problem of environment is increasing with the population

आबादी से बढ़ रही है पर्यावरण की समस्या

problem of environment is increasing with the population : Acharya Prashant : भोगने की हवस के कारण आदमी अधिक-से-अधिक उपभोग कर रहा है

Edited By :  
Modified Date: November 29, 2022 / 02:07 PM IST
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Published Date: November 8, 2022 1:29 pm IST

पर्यावरण की सारी समस्याओं का जो मूल कारण है वो आदमी की हवस है ‘बने’ रहने की और बने-बने ‘भोगते’ रहने की। बने रहने की हवस के कार ण आदमी ज़्यादा-से-ज़्यादा जी रहा है और अपने बाद अपने पीछे बच्चे छोड़कर जा रहा है। भोगने की हवस के कारण आदमी अधिक-से-अधिक उपभोग कर रहा है।

समाधान तो बहुत सरल है — ज़्यादा नहीं, अगले बीस साल यदि बच्चे नहीं पैदा हों तो सब ठीक हो जाएगा क्योंकि लोग जा तो रहे ही हैं, जाना तो रुक नहीं जाएगा। बीस साल बस दुनिया की आबादी में बच्चे जुड़ें नहीं — पर्यावरण भी ठीक हो जाएगा, हवा भी ठीक हो जाएगी, जंगल-पहाड़ भी ठीक हो जाएँगे, समुद्र भी ठीक हो जाएँगे, पशु-पक्षी ठीक हो जाएँगे, सब ठीक हो जाएगा। बीस साल बस दुनिया की आबादी मत बढ़ाओ। और मन अगर ऐसा हो गया कि ‘आबादी मत बढ़ाओ’, तो मन फिर ऐसा भी हो जाएगा जो उपभोग नहीं कर रहा है। क्योंकि आबादी को बढ़ाने की इच्छा और ज़्यादा-से-ज़्यादा उपभोग की इच्छा, दोनों निकलते एक ही स्रोत से हैं।

तो या तो तुम बहुत लंबा-चौड़ा रास्ता ले सकते हो कि पर्यावरण बचाने की मुहिम चलाओ, अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन कराओ, अंतरराष्ट्रीय समझौता कराओ; फिर वैसे समझौते न जाने कितने हुए, उनका कोई पालन नहीं करता — कंपनियाँ तो चलें पर वह अपना कार्बन फुटप्रिंट नापें, उनकी कार्बन रेटिंग हो और तमाम तरह के काम हों। यह तमाम तरह के काम होते रहें और एक जो सीधा-सीधा काम है, वो ना किया जाए।

दुनिया की सारी समस्या बस एक वजह से है — हम ना सिर्फ़ अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं, बल्कि प्रति व्यक्ति उपभोग भी बढ़ाए ही जा रहे हैं। तो आज अगर दस लोग हैं और इन दस लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति दो-दो इकाई का उपभोग करता है — दो-दो इकाई संसाधन का उपभोग करता है — तो कुल उपभोग कितना हुआ? बीस इकाई। कल ये दस के पन्द्रह लोग हो जाते हैं और यह दो-दो इकाई प्रति व्यक्ति उपभोग करने की जगह चार-चार इकाई का उपभोग करते हैं, इसी को तो तुम विकास कहते हो न कि विकास आ रहा है? पहले हम जितनी बिजली इस्तेमाल करते थे, अब उससे चार गुनी कर रहे हैं, पहले हम जितना पेट्रोल फूँकते थे, अब उससे दस गुना फूँक रहे हैं — इसी को तो तुम जी.डी.पी. कहते हो,

जी.डी.पी. का यही तो अर्थ होता है तुम फूँक रहे हो, तुम जला रहे हो। तो वो बीस अब कितना हो गया? पैंतालीस हो गया, साठ हो गया।

