Barun Sakhajee, Associate Executive Editor
बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक
छतरपुर : #NindakNiyre: मध्यप्रदेश से छतरपुर जिले के एक गांव की तस्वीरों ने हिला दिया। दूल्हा घोड़े पर बैठा है। बारात जा रही है। बैंड-बाजे का संगीत है। अचानक से पत्थरों की बारिश हो उठती है। हिंदुओं में कथित ऊंची जातियों के कुपढ़े दलित जाति के इस दूल्हे के घोड़े पर बैठने से नाराज थे। बारात का नाच-गाना थम जाता है। लोग जान बचाकर भागते हैं। फिर कुछ लोग सरेआम दलितों को जातिसूचक गालियां देते हैं। दलित समाज के कुछ लोग पुलिस को सूचना देते हैं। बारात रुक जाती है। घंटों बाद पुलिस पहुंचती है। दो-तीन सिपाही डंडे हाथ में लिए।
बारात अब इनकी निगरानी में निकाली जाएगी। फिर दूल्हा घोड़ी चढ़ता है। अपने कुलदेवी-देवताओं को पूजते हैं। पुलिस आगे-पीछे गुटखा-मसाला मलती हुई हाथ में डंडे लिए चलती है। दावे से तो नहीं कह सकता, लेकिन यह पान-मसाला पुलिस ने किसी दलित से तो नहीं लिया था। इस बार पुलिस का भी न लिहाज था न अपनी बेशर्मी पर कोई शर्म। फिर पत्थर सन्नाए जाते हैं। बुंदेली में सन्नाए मतलब फेंके जाते हैं। अब पुलिस भी सहम गई। उसकी लाठी की धमक बेअसर रही। थाने और मुख्यालय को सूचना जाती है। बारात रुक जाती है। घंटो बाद एक बार फिर से अब हथियारबंद बड़े अफसरों के साथ पुलिस दल-बल से पहुंचती है। गांव में पहले सुलह के प्रयास, लेकिन ऊंची जाति के इक्कसवी सदी वाले नौजवान फिर क्रोध से भर जाते हैं। विजुअल कहते हैं वह बहुत गुस्से में हैं। वे इस “अनहोनी” को रोकना चाहते हैं। कुछ महिलाएं भी सिंदूर, बिंदी, घूंघट जैसे सहज हिंदू श्रृंगार में बाहर निकलती हैं। कहती हैं हमारी गली से नहीं निकल सकते, क्योंकि वे चमा… हैं। चमा… होना अपराध है इनकी नजर में। कोई कन्फ्यूजन नहीं है इनके मन में। न अपनी करनी, कहनी को लेकर कोई भी संकोच। कुछ इक्कीसवीं सदी के नौजवान रास्ते पर आते हैं। गुस्से से बाल बिखर जाते हैं। पत्थर उठाते हैं और पुलिस की ओर फेंकने की विफल कोशिश करते हैं। पुलिस से आवाज आती है। अच्छे से समझा रहे हैं, पुलिस नै उरझियो (पुलिस से मत उलझना)। अब बो समओ नई रौ (अब वह समय नहीं रहा), मान जाओ। इस तरह से संगीनों के साये में एक दलित दूल्हे की बारात निकलती है।
#NindakNiyre: गांव में कैमरे में एक कुत्ता नजर आता है। उसके पास ही एक राजनीतिक दल का झंडा लहरा रहा होता है। ऐसा लगता है, कुत्ता स्वयं को ऊंचा महसूस कर रहा है, चलो मैं भी किसी से ऊपर तो हूं। अब तक तो ऐसा लगता था जैसे अकेला ही हूं लाते खाने वाला। दल का झंडा मुस्कुरा रहा है। वह जो वर्षों से बो रहा है वही तो हो रहा है।
कुछ ऊंची, पिछड़ी जातियों के लोग दलितों से खफा हैं। वे मानने तैयार नहीं हैं कि इन्हें भी मनुष्य के उसी वीर्य ने बनाया है जिसने इन्हें। ये मानने तैयार नहीं हैं यह भी उसी मनु की संतान हैं जिसकी संतान ये हैं। ये मानने तैयार नहीं हैं जिस राम को ये पूजते हैं वे भी उसे ही पूजते हैं।
#NindakNiyre: इस बात से खफा ऊंची जातियां सोचती हैं दलित दूल्हा घोड़ी पर बैठ कैसे सकता है। मैं भी सोचकर मौन हूं। आखिर आज के दौर में या यूं कहिए किसी भी दौर में जातियां आपस में लड़ने के लिए भी हो सकती हैं। या इनमें ऊंचे-नीचे का भी भेद हो सकता है। इन गंवारों को यह बताना बेकार है कि जातियां इंसानी शरीर को सदियों तक स्वस्थ रखने का बायलॉजीकल विज्ञानिक तरीका है। जातियां ऊंची-नीची हो सकती हैं लेकिन किसी से कमतर या ज्यादातर नहीं।
बुंदेलखंड से ऐसी खबरें ही देश में व्याप्त गैर-राष्ट्रीय विचारों को खाद-पानी देती हैं। ऐसी घटनाएं ही असल में हिंदुत्व को नुकसान पहुंचाती हैं। ऐसी कहानियां ही आरक्षण की आवश्यकता को बल देती हैं। ऐसी सोच ही असल में सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ती हैं। इस तरह के बर्ताव ही हिंदुओं के बहुत संकुचित होने के नरेशन को उभारती हैं। बक्सवाह को इस घटना पर शर्मिंदा होना चाहिए।
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