द कश्मीर फाइल्स: तब न केंद्र में कांग्रेस थी न राज्य में अब्दुल्ला, फिर भी ये दोषी कैसे? यहां जानिए सच
फिल्म कश्मीर फाइल्स को लेकर देशभर में चर्चा है। इस बीच कई लोगों ने सवाल भी खड़े किए हैं। उनका कहना है कि जब कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम हुआ तब केंद्र में न तो कांग्रेस सरकार थी न राज्य में फारूक अब्दुल्ला सीएम। फिर इन पर अंगुली उठाने का क्या तुक बनता है। तब की स्थितियों के लिए इन्हें क्यों कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। The Kashmir Files: Then there was neither Congress in the center nor Abdullah in the state, yet how is he guilty?
The Kashmir Files
The Kashmir Files: फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज होने के बाद से ही उस समय की सरकारों पर अंगुली उठाई जा रही हैं। लोगों का कहना है कि उस समय तो केंद्र में कांग्रेस (Congress) सत्ता में थी ही नहीं। फिर उस पर सवाल क्यों? राज्य में फारूक अब्दुल्ला (Farooq Abdullah) भी इस्तीफा दे चुके थे तो कसूर उनका कैसे? तमाम लोग इस क्यों और कैसे का जवाब जानना चाहते हैं। वे कश्मीर में हिंदुओं के नरसंहार (Hindu Massacre in Kashmir) से सहमत हैं, लेकिन ये सवाल उनके मन में गूंज रहे हैं। क्या ये बातें सही हैं? अगर हां, तो इस पूरे मामले में कांग्रेस बैकफुट पर क्यों है, फारूक अब्दुल्ला के बेटे और राज्य के पूर्व सीएम उमर अब्दुल्ला यह दावा क्यों कर रहे हैं कि फिल्म झूठ का पुलिंदा है? इन सवालों का जवाब जानने के लिए आपको ‘फ्लैश बैक’ में जाना पड़ेगा।
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19 जनवरी 1990…यह वो तारीख थी जब कश्मीरी पंडितों पर जुल्म की हद पार हो गई थी। श्रीनगर में पूरी मुस्लिम आबादी भारत और कश्मीरी पंडितों के खिलाफ एकजुट होकर खड़ी हो गई थी। जैसे उन पर कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को निकालने का जुनून सवार हो गया था। कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम हुआ था। सवाल उठना लाजिमी है कि तब सरकारें क्या कर रही थीं? कौन था केंद्र की सरकार में?
यह बात भी बिल्कुल सच है कि कांग्रेस तब सत्ता में नहीं थी। 1989 के आम चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी हार गए थे। इनके बाद वीपी सिंह पीएम बन गए थे। वह गठबंधन की सरकार चला रहे थे। इस सरकार को बाहर से बीजेपी और वाम दलों का समर्थन प्राप्त था।
यह बात भी सही है कि 19 जनवरी 1990 को नेशनल कॉन्फ्रेंस भी राज्य की सरकार नहीं थी। फारूक अब्दुल्ला ने अचानक 18 जनवरी 1990 को इस्तीफा दे दिया था। वह राज्य को उसकी हालत पर छोड़कर लंदन निकल लिए थे।इस लिहाज से देखें तो सरकार को लेकर ये दोनों बातें सही हैं। लेकिन, इससे कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए थोड़ा पीछे और थोड़ा आगे की ओर देखना पड़ेगा।
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26 जनवरी 1990…यह वो दिन था जब आतंकियों ने कश्मीर को कब्जे में ले लिया था। श्रीनगर में तमाम दीवारों और चौक-चौराहों को बड़े-बड़े अक्षरों से ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ कश्मीर’ से पोत दिया गया था। भारत और हिंदू विरोधी नारे घाटी में गूंज रहे थे। जमात-ए-इस्लामी के फायरब्रांड नेता लाउडस्पीकरों से हिंदुओं के खिलाफ जहर उगल रहे थे।
स्थिति को काबू में लाने के लिए तब वीपी सिंह ने जगमोहन मल्होत्रा को दोबारा गवर्नर नियुक्त किया था। वह 21 जनवरी 1990 को कश्मीर पहुंचे थे। लेकिन, तब तक पूरी तस्वीर बदल चुकी थी। हालात काबू से बाहर थे। हालांकि, तब की वीपी सिंह सरकार को दोष देना सही नहीं होगा। केंद्र की सत्ता में उसका पदार्पण हुआ ही था। 2 दिसंबर 1989 में इस सरकार ने काम करना शुरू किया था।
ऐसा नहीं है कि इस सरकार ने गलतियां नहीं कीं। अपने गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी की जान बचाने के लिए पांच खूंखार आतंकियों को छोड़ना उनमें शामिल है। सईद की बेटी को जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) ने किडनैप किया था।
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दरअसल, यह सब कुछ एक दिन में नहीं शुरू हुआ था। वादी में हिंदुओं को दिसंबर 1988 से ही निशाना बनाया जाने लगा था। 1989 में बम ब्लास्ट और टारगेटेड किलिंग के मामले पूरे राज्य में सामने आने लगे थे। टिक्का लाल टपलू की सितंबर 1989 में हत्या की गई थी। इसी के आसपास जस्टिस गंजू सहित दर्जनों कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम हुआ था। यह राजीव गांधी और फारूक अब्दुल्ला सरकार का समय था।
इस दौरान इन्होंने कुछ नहीं किया। अलबत्ता, जुलाई से दिसंबर 1989 के बीच 70 कट्टर आतंकियों को रिहा कर दिया गया था। इनमें मोहम्मद अफजल शेख, रफीक अहमद, मोहम्मद अयूब नजर, फारूक अहमद गनई, फारूक अहमद मलिक, नजीर अहमद शेख, गुलाम मोहिउद्दीन तेली, रियाज अहमद लोन, फारूक अहमद ठाकुर के नाम प्रमुख थे। इनकी रिहाई ने आतंकियों का मनोबल बढ़ाने का काम किया। 1989 के आम चुनाव से पहले ही इन आतंकियों को रिहा किया गया था। फारूक के जेकेएलएफ के साथ रिश्ते हमेशा सुर्खियों में थे।
गवर्नर जगमोहन ने केंद्र को राज्य की स्थितियों के बारे में बताने के लिए नाकाम कोशिश की। लेकिन, राजीव सरकार का रुख उदासीन रहा। वह फारूक अब्दुल्ला को नाराज नहीं करना चाहते थे। यही कारण है कि उन्होंने भी कोई सख्त कदम नहीं उठाया।

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