Ram Prasad Bismil Birthday: काकोरी कांड के महानायक थे बिस्मिल, उड़ा दी थी अंग्रेजों की नींद, आजादी की खातिर इतनी सी उम्र में हो गए शहीद

Ram Prasad Bismil Birthday: काकोरी कांड के महानायक थे बिस्मिल, उड़ा दी थी अंग्रेजों की नींद, आजादी की खातिर इतनी सी उम्र में हो गए शहीद

Ram Prasad Bismil Birthday: काकोरी कांड के महानायक थे बिस्मिल, उड़ा दी थी अंग्रेजों की नींद, आजादी की खातिर इतनी सी उम्र में हो गए शहीद
Modified Date: June 11, 2023 / 12:20 pm IST
Published Date: June 11, 2023 12:20 pm IST

Ram Prasad Bismil Birthday आजादी हमें यूं ही तोहफे में नहीं मिली, लाखों देशवासियों की कुर्बानी से मिली है। आजादी के आंदोलन में अलग-अलग धाराएं मसलन, कांग्रेसी अहिंसावादी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज तो मार्क्‍सवादी विचारधारा से प्रभावित क्रांतिकारी एक साथ काम कर रहे थे। गदर पार्टी और ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से जुड़े क्रांतिकारियों का यकीन सशस्त्र क्रांति पर था। उनकी सोच थी कि अंग्रेजी हुकूमत से आजादी संघर्ष और लड़ाई से ही हासिल होगी। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के आगे हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने से देश आजाद नहीं होगा। आजादी, कुर्बानी मांगती है। ऐसे ही इंकलाबी पं. रामप्रसाद बिस्मिल थे जिन्होंने बहादुरी भरे कारनामों से अंग्रेज हुकूमत को हिला कर रख दिया था। महज 30 साल की उम्र में आजादी की खातिर शहीद हो गए।

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Ram Prasad Bismil Birthday आजादी के मतवाले बिस्मिल का जन्म 11 जून, 1897 को मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के छोटे से गांव बरबाई में हुआ, जो उनका ननिहाल था जबकि उनकी परवरिश उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुई। उनके दिल में अपने देश के लिए कुछ करने का जज्बा था। इसी जज्बे के खातिर वे पहले आर्य समाज से जुड़े। बिस्मिल पर आर्य समाजी भाई परमानंद, जो गदर पार्टी से जुड़े हुए थे, का काफी असर था। अंग्रेजी हुकूमत ने लाहौर कांड में जब परमानंद भाई को फांसी की सजा सुनाई, तो बिस्मिल बद-हवास हो गए। उन्होंने गुस्से में ये कौल ली, ‘वे इस शहादत का बदला जरूर लेंगे। चाहे इसके लिए उन्हें अपनी जान क्यों न कुर्बान करना पड़े।’ आगे चलकर रामप्रसाद बिस्मिल ने मशहूर क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दीक्षित के संगठन ‘मातृवेदी’ से राब्ता कायम कर लिया। दोनों ने मिल कर उत्तर प्रदेश के मैनपुरी, इटावा, आगरा, शाहजहांपुर आदि जिलों में बड़ी ही प्लानिंग से मुहिम चलाई और नौजवानों को इस संगठन से जोड़ा।

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बिस्मिल का शुरु आत में कांग्रेस से भी वास्ता रहा। उन्होंने 1920 में कलकत्ता और 1921 में अहमदाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशनों में भी हिस्सा लिया। अहमदाबाद अधिवेशन में जब मौलाना हसरत मोहानी ने कांग्रेस की साधारण सभा में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा तो रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां और दीगर इंकलाबी खयालात के नौजवानों ने भी इसकी हिमायत की। लेकिन महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया। बहरहाल, चौरीचौरा कांड के बाद महात्मा गांधी द्वारा अचानक असहयोग आंदोलन वापस लेने के फैसले से क्रांतिकारी विचारों के नौजवानों को काफी निराशा हुई। उन्होंने जल्द ही जुदा राह इख्तियार कर ली।

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तमाम इंकलाबी खयालात के नौजवान, जिनमें भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकउल्ला खां, राजगुरु , भगवतीचरण बोहरा, रोशन सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, यशपाल, मन्मथनाथ गुप्त और दुर्गा भाभी आदि के साथ बिस्मिल शामिल थे, इंकलाब की रहगुजर पर चल निकले। 1924 में बिस्मिल ने अपने कुछ क्रांतिकारी साथियों के साथ ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की स्थापना की। सचिन्द्र नाथ सान्याल संगठन के अहम कर्ताधर्ता थे, तो वहीं बिस्मिल को सैनिक शाखा का प्रभारी बनाया गया। क्रांति के लिए हथियारों की जरूरत थी और ये हथियार बिना पैसों के हासिल नहीं हो सकते थे। यही वजह है कि बिस्मिल ने अपने कुछ साथियों के साथ मैनपुरी में एक डकैती डाली। जल्द ही उन्होंने एक और बड़ी योजना बनाई। यह योजना थी, सरकारी खजाने को लूटना। 9 अगस्त, 1925 को सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली ट्रेन को काकोरी स्टेशन पर लूट लिया गया। इस घटना से अंग्रेजी हुकूमत की नींद उड़ गई। काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए। बिस्मिल ने अदालत में अपने मामले की पैरवी खु़द की। काकोरी ट्रेन डकैती मामला अदालत में तकरीबन डेढ़ साल चला। इस दरमियान अंग्रेज सरकार की ओर से तीन सौ गवाह पेश किए गए, लेकिन वे साबित नहीं कर पाए कि इस वारदात को क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया था।

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बहरहाल, अदालत की यह कार्यवाही तो महज दिखावा थी। इस मामले में फैसला पहले ही लिख दिया गया था। अदालत ने बिना किसी ठोस सबूत के बिस्मिल और उनके साथियों को काकोरी कांड का गुनहगार ठहराते हुए फांसी की सजा सुना दी जिस पर वे जरा नहीं घबराए और उन्होंने पुरजोर आवाज में अपनी मनपसंद गजल के अशआर अदालत में दोहराए, ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है/देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है।’ ये अशआर अदालत में नारे की तरह गूंजे, जिनमें अदालती कार्यवाही देख रही अवाम ने भी अपनी आवाज मिलाई। 1927 की 19 दिसम्बर को उन्हें शहादत मिली।

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