#NindakNiyre By Barun Sakhajee: आखिर भाजपा को क्यों दिक्कत हो रही है CM चुनने में?

BJP facing difficulty in choosing CM: भाजपा जैसी सूझ-बूझ और सोच विचारकर सियासत करने वाली पार्टी को संभवतः पिछले कुछ वर्षों में पहली बार इतना उलझा हुआ देखा जा रहा है।

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  • Publish Date - December 8, 2023 / 09:21 PM IST,
    Updated On - December 8, 2023 / 09:21 PM IST

New CM in chhattisgarh

Barun Sakhajee,
Asso. Executive Editor

बरुण सखाजी. सह-कार्यकारी संपादक, IBC24

New CM in chhattisgarh: चुनाव नतीजों के एक हफ्ते बाद भी आखिर भाजपा क्यों नहीं तय कर पा रही मुख्यमंत्री? क्या यह अनापेक्षित नतीजे हैं या कि भाजपा में इसे लेकर कोई आत्मविश्वास नहीं था। अनेक सवाल हैं, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं। भाजपा जैसी सूझ-बूझ और सोच विचारकर सियासत करने वाली पार्टी को संभवतः पिछले कुछ वर्षों में पहली बार इतना उलझा हुआ देखा जा रहा है।

हर किसी के अपने कैल्कुलेशन हैं, लेकिन भाजपा क्यों इतने असमंजस में है यह समझ में किसी के नहीं आ रहा। दरअसल भाजपा की अपनी रीति-नीति बता रही है, वह उलझी नहीं है बल्कि नाप-तौल में लगी हुई है। एक राजनीतिक विश्लेषक की हैसियत से अगर हम सोचने की कोशिश करें तो समझ आएगा।

पहले भौगोलिक नजरिए से समझते हैं

मूलतः 3 जमीनी स्वरूपों में बंटा छत्तीसगढ़ 5 संभागों तक विस्तारित है। एक जमीनी स्वरूप सरगुजा है, जहां पहाड़ियां हैं बीच में मैदान और नीचे बस्तर के घने जंगल हैं। इनमें 90 सीटों का विस्तार है। इन पहाड़ियों (सरगुजा) और जंगलों (बस्तर) से कुल 26 और बाकी मैदान से 64 सीटें आती हैं।

स्वाभाविक बात है, भौगोलिक गणित से सीएम बनाएंगे तो 64 सीटों वाले मैदान का दबदवा होगा। यानि मुख्यमंत्री बिलासपुर, रायपुर या दुर्ग संभाग से बनना चाहिए। इन 3 संभागों में भाजपा ने 32 सीटें जीती हैं। मैदान के इन संभागों में सीधे तौर पर 7 और आंशिक रूप से 2 और लोकसभा सीटें आती हैं।

अगर भौगोलिक आधार पर सीएम बनाना है तो बेहतर होगा ऐसी सीट से बनाइए जहां ज्यादा कमजोर स्थिति हो। आंशिक रूप से रायगढ़ और कांकेर हैं, जबकि सीधे तौर पर कोरबा, बिलासपुर, जांजगीर, महासमुंद, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव हैं।

फिलहाल इनमें से सिर्फ कोरबा ही भाजपा के पास नहीं है बाकी सब हैं। जबकि जांजगीर ऐसी सीट है जहां भाजपा का सबसे कमजोर प्रदर्शन है। ऐसी स्थिति में बिलासपुर—मुंगेली से किसी को सीएम बनाने से स्थिति ठीक हो सकती है।

अब जातिय आधार पर समझते हैं

छत्तीसगढ़ में 32 परसेंट जनजातियां रहती हैं, जबकि 68 परसेंट गैर-जनजातियों के लोग हैं। इन 68 परसेंट में भी 92 परसेंट ओबीसी जातियां हैं। ओबीसी में भी साहू 60 परसेंट हैं।

अगर हम प्रदेश की आबादी मोटामाटी 3 करोड़ मानते हैं तो 90 लाख करीब जनजातियां हैं। जबकि गैर-जनजातिय जनसंख्या 2 करोड़ 10 लाख है। गैर-जनजातियों में 92 परसेंट अन्य पिछड़ा वर्ग हैं तो यह 1 करोड़ 95 लाख लगभग होते हैं। इनमें भी 60 परसेंट साहू हैं तो हम पाएंगे प्रदेश में 78 लाख लगभग साहू समाज के लोग हैं।

वर्तमान में भाजपा से 6 साहू विधायक हैं इनमें से इंदर, रोहित, दिपेश, ईश्वर साहू बहुत नए और जूनियर हैं, जबकि प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव और मोती साहू ही सीनीयर हैं। अगर भाजपा जातिय आइने से देखेगी तो अरुण साव इकलौते इस बिरादरी से मुख्यमंत्री पद के दावेदार हुए।

