धर्मार्थ संस्था पर वाद के लिए अदालत की पूर्व अनुमति जरूरी: न्यायालय
धर्मार्थ संस्था पर वाद के लिए अदालत की पूर्व अनुमति जरूरी: न्यायालय
नयी दिल्ली, पांच अगस्त (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि दीवानी प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के सार्वजनिक धर्मार्थ संस्थाओं से संबंधित प्रावधान के तहत वाद दायर करने के लिए अदालत की पूर्व अनुमति आवश्यक है, क्योंकि यह कदम जनहित में और सार्वजनिक लाभार्थियों की ओर से शुरू किया जाता है।
शीर्ष अदालत ने कानूनी मुद्दों पर दिशा-निर्देश जारी किए और उस अपील को खारिज कर दिया, जो 1860 के सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत एक सोसाइटी द्वारा दायर की गई थी। इस अपील में सीपीसी की धारा 92 के तहत उस वाद की पोषणीयता को चुनौती दी गई थी, जो सोसाइटी के खिलाफ दायर किया गया था।
सीपीसी की धारा 92 सार्वजनिक धर्मार्थ या धार्मिक ट्रस्ट से संबंधित मुकदमों से संबंधित है और यह उन मामलों में कानूनी कार्रवाई की अनुमति देती है, जहां कथित भरोसा तोड़ने या ट्रस्ट के प्रशासन के लिए अदालत के निर्देश की आवश्यकता होती है।
न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने कहा, ‘‘सीपीसी की धारा 92 के तहत दायर किया गया वाद एक विशेष प्रकृति का प्रतिनिधि वाद होता है, क्योंकि यह सार्वजनिक लाभार्थियों की ओर से और जनहित में दायर किया जाता है। मुकदमे को आगे बढ़ाने से पहले अदालत से ‘अनुमति’ प्राप्त करना एक प्रक्रियात्मक और विधायी सुरक्षा उपाय के रूप में कार्य करता है। ऐसा इसलिए क्योंकि सार्वजनिक ट्रस्ट को उसके विरुद्ध दायर किए जा रहे तथ्यहीन मुकदमों के जरिये अनुचित उत्पीड़न से बचाया जा सके तथा ऐसी स्थिति को टाला जा सके जिससे संसाधनों की और अधिक बर्बादी हो, जिन्हें सार्वजनिक धर्मार्थ या धार्मिक उद्देश्यों के लिए लगाया जा सकता है।’’
हालांकि, 168 पृष्ठों के अपने फैसले में न्यायमूर्ति पारदीवाला ने बताया कि अनुमति प्रदान करने के चरण में अदालत न तो विवाद के गुण-दोष पर निर्णय करता है और न ही पक्षकारों को कोई ठोस अधिकार प्रदान करता है।
भाषा अमित सुरेश
सुरेश

Facebook