दोनों चीजें बढ़ रही हैं न — तुम जिए भी ज़्यादा जा रहे हो, तुम बच्चे भी ज़्यादा पैदा किए जा रहे हो और जो लोग जी रहे हैं वो ज़्यादा फूँक भी रहे हैं और हर आने वाली नस्ल, पिछली नस्ल से ज़्यादा फूँक रही है। तुम्हें बस ये रोकना है। तुम्हें कोई अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन, अंतरराष्ट्रीय समझौता नहीं चाहिए। वह सारी बड़ी-बड़ी अंतरराष्ट्रीय बाते हो ही इसीलिए रही हैं ताकि एक सीधी-सादी बात ना करनी पड़े। किसी में हिम्मत नहीं है कि दुनिया के लोगों से बोल दे कि, “बच्चे मत पैदा करो! गुनाह है!” क्योंकि यह सीधी-सादी बात बोलते हमारी ज़बान काँपती है तो हम तमाम टेढ़े-तिरछे काम करते हैं। हम कभी क्योटो प्रोटोकोल लेकर आते हैं, कभी हम रियो-डी-जनेरियो जाते हैं, कभी हम पेरिस में बैठकर संधि करते हैं, कभी हम कुछ, कभी कुछ करते हैं। और हम जो कुछ करते हैं वो विफल है। बस एक जो सीधा-सादा काम करना चाहिए, वो करने की हममें हिम्मत नहीं है।

दुनिया का कोई राष्ट्रपति, कोई प्रधानमंत्री, दुनिया का कोई बड़े-से-बड़ा, शक्तिशाली-से-शक्तिशाली आदमी यह खुलकर बोल पाने की हैसियत नहीं रख रहा है कि एकमात्र, एकमात्र समस्या है — बच्चे!

बच्चों का जन्म मात्र शारीरिक बात नहीं होती, वह एक सांस्कृतिक बात भी होती है। हमने पूरी संस्कृति, पूरा कल्चर ऐसा बना दिया है कि बच्चा आना बड़ी बात हो जाती है। आम आदमी प्रेरित हो जाता है बच्चा पैदा करने के लिए। बच्चा दिखा नहीं कि अखबार उसकी फ़ोटो लेकर छाप देगा एक फ़्लॉप अभिनेता अभिनेत्री हों, उनके घर बच्चा पैदा हो गया है, अब उस बच्चे की दो साल, चार साल से फ़ोटो छपी जा रही है। ” अब जिन बेचारों की नई औलादें हैं, उनको कहा जा रहा है — ‘वी आर गिविंग यू प्रेग्नेंसी गोल्स’ (हम आपको गर्भावस्था के लक्ष्य दे रहे हैं)। ये तो गजब हो गया। एक अभिनेत्री हैं, उनकी अभी दिसंबर में शादी होने वाली है, उनसे पूछा गया “आप कैसे करने लग गईं?”, बोलीं — “जितनी अभिनेत्रियाँ हैं वो एक के बाद एक शादी करे जा रही थीं तो मुझे लगा मैं भी कर लेती हूँ”। यह सांस्कृतिक बात बन जाती है। “सब कर रहे हैं तो हम भी कर लेते हैं, शायद उसी में कोई खुशी हो। सब कर कर के खुशी का प्रदर्शन कर रहे हैं तो कुछ खुशी होगी ज़रूर।” — है क्या वास्तव में? यह तहकिक़ात कोई नहीं करता। है क्या खुशी?

जहाँ से तुम अपना सारा सांसारिक ज्ञान इकट्ठा करते हो, उन जगहों पर तुम जाओ, वहाँ न तुमको गीता मिलेगी, न क़ुरआन मिलेगी, वहाँ न तुमको उपनिषद् मिलेंगे, न कबीर मिलेंगे — हाँ किसकी-किसकी शादी चल रही है, उसके एक महीने पहले से उन शादियों की ख़बरें छपने लगेंगी और एक महीने बाद तक छपती रहेंगी और सिर्फ़ वहाँ पर तस्वीरें ही नहीं छपेंगी, वहाँ तुम्हें ललचाया जाएगा सीधे-सीधे — “ऐसे करो! ऐसे करो! देखो न पुरुष और स्त्री एक दूसरे के गले में बाहें डालकर कितना खुश हैं”। क्या हँस रहे हैं! हँसती हुई तस्वीरें छपी हैं। फिर कुछ दिनों में उनके यहाँ बेबी आ जाएगा और उसकी भी छप रही हैं। तो यह कोई शारीरिक बात नहीं है कि तुम बच्चे पैदा कर रहे हो, यह एक सांस्कृतिक बात है, और संस्कृति बदली जा सकती है। और संस्कृति बदल ही जाए। वो तो पापियों ने ग़लत संस्कृति पूरा दम लगाकर स्थापित करी हुई है। वह इतना दम ना लगाएँ तो यह झूठी संस्कृति भर-भरा कर गिर जाए, और वह दम इसलिए लगा रहे हैं क्योंकि इससे उनको आर्थिक लाभ होता है।

