ग़ाज़ा में इजराइली हमले में पांच पत्रकारों की मौत फलस्तीनी मीडिया को चुप कराने की प्रवृत्ति

ग़ाज़ा में इजराइली हमले में पांच पत्रकारों की मौत फलस्तीनी मीडिया को चुप कराने की प्रवृत्ति

ग़ाज़ा में इजराइली हमले में पांच पत्रकारों की मौत फलस्तीनी मीडिया को चुप कराने की प्रवृत्ति
Modified Date: August 26, 2025 / 07:04 pm IST
Published Date: August 26, 2025 7:04 pm IST

माहा नासेर, यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना

टक्सन (अमेरिका), 26 अगस्त (द कन्वरसेशन) ग़ाज़ा पट्टी के नासर अस्पताल पर 25 अगस्त को हुए इजराइली हवाई हमले में जान गंवाने वाले 22 लोगों में पाँच पत्रकार भी शामिल हैं।

प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के कार्यालय ने हमले के बाद कहा कि इजराइल “पत्रकारों के काम की सराहना करता है।” लेकिन पत्रकारों की मौतों की संख्या एक अलग कहानी बयां करती है।

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स्वतंत्र संस्था ‘‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’’ (सीपीजे) के अनुसार, अक्टूबर 2023 से अब तक ग़ाज़ा में 192 पत्रकार मारे जा चुके हैं, और यह पत्रकारों को “खत्म करने और चुप कराने का अब तक का सबसे जानलेवा और सुनियोजित प्रयास” है।

सीपीजे ने कहा, “फलस्तीनी पत्रकारों को धमकाया जा रहा है, उन्हें निशाना बनाकर मारा जा रहा है और उन्हें हिरासत में लेकर प्रताड़ित किया जा रहा है।”

दशकों पुराना इतिहास

फलस्तीनी पत्रकारिता पर यह हमला कोई नया नहीं है। 1967 में जब इजराइली सेना ने वेस्ट बैंक, पूर्वी यरुशलम और ग़ाज़ा पर कब्जा किया था, तब से ही इजराइल ने मीडिया पर कठोर नियंत्रण बनाए रखा है।

इजराइली सेना ने 1967 में ही मिलिट्री ऑर्डर 101 लागू किया, जिसने राजनीतिक सभा और “प्रचार सामग्री” को अपराध बना दिया। इसके बावजूद स्थानीय पत्रकारिता पनपी और 1980 के दशक तक कई अखबार और पत्रिकाएं नियमित रूप से प्रकाशित होने लगे।

इन सभी प्रकाशनों को इजराइली सैन्य सेंसर से हर रात मंजूरी लेनी पड़ती थी। इसमें न सिर्फ खबरें, बल्कि विज्ञापन, मौसम रिपोर्ट और यहां तक कि पहेली तक शामिल होती थी।

इज़राइली सेंसर के तहत ‘‘राजनीतिक महत्व’’ वाली किसी भी चीज़ को प्रकाशन से पहले हटाना अनिवार्य था। इन शर्तों का उल्लंघन करने वाले या फ़लस्तीनी राजनीतिक समूहों से जुड़े होने के आरोप में संपादकों को हिरासत में लिया जा सकता था या निर्वासित किया जा सकता था। आज भी इन प्रथाओं की गूंज सुनाई देती है क्योंकि इज़राइल अक्सर उन पत्रकारों पर हमास के कार्यकर्ता होने का आरोप लगाता है, जिनकी वह हत्या करता है।

इजराइल की इस मीडिया नियंत्रण नीति के विरोध में 1987 में पहला विद्रोह शुरू हुआ। उस वर्ष 47 पत्रकारों को जेल में डाला गया, कई समाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगाया गया और उनके कार्यालयों को बंद कर दिया गया।

