Paramhans_Shrirambabajee: नगर-गांव बसाहटों में संस्कारों का अंतर

Paramhans_Shrirambabajee: नगर-गांव बसाहटों में संस्कारों का अंतर
Modified Date: December 31, 2025 / 05:24 pm IST
Published Date: December 31, 2025 5:24 pm IST

बरुण सखाजी श्रीवास्तव

नगर और गांव भारत की प्रमुख दो बसाहटें हैं। भारत का समाज इन दो बसाहटों से गुथा हुआ है। कहा जाए तो ये दो सिर्फ बसाहटें नहीं हैं बल्कि सभ्यताएं हैं। एक दौर में दोनों सभ्यताओं में बड़ा अंतर हुआ करता था, लेकिन अब यह अंतर बहुत कम हो गया है। बावजूद इसके बड़ा अंतर बाकी है। नगरीय सभ्यताएं ग्रामीण सभ्यताओं से सीख रही हैं और ग्रामीण सभ्यताएं नगरीय सभ्यताओं को अपना रही हैं। सीखना और अपनाना दो अलग-अलग बातें हैं। सीखना कुछ अच्छा होता है, लेकिन अपनाना सिर्फ कॉपी होता है। जो जैसा है वैसा ही अपना लेना होता है। यूं तो यह बसाहट, सभ्यता, लोकव्यवहार का विषय है, किंतु परमहंस श्रीराम बाबाजी ऐसे विषयों पर भी अव्यक्त होकर व्यक्त हुआ करते थे। वे गांव और नगर के इस फर्क को एक वाक्य में अभिव्यक्त करते थे।

एकबार परमहंस गुरुवर हनुमानजी श्रीराम बाबाजी भोपाल से विदिशा की यात्रा कर रहे थे। सौभाग्य से मैं ड्रायविंग सीट पर था। रास्ते में अचानक से एक बाइक पर सवार तीन युवकों ने रोड पर गाड़ी तेज गति से चढ़ाई, जिससे मुझे तुरंत ब्रेक लगाना पड़े। गाड़ी में झटका लगा। बाइकर्स सुरक्षित बिना पीछे देखे सीधे हाइवे को पकड़कर रफ्तार से निकल गए। मेरे मुंह से निकला मरेंगे, कैसे गाड़ी चलाते हैं। महाराजजी उस समय मौन रहे। बहुत देर बाद करीब हम मानोरा पहुंचने वाले थे तब बोले, आदमी गांव से नगर आत थो गंवार से नागरिक बनबे। जे नगर में तो आ गए मनो बने गंवार के गंवार ही रै, फिर आंख बंद करके मुस्कुराने लगे।

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यह वाकया बताता है उनकी सामाजिक, बसाहट, संख्यात्म समाज की समझ बहुत स्पष्ट और दूरदर्शी थी। गांव का अर्थ सबका सम्मान, सहकार, सबके साथ मिलकर, सबका साथ देकर, सबका होकर, सबके लिए होकर, सब में मैं और मैं में सब देखकर चलना होता है। नगर का अर्थ सभ्य, शिक्षित, प्रशिक्षित किंतु अर्थ की गहरी पकड़, हवा, पानी से लेकर प्रकाश तक की क्वाइन वैल्यू (पैसा) वाली बसाहट। कुछ भी मुफ्त नहीं होता और कुछ भी वस्तु के बदले वस्तु भी नहीं होता। गांव में बार्टर (वस्तु विनिमय) होता है। एक दूसरे के खेतों में सहयोग भी होता है तो चीजों का आदान-प्रदान भी। नगरों में आदान-प्रदान के बीच मुद्रा की दीवार होती है। इन सब फर्कों बाद भी नगर में एक अच्छे जन बनने की सारी संभावनाएं होती हैं, खासकर उसके लिए जिसकी जड़ें गांव से जुड़ी हों।

जिन्हें नगर में आकर नागरिक बनना चाहिए था, लेकिन गांव का गंवारत्व नहीं त्यागा गया। इसका अर्थ है हम शिक्षित हुए, प्रशिक्षित हुए, कुशल बने, काम के बने लेकिन संस्कारों के नहीं बन सके। संस्कारों से दूर और दूर जाते जा रहे हैं। मोटरसाइकिल की इस तरह से लहरदार चाल सिर्फ उन बच्चों की नहीं बल्कि उनके संस्कार केंद्र माता-पिता, परिवार, समाज, गांव, शिक्षकों की भी है।

परमहंस श्रीराम बाबाजी आध्यात्मिक चेतना के प्रेरक ब्रह्म हैं। बहुत करीब और करीने से उनका अध्ययन करने का प्रयास करते हैं तो वे समुद्र जैसे गहरे और आकाश जैसे विशाल हैं। उनका आध्यात्मिक चिंतन गगन से भी ऊंचा और सामाजिक चिंतन महासागरों से भी अधिक अथाह है। छोटी-छोटी चीजों, क्रियाओं के जरिए उनके सामाजिक और संस्कारों के संदेश सर्वव्यापी हैं। उनके इस व्यक्तित्व पर भी चर्चा होती रहेगी।

(आगामी अंक में पढ़िए क्यों पूज्यनीय हैं ब्राह्मण)

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Associate Executive Editor, IBC24 Digital