बच्चे यूँ ही नहीं पैदा हो रहे, बच्चे पैदा करने के लिए लोगों को मजबूर किया जा रहा है। लोगों को एक झूठी संस्कृति का प्रसार कर-कर के बच्चे पैदा करने पर मजबूर किया जा रहा है। पुराना ज़माना होता था, किसी स्त्री को बच्चा नहीं होता तो उसको लजाया जाता था। कहा जाता था कि, “यह तो बंजर है, बांझ है!” आज के ज़माने में तुम्हें लजाया नहीं जाता लेकिन तुमको ललचाया जाता है, और ललचा-ललचा कर काम हो ही जाता है।

हर बच्चा जो पैदा हो रहा है, वह मौत है न जाने कितने जानवरों की!

इंसान आया है तो उसे जगह भी चाहिए, सड़क भी चाहिए, अन्न भी चाहिए, पानी भी चाहिए, वो सब कहाँ से आएगा? वो सब जंगल से आएगा। जंगल कटता है तब तो खेत बनता है। बच्चे पैदा हो रहे हैं, उन्हें जगह चाहिए न, तो कहाँ बसेंगे वो? और सबको और ज़्यादा बड़े-बड़े घर चाहिए। तो वो घर कहाँ से आएँगे? वह जगहें कहाँ से आएँगी? पानी-अन्न, तमाम सुख-सुविधाएँ कहाँ से आनी हैं? उपभोग से ही आनी हैं। इंधन जलाकर ही तो आनी हैं। फिर पेड़ तो कटेंगे, कागज़ तो छपेगा। ये वस्त्र कैसे बनेंगे?

लेकिन नहीं! जब पर्यावरण को बचाने की बात होती है तो कहते हैं, “हमें नयी प्रौद्योगिकी चाहिए जिनसे प्रदूषण कम होता हो!” इतनी दूर की बात कर रहे हो, “नयी प्रौद्योगिकी लेकर आएँगे, चलो प्रौद्योगिकी की रिसर्च (शोध) में और पैसा लगाते हैं, ऐसी गाड़ियाँ निर्मित करते हैं जो कम प्रदूषण करती हैं।”

ठीक! तुमने गाड़ी ऐसी बना दी जो दस-प्रतिशत कम प्रदूषण करती है, और गाड़ियों की बिक्री कितनी बढ़ गई? बीस-प्रतिशत। तो प्रदूषण कम हुआ या बढ़ा? बढ़ा। पर तुम बताओगे — “नहीं, साहब! प्रौद्योगिकी आगे बढ़ रही है, गाड़ियाँ अब कम प्रदूषण करती हैं”। तुम बताओगे — “नहीं! अब तो इलेक्ट्रिक कार आ रही हैं”। ठीक है! वो जो इलेक्ट्रिक कार का स्टील है, वो कहाँ से आ रहा है? और इलेक्ट्रिक कार को चार्ज करने के लिए जो इलेक्ट्रिसिटी (बिजली) है, वो कहाँ से आ रही है? प्रदूषण कम हो रहा है?

आचार्य प्रशांत (Acharya Prashant)

वेदांत मर्मज्ञ, लेखक, पूर्व सिविल सेवा अधिकारी

संस्थापक, प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन

 
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