अब समझते हैं आदिवासी एंगल से

प्रदेश में 29 आरक्षित आदिवासी सीटें हैं। इनमें से भाजपा ने 18 जीती हैं, जबकि आदिवासी समाज के 19 विधायक हैं। भाजपा ने सरगुजा की सभी 9 आदिवासी आरक्षित सीटें जीती हैं, जिनमें उसके 10 विधायक चुनकर आए हैं। बस्तर में 7 आदिवासी आरक्षित सीटें जीती हैं। एक मरवाही मिलाकर भाजपा 18 सीटों तक पहुंचती है।

सरगुजा इसमें सबसे अहम है, क्योंकि यहां 9 आदिवासी रिजर्व सीटों के साथ एक अनरिजर्व पर विधायक चुना गया है। यह सरगुजा लोकसभा क्षेत्र को पूरा और रायगढ़ व कोरबा लोकसभा को आधा-आधा प्रभावित करता है।

ऐसे ही बस्तर लोकसभा में पूरा और कांकेर में आधा प्रभाव जाएगा। अंततः इस एंगल से प्रदेश की गैर जनजाति आबादी 2 करोड़ 10 लाख की तुलना में सिर्फ 90 लाख आबादी खुश होगी। वहीं सिर्फ 2 लोकसभा क्षेत्र पूरे और कोरबा, रायगढ़ और कांकेर आधे-आधे ही प्रभावित हो पाएंगे, जबकि गैर-आदिवासी फॉर्मूले में 7 पूरी और 2 आधी-आधी लोकसभा सीटें प्रभावित हो रही हैं।

इस एंगल से विष्णुदेव साय, रामविचार नेताम, केदार कश्यप और विक्रम उसेंडी सबसे सीनीयर नेता हैं। इनमें भी सरगुजा से रामविचार और विष्णुदेव आते हैं। बाकी दो बस्तर से। साय हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाए गए थे। जबकि रामविचार इस दौड़ में ज्यादा वरिष्ठ हैं। केदार और विक्रम अन्य कारणों से पिछड़ते दिख रहे हैं।

अब एंगल महिला वाला

छत्तीसगढ़ में अगर महिला एंगल से किसी का चयन करना हो तो 8 ही महिलाएं भाजपा से चुनकर पहुंची हैं। इनमें से शकुंतला पोर्ते, लक्ष्मी राजवारे, उध्वेश्वरी, रायमुनि भगत और भावना बोहरा पहली बार जीती हैं। बहुत जूनियर हैं। सबसे सीनीयर रेणुका सिंह और लता उसेंडी हैं। गोमती साय भी सांसद हैं। इनके अलावा एक महिला दबंग भी हैं, विजनऱी भी हैं और सबके बीच भी हैं, तो वे सामान्य जाति से ताल्लुक रखती हैं। इनका नाम है सरोज पांडे।

अब महिला वाले एंगल से देखें तो रेणुका सिंह, लता उसेंडी, गोमती साय और सरोज पांडे में से किसी को बनाना होगा। सरोज पांडे महतारी वंदन और महिला वोट को साधने में अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत नजर आती हैं, जबकि वे प्रशासकीय रूप से भी अग्रणी दिख रही हैं।

तो फिर इन बड़े नेताओं के नाम क्यों चल रहे हैं

बड़े नेता ओपी चौधरी, अरुण साव, धरमलाल कौशिक, अमर अग्रवाल, बृजमोहन अग्रवाल, राजेश मूणत, डॉ. रमन सिंह हैं। डॉ. रमन सिंह 15 साल मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उनका पूरा सिस्टम समझा हुआ है। इसलिए उनके लिए प्रशासन आसान होगा, लेकिन समस्या ये है कि पार्टी से जिस नयेपन की उम्मीद की जा रही है वह नहीं हो पाएगा।

ओपी चौधरी उलझे चेहरे हैं। पूर्व प्रशासनिक अफसर हैं तो सिस्टम की अच्छी समझ है। सोशल मीडिया पर अच्छी फैंस फॉलोइंग है, लेकिन मेल-मिलाप, बातचीत, सलाह मशबिरा और संवाद के मामले में डिस्कनेक्टेड हैं।

धरमलाल कौशिक को अभी ही नेता प्रतिपक्ष से हटाया था, जिसे कार्यकर्ताओं ने सकारात्मक लिया था। राजेश मूणत और अमर अग्रवाल इस रेस में स्वाभावतः नहीं हैं। बीएम अग्रवाल वरिष्ठ हैं, जन नेता हैं, लेकिन पुराने चेहरों की तोहमत से अछूते नहीं। बचते हैं अरुण साव जो बिना किसी बैकग्राउंड के हैं तो उन पर कोई आरोप नहीं है। यूं आरोप तो महिला एंगल से देखें तो सरोज पांडे पर भी नहीं हैं।

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