगा। जिससे कई छोटे, बड़े कुटीर, लघु उद्योग खत्म हो जाएंगे। किसान खुद भी अपने खेतों पर काम करवाने के लिए महंगे मजदूर लाएंगे। छोटे उद्योगों, कामों का बंद करवाना देश को सिविल वॉर में झौंकना है।
मांग नंबर-9- किसान आंदोलन में मृत किसानों को मुआवजा और सरकारी नौकरी मिले
बिल्कुल जायज मांग है। इस देश में अगर सड़क दुर्घटना में भी कोई मर जाता है तो लाख-पचास हजार रुपए स्थानीय प्रशासन दे देता है। तब ऐसे सिविल वार की मानसिकता से शुरू किए गए आंदोलनों में मृत लोगों को कुछ न मिला हो, ऐसा हो नहीं सकता। फिर भी अगर मुआवजा दिया जाए तो कोई बुराई नहीं। बशर्ते ऐसी अराजकता दोबारा नहीं फैलाएंगे यह संगठनों से लिखवाकर लेना चाहिए। ताकि ये कथित आंदोलनकारी देश को सिविल वॉर में न झौंक पाएं।
मांग नंबर-10- नकली कीटनाशक, खाद बनाने वाली कंपनियों पर कड़ा कानून हो
नकली खाद या कीटनाशक ही क्या, देश में नकली कोई पानी भी बेचता है तो उसके लिए कानून हैं। ऐसे कानूनों से अगर कोई बच निकल रहा है तो और कड़े कानून बना दीजिए। इसमें अराजकता की क्या जरूरत है? इस पर भी आंदोलन कर रहे हैं तो समझिए वे सिर्फ देश को तोड़ना चाहते हैं।
मांग नंबर-11- मिर्च, हल्दी, मसालों के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाया जाए
बिल्कुल बनाया जा सकता है। इसके लिए भी कोई अराजकता फैलाने की जरूरत नहीं। चाय या कॉफी प्रसंकरण बोर्ड की तर्ज पर मसाला प्रसंकरण आयोग, बोर्ड बना सकते हैं। इसके लिए उग्रता की बात ही नहीं है। इस आसानी से मानने योग्य मांग को रखकर अराजक तत्वों ने टेस्ट किया है कि देश कितना बेवकूफ बन सकता है और इसे कितने समय में कितने समय के लिए सिविल वॉर में झौंका जा सकता है।
मांग नंबर-12- संविधान की पांचवी अनुसूची लागू की जाए
इसे पेसा एक्ट कहते हैं। यह देश के अधिकतर आदिवासी राज्यों में लागू है। जहां नहीं है वहां लागू करने की जरूरत नहीं है। इस एक्ट को देश के माथे पर कलंक के रूप में देखना चाहिए। यह ग्रामसभा को देश की लोकसभा और राज्यों की विधानसभा से अधिक ताकत देता है। अगर ऐसा है तो किसी गांव में पाया जाने वाला कोयला देश का नहीं हो सकता, जब तक ग्रामसभा उसे न बेचे। ग्रामसभा ट्रेडिंग भी कर सकती है। ऐसे में सोचिए क्या हालत होगी। छत्तीसगढ़ के गांव कोयला बेचने लगें तो न सरकारों की जरूरत है न किसी प्रशासन की। भारत नामिबिया, युगांडा बन जाएगा। अफगान बन जाएगा। सबसे बड़ी बात यह किसी किसान का मसला है ही नहीं। सिर्फ जनजातिय समूहों को अपनी ओर खींचकर ताकत बढ़ाने के लिए जोड़ा गया है। इसकी व्यवस्था ही तबकी मूर्ख सरकारों ने वामपंथियों और अराजक तत्वों के दबाव में कर डाली। पेसा जैसे कानून ही दरअसल जशपुर के पत्थलगढ़ी जैसे अराजक आंदोलनों को खादपानी देते हैं।
अब आप इन 12 मांगों पर अध्यय कीजिए। फिर तय कीजिए आखिर यह मांगें किसानों की हैं या भारत का बुरा चाहने वालों की।