नयी दिल्ली, 15 अप्रैल (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने दहेज उत्पीड़न और भरण-पोषण से संबंधित प्रावधानों के ‘दुरुपयोग’ को रोकने के लिए इसे ‘लिंग-निरपेक्ष’ बनाने के संबंध में दायर याचिका को मंगलवार को खारिज कर दिया। न्यायालय ने कहा कि अदालतें कानून नहीं बना सकतीं और इस पर विचार करना सांसदों का काम है।
एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान उसके वकील ने दलील दी कि पतियों और उनके परिवार के सदस्यों को परेशान करने के लिए प्रावधानों का दुरुपयोग किए जाने के कई उदाहरण हैं।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने हालांकि कहा, ‘‘हम समझते हैं कि यह एक मसालेदार खबर बनेगी, लेकिन हमें बताएं कि कानून के किन प्रावधानों का दुरुपयोग नहीं हो रहा है?’’ पीठ ने कहा कि एनजीओ के बजाय पीड़ित व्यक्तियों को अदालत का रुख करना चाहिए।
याचिका में भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए (दहेज उत्पीड़न) और भरण-पोषण के भुगतान के लिए दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 को ‘‘लिंग-तटस्थ’’ बनाने की मांग की गई थी। याचिका को खारिज करते हुए न्यायालय की पीठ ने कहा कि इस तरह का कोई चलताऊ बयान नहीं दिया जा सकता कि महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए बनाए गए प्रावधानों का ‘‘दुरुपयोग’’ किया गया।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि प्रत्येक मामले का निर्णय उसके तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘जहां पति या उसके परिवार को प्रताड़ित किया गया है, वहां कानून को उसी के अनुसार काम करना चाहिए। यदि किसी महिला को प्रताड़ित किया गया है, तो कानून को उसके बचाव में भी आना चाहिए। तो इस प्रावधान में क्या गलत है?’’
पीठ ने कहा, ‘‘हमें आईपीसी की धारा 498ए, जिसे अब बीएनएस (भारतीय न्याय संहिता) की धारा 84 के रूप में पढ़ा जाता है, के पीछे विधायी नीति/आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं दिखता।’’
पीठ ने कहा कि यह दलील कि ऐसे प्रावधान अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हैं, पूरी तरह से गलत और भ्रामक है। शीर्ष अदालत ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 15 स्पष्ट रूप से संसद को महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए विशेष कानून बनाने का अधिकार देता है।
पीठ ने कहा, ‘‘यह आरोप कि प्रावधान का दुरुपयोग किया जा रहा है, अस्पष्ट और भ्रामक है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए इस संबंध में कोई राय नहीं बनाई जा सकती। यह कहना उचित होगा कि इस तरह के आरोप की मामला-दर-मामला आधार पर जांच की जा सकती है।’’
एनजीओ के वकील ने कहा कि भारत में घरेलू हिंसा के मामले केवल महिलाएं ही दर्ज करा सकती हैं, जबकि दूसरे देशों में पति भी ऐसे मामले दर्ज करा सकते हैं और भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं।
इस बिंदु पर, न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने वकील से कहा, ‘‘तो आप चाहते हैं कि हम कानून बनाएं। कानून बनाना अदालत का काम नहीं है। इस उद्देश्य के लिए, सांसद इस पर विचार करने के लिए मौजूद हैं। हम किसी प्रावधान को सिर्फ इसलिए रद्द नहीं कर सकते, क्योंकि उसके दुरुपयोग के उदाहरण हैं।’’
याचिका में किए गए अनुरोधों पर सवाल उठाते हुए न्यायाधीश ने कहा, ‘‘हमें दूसरे देशों का अनुसरण क्यों करना चाहिए? हमारी अपनी संप्रभुता है।’’ वकील ने कहा कि शीर्ष अदालत कुछ दिशा-निर्देश तैयार कर सकती है और मामले में तेजी लाने का निर्देश दे सकती है।
इस पर पीठ ने कहा, ‘‘ऐसे मामलों की सुनवाई में तेजी लाने के लिए हमें अधिक बुनियादी ढांचे की जरूरत है। हमें अधिक मजिस्ट्रेट और अदालतों की जरूरत है। निर्देश ऐसे ही पारित नहीं किए जा सकते। इसमें कई कारक शामिल हैं। हमें और अधिक धन कौन मुहैया कराएगा? सरकार के पास पर्याप्त धन नहीं है। ये पूरी तरह से प्रशासनिक मुद्दे हैं।’’
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि मीडिया में कुछ लेख लिखे गए हैं और एक धारणा बनाई जा रही है, अदालतें हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं। पीठ ने वकील से पूछा, ‘‘क्या आप यह बयान दे सकते हैं कि किसी भी नवविवाहित महिला को दहेज के लिए परेशान नहीं किया जा रहा है?’’ पीठ ने कहा कि अदालत इस चलताऊ बयान पर किसी प्रावधान को रद्द नहीं कर सकती कि कानून का ‘‘दुरुपयोग’’ किया जा रहा है।
वकील ने कहा कि एनजीओ को कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग की शिकायतें बार-बार मिल रही हैं और उन्होंने इस मामले में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों का हवाला दिया। पीठ ने कहा कि वह फिलहाल आंकड़ों में नहीं जाना चाहती और सुझाव दिया कि वकील उचित मामले में संदर्भित करने के लिए आंकड़ें दे सकते हैं।
पीठ ने कहा, ‘‘हम इस बात से इनकार नहीं कर रहे हैं कि प्रावधानों का दुरुपयोग नहीं किया जा रहा है, लेकिन अदालत को मामला-दर-मामला आधार पर इस पर गौर करना होगा। किसी दिन, आपको ऐसा मामला मिलेगा, जहां एक महिला का उसके पति ने सिर कलम कर दिया। क्या आप चाहेंगे कि हम इस ‘दुरुपयोग’ की अवधारणा को वहां लागू करें? किसी प्रावधान पर इस तरह के चलताऊ आरोप न लगाएं।’’
एनजीओ जनश्रुति द्वारा दायर याचिका में भरण-पोषण प्रदान करने के लिए दिशा-निर्देश तैयार करने और सीआरपीसी की धारा 125-128, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 में संबंधित प्रावधानों को ‘‘लिंग-तटस्थ’’ घोषित करने का अनुरोध किया गया।
भाषा आशीष दिलीप
दिलीप
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