तालिबान के चार साल के दमनकारी शासन के बाद अफगान चुपचाप कष्ट झेल रहे हैं

तालिबान के चार साल के दमनकारी शासन के बाद अफगान चुपचाप कष्ट झेल रहे हैं

तालिबान के चार साल के दमनकारी शासन के बाद अफगान चुपचाप कष्ट झेल रहे हैं
Modified Date: August 15, 2025 / 04:46 pm IST
Published Date: August 15, 2025 4:46 pm IST

(नियामतुल्लाह इब्राहिमी, मेलबर्न विश्वविद्यालय; आरिफ सबा, डीकिन विश्वविद्यालय; सफीउल्लाह ताये, ऑस्ट्रेलियाई कैथोलिक विश्वविद्यालय)

मेलबर्न, 15 अगस्त (द कन्वरसेशन) अफगानिस्तान का लोकतांत्रिक गणराज्य 15 अगस्त, 2021 को ध्वस्त हो गया। जैसे ही अमेरिका और नाटो के सभी सैनिक देश छोड़कर गए, तालिबान फिर से सत्ता में आ गया और अफगान लोगों का भविष्य अनिश्चितता में घिर गया।

संतुलित शासन और समावेशिता के वादों के बावजूद चार साल बाद तालिबान ने एक दमनकारी शासन स्थापित कर लिया है, जिसने कानून, न्याय और नागरिक अधिकारों की संस्थाओं को निर्ममता से कुचल दिया गया है।

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जैसे-जैसे तालिबान शासन ने अपनी पकड़ मजबूत की है, अंतरराष्ट्रीय ध्यान इस देश की तरफ कम होता गया है। यूक्रेन, गाजा और अन्य जगहों पर संकट वैश्विक एजेंडे पर हावी हो गए हैं, जिससे अफगानिस्तान सुर्खियों से बाहर हो गया है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ा तालिबान इस समस्या को समाप्त करने और वैधता हासिल करने की कोशिश कर रहा है, क्या अब अंतरराष्ट्रीय समुदाय वास्तविक दबाव डालने की इच्छाशक्ति दिखा सकेगा?

तालिबान का दमनकारी साम्राज्य : सत्ता में वापस आने के बाद, तालिबान ने देश के 2004 के संविधान को त्याग दिया, जिससे पारदर्शी कानून के बिना शासन किया जा रहा है। तालिबान नेता मुल्ला हिबतुल्लाह अखुंदजादा, कंधार स्थित अपने ठिकाने से मनमाने आदेशों से शासन चला रहे हैं।

महिलाओं और लड़कियों पर तालिबान का दमन इतना गंभीर है कि मानवाधिकार समूह अब इसे ‘‘लैंगिक रंगभेद’’ कहते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि इसे एक नया अंतरराष्ट्रीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए।

इन आदेशों ने महिलाओं को सार्वजनिक जीवन से पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया है, उन्हें प्राथमिक विद्यालय (धार्मिक शिक्षा को छोड़कर) के बाद की शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक स्थानों पर जाने से रोक दिया गया है। महिलाएं बिना महरम या पुरुष अभिभावक के सार्वजनिक स्थानों पर स्वतंत्र रूप से नहीं घूम सकतीं।

तालिबान ने महिला मामलों के मंत्रालय को भी भंग कर दिया और उसकी जगह सद्गुण प्रचार एवं दुराचार निवारण मंत्रालय स्थापित कर दिया। दमन के एक प्रमुख साधन के रूप में, यह मंत्रालय नियमित छापेमारी और गिरफ्तारियों तथा सार्वजनिक स्थलों की निगरानी के माध्यम से संस्थागत लैंगिक भेदभाव को मजबूत करता है।

तालिबान शासन के कारण अल्पसंख्यक जातीय और धार्मिक समूहों जैसे हजारा, शिया, सिख और ईसाइयों का बहिष्कार और उत्पीड़न भी हुआ है।

तालिबान के प्रतिरोध के केंद्र बिंदु पंजशीर प्रांत में मानवाधिकार समूहों ने स्थानीय आबादी पर तालिबान के गंभीर दमन का दस्तावेजीकरण किया है, जिसमें सामूहिक गिरफ्तारी, यातना और न्यायेतर हत्याएं शामिल हैं।

व्यापक रूप से, तालिबान ने देश में नागरिकों की अभिव्यक्ति पर अंकुश लगा दिया है। पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को हिंसा और मनमानी गिरफ्तारियों के जरिए चुप करा दिया गया है।

हालांकि, अधिकतर देश तालिबान को देश की औपचारिक और वैध सरकार के रूप में मान्यता नहीं देते हैं, फिर भी कुछ क्षेत्रीय देशों ने इसके अंतरराष्ट्रीय अलगाव को कम करने का आह्वान किया है।

पिछले महीने, रूस तालिबान को मान्यता देने वाला पहला देश बना। चीन भी इस समूह के साथ अपने आर्थिक और राजनयिक संबंधों को गहरा कर रहा है।

भारत के विदेश मंत्री ने हाल ही में अपने तालिबान समकक्ष से मुलाकात की, जिसके बाद तालिबान ने नयी दिल्ली को एक ‘‘महत्वपूर्ण क्षेत्रीय साझेदार’’ बताया।

अफगानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय सहायता का प्रवाह जारी है, लेकिन इस सप्ताह एक अमेरिकी निगरानी संस्था की रिपोर्ट में बताया गया है कि तालिबान किस प्रकार सुरक्षा बल और अन्य तरीकों से इस मदद को इतर प्रयोग करता है।

(द कन्वरसेशन) शफीक माधव

माधव


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