जब भी हॉकी के मैदान पर उतरता हूं, मां की कुर्बानियां याद आती हैं : दिलराज सिंह

जब भी हॉकी के मैदान पर उतरता हूं, मां की कुर्बानियां याद आती हैं : दिलराज सिंह

  •  
  • Publish Date - December 11, 2025 / 09:49 AM IST,
    Updated On - December 11, 2025 / 09:49 AM IST

(मोना पार्थसारथी)

चेन्नई, 11 दिसंबर (भाषा) पढाई से बचने के लिये हॉकी का दामन थामने वाले दिलराज सिंह के दिल को तब ठेस पहुंची जब उन्हें पता चला कि उन्हें गोलकीपिंग किट दिलाने के लिये उनकी मां को अपने गहने बेचने पड़े थे और तभी से उन्होंने ठान ली थी कि खेल के मैदान पर नाम कमाकर परिवार को अच्छे दिन दिखाना है ।

यहां जूनियर हॉकी विश्व कप में नौ साल बाद कांस्य पदक जीतने वाली भारतीय टीम के लिये संयुक्त रूप से सबसे ज्यादा छह गोल करने वाले दिलराज अपने जन्मदिन पर मिली जीत के बाद भावुक हो गए और कहा ,‘‘ जीत के बाद सबसे पहले मैने मां (रूपिंदर कौर) से बात की और वह काफी भावुक हो गई थी । वह मेरा मैच नहीं देखती क्योंकि उनको डर लगता है । वह उतने समय अरदास करती रहती हैं । ’’

शुरूआती दिनों में गोलकीपर के तौर पर खेलने वाले पंजाब के इस खिलाड़ी ने बताया कि उनके पिता ठीक नहीं रहते थे और मां ने काफी कठिनाइयां झेलकर उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है ।

उन्होंने कहा ,‘‘मैने जब पहली गोलकीपिंग किट ली थी तो मेरी मां को अपने गहने बेचने पड़े थे । उनके और मेरे अलावा किसी को यह नहीं पता था । मुझे फिर बहुत दुख हुआ और मैं बहुत संजीदगी से खेलने लगा क्योंकि मैं जब भी मैदान पर उतरता था तो मेरी मां की कुर्बानियां याद आती थी । मेरे पापा ठीक नहीं रहते थे तो सब कुछ मां पर ही निर्भर था और उनकी वजह से ही मैं यहां तक पहुंचा ।’’

उन्होंने कहा ,‘‘हालात इतने खराब थे कि कई बार मेरे पास टूर्नामेंट में जाने के लिये भी पैसा नहीं होता था । किसी टूर्नामेंट में ईनाम मिल जाता तो काम चल जाता था ।’’

पिछले साल जोहोर कप (तीन गोल) में कांस्य और जूनियर एशिया कप (सात गोल) में स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम का हिस्सा रहे दिलराज ने कहा कि विश्व कप में मिला पदक इसलिये भी बहुत मायने रखता है क्योंकि इससे भविष्य में उन्हें नौकरी मिलने का मौका बनेगा ।

उन्होंने भाषा को दिये इंटरव्यू में कहा ,‘‘मेरे लिये यह पदक बहुत अहम है क्योंकि इससे मुझे नौकरी मिलने का मौका बन सकता है । इसके साथ ही सीनियर टीम में जाने के दरवाजे भी खुलेंगे । घर के हालात ऐसे ही हैं लिहाजा नौकरी मिल जाने से अच्छा होगा ।’’

बीस साल के इस फारवर्ड ने बताया कि बचपन में उनकी शरारतों से परेशान होकर उन्हें हॉकी अकादमी में डाला गया जिसे वह छोड़कर भी आ गए थे।

उन्होंने कहा ,‘‘मेरा पढाई में उतना मन नहीं लगता था तो घर वालों ने बटाला , पंजाब में चीमा हॉकी अकादमी में डाल दिया । मेरे तायाजी का लड़का खेलता था। उसको देखकर मैं भी अकादमी चला गया था और रोता रहता था ।’’

उन्होंने कहा ,‘‘मैं गोलकीपर के तौर पर वहां गया था लेकिन फिर छोड़कर आ गया क्योंकि बीच में (मिडफील्ड) खेलना चाहता था, गोलकीपर नहीं बनना था । फिर मैं फॉरवर्ड खेलने लगा और घुमन कलां पिंड में कोच कुलविंदर सिंह के साथ खेलना शुरू किया और फिर सुरजीत हॉकी अकादमी में चयन हो गया । ’’

उन्होंने कहा ,‘‘पहले जब मैं गया तो समझ नहीं आया कि गोलकीपर खेलूं या मिडफील्डर । मैने अनजाने में गोलकीपिंग के लिये हामी भर दी थी लेकिन मन नहीं लगा । ’’

यह पूछने पर कि क्या उन्होंने जूनियर टीम के कोच पी आर श्रीजेश (दो ओलंपिक पदक विजेता गोलकीपर) को यह बात बताई, उन्होंने कहा ,‘‘ नहीं, बिल्कुल नहीं । उन्हें यह बात नहीं बताई है ।’’

दिलराज ने बताया कि उन्हें सबसे ज्यादा खुशी क्लब के लिये खेलते हुए पहली कमाई मिलने पर हुई थी जो उन्होंने अपनी मां को सौंपी थी ।

उन्होंने कहा ,‘‘ सबसे पहले मुझे लखनऊ में चीमा अकादमी की ओर से खेलते हुए एक टूर्नामेंट में पांच या छह हजार रूपये मिले थे और मैने सारे पैसे मां को दे दिये थे और इतनी खुशी हुई कि बता नहीं सकता ।’’

जूनियर विश्व कप से मिली सीख के बारे में पूछने पर दिलराज ने कहा कि इससे उनका आत्मविश्वास बढा है और दबाव में खेलने का हुनर मजबूत हुआ है ।

उन्होंने कहा ,‘‘इस टूर्नामेंट से यह सीखा कि जीत के साथ हार भी जुड़ी होती है । दबाव का सामना कैसे करना है और अब लगता है कि अपेक्षाओं का दबाव झेलकर खेल सकता हूं । टीम के साथ बांडिंग भी बहुत अच्छी हो गई है । अभी आगे बहुत कुछ हासिल करना है ।’’

भाषा मोना पंत

पंत