Paramhans_Shrirambabajee: प्रवचन नहीं वचन दो, जो कहो वो करो और जो करो वो ही हो जाओ
बरुण सखाजी श्रीवास्तव
परमहंस श्रीराम बाबाजी की बातों में सीधा, सपाट होता था, लेकिन विस्तार नहीं। विस्तार और व्याख्या वे भक्तों की मानसिक उर्बरा पर छोड़ते थे। लोगों की ग्राह्य क्षमता पर छोड़ते थे। कोई उनके कहे का अर्थ कितना निकालता है, क्या निकालता है, कैसे अपनाता है इस पर उनका ख्याल कम होता था। इसलिए वे एक सीमा पर आकर कहते थे, आंखों के अंधे, कानों के बहरे, चुप रै बाबा कुछ मत कह रे। यह वाक्य उनका तब निकलता था जब वे कुछ कह रहे हैं लेकिन उसी वक्त सामने मौजूद भक्तगण श्रद्धा तो रखे हुए हैं, लेकिन भाव, भंगिमा ग्राह्य नहीं लग रही। महाराजजी परमहंस श्रीराम बाबाजी अपने शब्दों को प्रवचन की तरह अबाध नहीं रहने देना चाहते थे। वे अपने कहे शब्दों को कम और भावों को ज्यादा प्रमुखता से प्रकट करते थे। कम में ज्यादा समझने की उनकी प्रेरणा रहती थी। वे कहते भी थे प्रवचन, गुरु, आश्रम, मठ बनाबे नहीं आए। जो करबे आए हैं बो कर रै हैं। जे हे समज आए तो आ जाए नई तो तुम जानो तुमरो काम। वे चाहते थे एक बदले, एक आए रास्ते पर मगर आए पूर्णता से। उन्हें भीड़ नहीं भक्त चाहिए थे। भक्त ही नहीं परमभक्त चाहिए थे। परमभक्त ही नहीं कैवल्य मानने वाले अर्पण चाहिए था। अर्पण ही नहीं समर्पण चाहिए था। तभी वे कहते थे, सब मिले मनो गुरु को लाल नहीं मिलो, कुई गुरु को लाल बनके दिखाए। गुरु का लाल मतलब पूर्ण समर्पण। पूर्ण शिष्यत्व। कौन कितने वर्षों से जुड़ा है, से ज्यादा कितना गहरा जुड़ा है इसे देखते थे। परमहंस श्रीराम बाबाजी के भक्तमंडल का विस्तार भीड़ में नहीं है, लेकिन भावनाओं में अनंत है।
महाराज जी अपनी बात कहने में संकोच, किसी का लिहाज नहीं करते थे। असहमति का ख्याल रखकर नहीं बोलते थे। न सहमति की अपेक्षा करते थे। उन्हें किसी से न लेना था न देना। इसलिए अपने भीतर ही आनंद में रहते थे। जिससे जो कहना है सो कहना है और जो करना है सो करना है। भावनाएं आहत हो जाएंगी जैसी शब्दावली उनके जीवन में नहीं रही। इसलिए वे कहते भी थे। सत्य बोलो, पूरा तौलो फिर मन चाह जहां डोलो, बाहर की बंद करो अंदर की खोलो। मुझे लिखने का काम मिला, तो लिखते समय उनके मौलिक भाव का ख्याल रखना ही होगा। भाव, स्वभाव, सहमति, असहमतिस अच्छा लगेगा, बुरा लगेगा का लिहाज कैसे किया जाए।
वर्ष 2023 दिसंबर में महाराज जी हनुमान मंदिर, उदयपुरा तलापुरा में विराजमान थे। मैं सपरिवार उनके दर्शन करके रायपुर की आज्ञा लेने गया। उन्होंने जैसे कुछ कहना चाह, आ गए, जा रै, जाओ। फिर कुछ कहते-कहते ठिठक गए। मैंने कहा भगवान आज्ञा। वे बोले का आज्ञा। तुम भी मोह-माया में पड़े हो। मेरी बेटी की ओर देखकर बोले जे मोह हैं, पत्नी की ओर देखकर जे माया हैं। मोह-माया में पड़े हो। अब का आज्ञा। मैं चरणों में गिर गया। उनके सामने प्रतिप्रश्न की न किसी में हिम्मत होती थी न किया जा सकता था। इसलिए मैंने इस बात को गहराई से महसूस तो किया, लेकिन समझ नहीं पाया। फिर वे बोले, हानि, लाभ, जीवन, मरण, जस, अपजस विधि हाथ। इस महामंत्र को समझते-समझते वर्षों बीत गए, लेकिन यह डिकोड नहीं हो पा रहा। कहने के अर्थ ही समझ आ रहे हैं। जीवन में उतारना या उतरना संभव ही नहीं हो पा रहा है। आज भी जरा से अपमान, तिरस्कार, लाभ, हानि से जीवन प्रभावित हो जाता है। कम सही लेकिन जीवन पर प्रभाव तो पड़ता है। गुरु के लाल हों तो यह सब न हो, लेकिन होता है। मान भाव, उपमान भाव सब होता है। इससे मुक्ति ही परमभक्ति है। प्राप्ति, प्रसिद्धि सिद्धि नहीं तंत्र हैं, यंत्र हैं, मंत्र नहीं। इन पर चिंतन यात्रा का आध्यात्मिक यात्रा का बाधक है। जो समझ जाए महाराज जी उसी गुरु के लाल को तलाशते थे।
गुरु का लाल की व्याख्या करना कठिन है। हमको लगता है हम बहुत कुछ कर रहे हैं, लेकिन सच में हम वह कुछ नहीं कर रहे हैं जो उनकी प्रेरणा है। हम वह तो कर रह हैं जो सब कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं जो वे करवाना चाहते हैं। जैसा कि ऊपर वर्णित है, महाराज जी प्रवचनों में कोई विश्वास नहीं करते थे। जो जीवन में अपनाया जा सके। जो जीवन में चोखा हो। जो जीवन में उतर जाए वही लो, कम लो, और कम मानो, मगर उस कम को पूरा मानो। महाराज जी कई बार कहते थे कछु तो ले लो, ये झूठा संसार कछु लेवेई तैयार नहीं है। साधु आवत देखकर उठकर मिलिए धाय, न जाने कि भेस में नारायण मिल जाए। समंज में नई आए। फिर सिर ऊपर करके बोलते, हां तो धरो सामान। हो गई बा तो। अब देखो बाबा किते जात है, का करत है, जोई तो समंजबे की है। समजो।
(आगे पढ़िए 5 मंत्र, जीवन स्वतंत्र)
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