सामाजिक लोकतंत्र राजनीतिक लोकतंत्र की कुंजी: न्यायमूर्ति विजय बिश्नोई
सामाजिक लोकतंत्र राजनीतिक लोकतंत्र की कुंजी: न्यायमूर्ति विजय बिश्नोई
नयी दिल्ली, 26 दिसंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश विजय बिश्नोई ने शुक्रवार को डॉ. बीआर आंबेडकर के इस कथन को रेखांकित किया कि सामाजिक लोकतंत्र राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना की कुंजी है और यह बहुत महत्वपूर्ण है कि देश में इसे बनाए रखने के प्रयास किए जाएं।
अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के 17वें राष्ट्रीय सम्मेलन में ‘भारतीय संविधान के 75 वर्ष, सामाजिक समरसता’ विषय पर अपने संबोधन में न्यायमूर्ति बिश्नोई ने भाषाई क्षेत्रवाद को देश के लिए खतरनाक बताया और वकीलों से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया कि ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाया जाए।
न्यायमूर्ति बिश्नोई ने कहा, “यह सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है कि देश में सामाजिक लोकतंत्र कायम रहे। जिस तरह से हमारे सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने और हमारे देश को कमजोर करने के प्रयास किए जा रहे हैं, यह सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है कि उन्हें रोकने के लिए लगातार प्रयास किए जाएं।”
उन्होंने कहा कि देश जब सांप्रदायिक तनाव की आग में झुलस रहा था, तब भारतीय संविधान को लगातार एवं व्यापक विचार-विमर्श के बाद तैयार और लागू किया गया।
न्यायमूर्ति बिश्नोई ने कहा, “जब पहली बार संविधान का मसौदा तैयार किया गया था, तो देश में सांप्रदायिक तनाव था। इसलिए ऐसी रूपरेखा तैयार करने की आवश्यकता महसूस की गई, जो देश में सभी का मार्गदर्शन करे। प्रत्येक प्रावधान और अनुभाग पर उस समय के विशेषज्ञों ने गहन चर्चा और बहस की थी।”
उन्होंने भाषा के आधार पर लोगों के विभाजन पर बहस का जिक्र करते हुए कहा कि यह अवधारणा देश के लिए बहुत खतरनाक है और इससे जागरूकता के साथ निपटा जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति बिश्नोई ने कहा, “भाषा के आधार पर लोगों और राज्यों को बांटने की अवधारणा बहुत खतरनाक है। अगर राजस्थान के लोग कहेंगे कि केवल राजस्थानी ही राज्य में रह सकते हैं, तो क्या होगा? अगर महाराष्ट्र और केरल में भी ऐसी ही चीजें होंगी… तो क्या यह अच्छा है? यह हमारे देश के लिए बहुत खतरनाक है। हमें इसके प्रति जागरूक होना चाहिए।”
उन्होंने कहा, “यह सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है कि लगातार प्रयासों के जरिये ऐसे खतरों का मुकाबला किया जाए। हमारे देश के लिए उन आंतरिक खतरों को पहचानना महत्वपूर्ण है, जो भारत को कमजोर कर रहे हैं।”
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सामाजिक सद्भाव और न्यायिक उपाय के बारे में बात की।
उन्होंने कहा, “सामाजिक सद्भाव लाने के लिए मेरे पास एक समाधान है। सभी धर्मों के लोग अपने मौलिक अधिकारों या वैधानिक अधिकारों का उल्लंघन होने का आरोप लगाते हुए अदालतों में जाते हैं और संविधान कहता है कि अगर किसी व्यक्ति के संवैधानिक या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो अदालत हस्तक्षेप करेगी; ऐसा करना अदालत का कर्तव्य है।”
मेहता ने इस बात पर जोर दिया कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन में अदालत के हस्तक्षेप की उम्मीद करने से पहले किसी को अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
उन्होंने कहा, “अगर हम संविधान में निहित मौलिक अधिकारों या वैधानिक अधिकारों को संविधान में दिए गए मौलिक कर्तव्यों से जोड़ सकते हैं, तो अगर कोई व्यक्ति अपने मौलिक अधिकार के उल्लंघन का दावा करते हुए अदालत का रुख करता है, तो उसे न्यायालय को यह दिखाना होगा कि उसने अपने संवैधानिक कर्तव्यों का भी निर्वहन किया है; तभी न्यायालय हस्तक्षेप करेगा।”
भाषा आशीष पारुल
पारुल

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