Paramhans_Shrirambabajee: कुछ से बहुत कुछ तो बन सकता है, लेकिन बनाने वाला गुरु हो तभी संभव है

Paramhans_Shrirambabajee: कुछ से बहुत कुछ तो बन सकता है, लेकिन बनाने वाला गुरु हो तभी संभव है
Modified Date: November 21, 2025 / 10:29 pm IST
Published Date: November 21, 2025 10:29 pm IST

बरुण सखाजी श्रीवास्तव
सत्य तत्व से ही दुनिया चल रही है। यह हमे प्रकृति भी सिखाती है। परमहंस श्रीराम बाबाजी हनुमाजी इस बात को कहते थे, कछु तो हुए। इसका अर्थ बुंदेली में कुछ तो होगा, होता है। वे व्यक्ति के समग्र मूल्यांकन का आधार उसके भीतर मूलभूत अच्छाई को मानते थे। मूलभूत सत्य को मानते थे। अगर थोड़ा भी सच है तो उसे और बड़ा करने का रास्ता सदा बना रहता है। उसे बड़ा करने के प्रयास किए जा सकते हैं, लेकिन इसमें सबसे ज्यादा भूमिका बड़ा करने की लालसा की होती है और गुरु को समझने की होती है। कोई कथा कर रहा है, पूजा अर्चना कर रहा है, गौसेवा कर रहा है या कुछ भी अच्छा कर रहा है तो उसका मूल्यांकन समग्रता में करने की बजाय उसकी अच्छाई में करना चाहिए। अच्छाई में मूल्यांकन करने से हम भी अहंकार से बचे रहते हैं और वह भी। यह सच्चा तरीका समझ में आता है। कछु तो हुए में जो कछु है वह वही सत्य है जिसे महाराज जी मनुष्य में खोजते थे। यह अभिव्यक्त नहीं, बल्कि उनकी आंतरिक स्थिति थी।
संसारी आंखों से देखने पर कई बार महाराजजी के आसपास ऐसे लोग भी नजर आते थे, जिनकी सामाजिक छवि अच्छी नहीं है। कई बार ऐसा भी होता था, जिनके घर गए हैं वहां घर के सभी सदस्य उतने मन से प्रेरित नहीं हैं जितना प्रेरणा का उन्हें अवसर मिला है। कई बार ऐसा भी होता था बड़े धार्मिक आयोजनों में जाते, लेकिन  वहां चल रहे पाखंड पर बेबाकी से बात करके चले आते। इन सबके बीच एक बात सदा रहती, कछु तो हुए।
भक्तों में अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने की लालसा होती है। यह तब तक तो ठीक है जब तक श्रेष्ठ बनने की लालसा आंतरिक है, जैसे ही यह बाह्य हुई, यह खतरनाक हो जाती है। हनुमानजी परमहंस श्रीराम बाबाजी तत्व से चीजों को देखते और मानते थे। तत्व की खोज में ही वे भक्तों की मंडली में हरा, लाल, पीला संकेतक नहीं लगाते थे। न किसी को अपने पास आने से रोकना, न किसी को अपने पास से जाने देने से रोकना, न अपने पास किसी को स्थायी रूप से रखना। न किसी पर इतना रीझ जाना कि वह महाराजजी की हर गतिविधि का ठेकेदार बन जाए न किसी की इतनी उपेक्षा करना कि उसके यहां कभी जाएंगे ही नहीं।
भगवान के एक स्वरूप में यह बात होती है। वे कंस के भांजे हो सकते हैं, क्योंकि उन्हें देवकी का बेटा बनना है। यह समझना कि भगवान संपूर्णता में ही प्रकट हो सकते हैं, यह हमारा संसारी नजरिया है। यह संपूर्णता हमारी संसारी दृष्टि ने रची है। तात्विक और आध्यात्मिक संपूर्णता बहुत अलग होती है। हमारी रची संपूर्णता के हर पैरामीटर हमारी संकुचित बुद्धि से जन्म लेते हैं। आध्यात्मिक, पारलौकिक और ब्रहमांडीय क्रम में यह उलट भी सकता है। तभी सर्वोच्च अवतार कृष्ण के मामा कंस हो सकते हैं। महाराजजी चैतन्य हनुमानजी के रूप में सशरीर भ्रमण करते थे। सशरीर लीलाएं करते रहे। जिन्हें जितने समझ आए उन्हें उतने समझ आए। इसमें किसी का कोई दोष नहीं। क्योंकि वे स्वयं कहते थे कछु तो हुए। उस कछु में वे भी शामिल हैं जिन्हें कम समझ आए।
कछु तो हुए यानि कुछ तो होगा से आशय आवश्यक नहीं सारी धार्मिक गतिविधियां करने वाला धर्मात्मा हो। जरूरी नहीं नित मंदिर जाने वाला ही ईश्वर का भक्त हो। वह भी सत्संगी हो सकता है जो कैजुअल सत्संगी है। उसमें उस दैनिक कर्मकांडी से ज्यादा सत हो सकता है जो कभी-कभार सत्संग करता है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि धर्म, कर्म, क्रिया, पद्धतियों में संलग्न भक्त नहीं हो सकता।
परमहंस हनुमानजी श्रीराम बाबाजी उस कछु को पल्लवित करने के लिए क्रियाएं करते थे। अगर कोई कपटपूर्ण ढंग से पूजापाठ में भी संलग्न है तो भी उसमें उस कछु को खोजकर उसका कल्याण किया जा सकता है। एक यात्रा के दौरान मैंने कहा, महाराजजी ये पहाड़ों, नदियों के दुश्मन दान करके अपने कर्मों को सुधार पाते हैं या सिर्फ समाजिक वैभव की लालसा इनसे यह करवाती है। महाराजजी मौन रहे। करीब दो घंटे की यात्रा के बाद उन्होंने बिना किसी संदर्भ के एकदम से कहा, करत हुएं जिन्हें जो करने है, हम तो अपनो काम कर रै…। कछु तो कर रौ, नै तो जा कलजुग में अरे राम रे राम…। यह परमहंस श्रीराम बाबाजी हनुमानजी ने उस वक्त कहा जब कोई संदर्भ नहीं था। न कोई बात निकली थी। मेरे प्रश्न और इस बात के अंतराल में अनेक विषय उठ चुके थे। मैं भी अपने प्रश्न को लगभग भूल चुका था या कि मान चुका था महाराजजी इस पर उत्तर नहीं देना चाहते या दे नहीं रहे या मैं समझ नहीं पाऊंगा इसलिए या वे ऐसी चीजों में उलझते नहीं।
गुरुवर हनुमानजी उलझते नहीं थे से तात्पर्य वे इसकी व्याख्या, संकलन, आंकलन में अपना कंपोजीशन प्रभावित नहीं करना चाहते थे। वे ईश्वर की मस्ती में मस्त थे। इसलिए ज्यादा अभिव्यक्तियों, कथनों में नहीं पड़ते थे। वे उस कछु को खोजते थे और उसे ही आधार बनकर व्यक्ति को बनाते थे। वे ब्रह्म थे, जो उस कछु से ही बहुत कुछ तक पहुंचा सकते हैं। हम संसारी हैं, हम पर भ्रम भारी है। इसलिए हम सिर्फ उस कछु से बहुत कछु तक नहीं पहुंच सकते, जब तक वे स्वयं हमे प्रेरित न करें, शरणागति न दें।
अगली बार शरणागति, पाखंड या अंतः स्थिति पर विमर्श करेंगे। जय हो परमहंस हनुमानजी श्रीराम बाबाजी की।


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Associate Executive Editor, IBC24 Digital