आज भी जारी है सेंसरशिप

वर्ष 1993 के ओस्लो समझौतों से मीडिया को स्वतंत्रता मिलने की उम्मीद थी, लेकिन इजराइली प्रशासन ने ‘‘सुरक्षा मुद्दों’’ के नाम पर सेंसरशिप जारी रखी। इस बीच फलस्तीनी प्राधिकरण अस्तित्व में आया और उसने भी आलोचनात्मक मीडिया पर अंकुश लगाया, कई पत्रकारों को गिरफ्तार किया और प्रेस कार्ड रद्द किए।

जानलेवा हमला और दंड से छूट

पत्रकारों पर 2000 के दशक से हमला और भी घातक हो गया। 2002 में वेस्ट बैंक में इमाद अबू ज़हरा, 2003 में रफाह में ब्रिटिश फिल्मकार जेम्स मिलर और 2008 में गाजा में रॉयटर्स के कैमरा ऑपरेटर फादेल शाना को गोली मार दी गई।

गाजा में 2018 के ‘ग्रेट मार्च ऑफ रिटर्न’ में, ‘‘प्रेस’’ लिखी हुई जैकेट पहने दो पत्रकारों- यासिर मुर्तजा और अहमद अबू हुसैन को इजराइली सेना ने गोली मार दी। कम से कम 115 पत्रकार गोलीबारी में घायल हुए।

अल-जज़ीरा की वरिष्ठ फलस्तीनी अमेरिकी पत्रकार शिरीन अबू अकलेह की 2022 में हत्या दुनिया भर में आक्रोश का कारण बनी। इजराइली सेना ने पहले झूठा दावा किया कि वह फलस्तीनियों की गोली से मरीं, फिर ‘‘गलती से’’ हत्या की बात स्वीकार की।

अंतरराष्ट्रीय कानून और इजराइली स्पष्टीकरण

अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के अनुसार, पत्रकारों को युद्ध क्षेत्र में भी नागरिक माना जाता है और उन्हें निशाना नहीं बनाया जा सकता। लेकिन इजराइली प्रशासन अक्सर मारे गए पत्रकारों को हमास से जुड़ा हुआ बताता है, बिना सबूत के।

इजराइल का दावा है कि उसके हमले सैन्य लक्ष्यों पर केंद्रित हैं, लेकिन बार-बार पत्रकारों के मारे जाने के पीछे ‘‘डबल टैप’’ हमले की रणनीति का भी उपयोग हुआ है, जिसमें एक के बाद एक हमला कर पत्रकारों व राहतकर्मियों को निशाना बनाया जाता है।

हालिया घटनाक्रम

अल-जज़ीरा के ग़ाज़ा ब्यूरो प्रमुख वाइल अल-दहदूह को 25 अक्टूबर, 2023 को रिपोर्टिंग के दौरान पता चला कि उनकी पत्नी, दो बच्चे और पोता हवाई हमले में मारे गए। अगले दिन वह फिर कैमरे के सामने थे।

अल जज़ीरा के वरिष्ठ पत्रकार अनस अल-शरीफ को 10 अगस्त, 2025 को ग़ाज़ा सिटी में मार दिया गया। उसी हमले में पाँच अन्य पत्रकार भी मारे गए।

नासर अस्पताल पर 25 अगस्त को हुए हमले में मारे गए पांच पत्रकारों में रॉयटर्स और एसोसिएटेड प्रेस के फ्रीलांसर शामिल थे। इजराइल ने फिर भी अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों को ग़ाज़ा में प्रवेश की अनुमति नहीं दी है।

निष्कर्ष

आज की स्थिति यह है कि फलस्तीनी पत्रकार ही एकमात्र गवाह हैं, जो ग़ाज़ा में जारी तबाही की तस्वीरें दुनिया को दिखा रहे हैं और इसी कीमत पर वे अपनी जान गंवा रहे हैं। यह प्रश्न बना हुआ है कि क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय इज़राइल को जवाबदेह ठहराएगा।

( द कन्वरसेशन )

मनीषा दिलीप

दिलीप


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