Barun Sakhajee
#NindakNiyre: कांग्रेस का अहमदाबाद अधिवेशन राजनीतिक दल का रणनीतिक चिंतन है या पार्टी के सनातन विरोधी होने का प्रमाण
बरुण सखाजी श्रीवास्तव
कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन को सिर्फ राजनीतिक दल की सियासी रणनीतिक तैयारी नहीं मानना चाहिए। इससे सावधान प्रतिवादी राजनीतिक दलों को होना हो या न होना हो, किंतु समग्र सनातनवादी विचारों को इस मंतव्य को भांपना होगा। इस बैठक में मुख्यतः दो बातों पर जोर दिया गया है। एक सनातन में जातिय संघर्ष को बढ़ावा देना दूसरा मौजूदा व्यवस्थाओं, संस्थाओं पर वैचारिक हथियारों से हमलावर होना। ऐसा वामपंथी वर्षों से करते रहे हैं। किंतु उन्हें राजनीतिक प्रश्रय न के बराबर मिला। निराश होकर वे जब-तब कांग्रेस के विचारों पर कब्जा जमाते रहे हैं। जब कांग्रेस के पास मजबूत नेतृत्व रहा तो वाम विध्वंश पीछे से छिपे रहकर काम करता रहा, लेकिन अब जब कांग्रेस के पास एक विचारशून्य नेतृत्व है तो वामपंथियों के विध्वंशक विचार और लोग स्पष्ट और खुलकर काम भी कर रहे हैं और दिखाई भी दे रहे हैं। वाम और कांग्रेस का यह अघोषित गठजोड़ अब घोषित गठजोड़ बन गया है।
यह दोनों बातें सत्ता, सरकार की लड़ाई लड़ रहे राजनीतिक दलों के लिए कोई बहुत मायने नहीं रखती। वे इसके जवाब में अपनी रणनीति कुछ इसी बात के इर्दगिर्द बना सकते हैं। काउंटर तैयार करके एक दूसरे से राजनीतिक लड़ाई लड़ते रहेंगे। जैसा कि एकसमान मताधिकार वाली व्यवस्था में दल करते हैं। इन्हें इससे फर्क नहीं होता कि देश, समाज या दुनिया पर इसका क्या दूरगामी असर होगा। किंतु भारतीय समाज सदा-सदा किसी राजसत्ता से संचालित नहीं रहा। यह समाज अपने आपमें एक समग्र व्यवस्था रहा है। एक गांव की इकाई को देखेंगे तो समझ आएगा। भारत के अधिसंख्य गांव आज भी हमारे प्रशासनिक ढांचे के नियमन के मुहताज नहीं हैं। अधिसंख्य गांवों में पटेल, मुकद्दम व्यवस्था से कई सारे काम निपटा लिए जाते हैं। कुछ बच रहे जाते हैं तो वे लोगों के धर्म के प्रति स्वनिष्ठ भाव से निपट जाते हैं। गांवों में हमने देखा है अगर कोई एक दूसरे की जमीन पर अतिक्रमण कर ले तो गांव की पंचायत मिल-बैठकर इसका निपटारा कर लेती है। इस निपटारे में सुबूतो, बयानों को मद्देनजर रखने की जरूरत भी नहीं होती, क्योंकि समाज का, गांव का नैतिक दबाव इतना होता है कि अतिक्रमण करने वाला या कुछ गलत करने वाला बैकफुट पर चला जाता है। सबसे बड़ी बात पीढ़ियों से रह रहे परिवार हर घर, परिवार से हर रूप से परिचित होते हैं। जमीनों के टुकड़ों से लेकर घरों तक, स्वाभाव से लेकर विचार तक से परिचित होते हैं। ऐसे में अतिक्रमण किसने किसकी जमीन पर किया यह स्पष्ट नजर आ रहा होता है। हजारों गांवों से ऐसे मामले हमारी व्यवस्था में रिपोर्ट ही नहीं होते। जो रिपोर्ट होते हैं वह समग्र विवादों का 5 फीसद भी नहीं होगा। मैं अपने ही गांव का उदाहरण देता हूं। मैंने अपने गांव में 1994 में पहली बार पुलिस देखी थी। इसके बाद कई विवाद हुए, लठ चले, चोटें आईं हालांकि कोई खूनी संघर्ष नहीं हुआ। कइयों की जमीनें बिकी, बंटवारे हुए, घर द्वार बंटे, नए घर बने, नई योजनाएं आईं, किसी के नाम कटे, किसी के घटे, कई सिधारे, कई नए बच्चे निर्णायक नौजवान हुए, किंतु गांव में पुलिस, तहसीलदार जैसे लोगों को आना नहीं पड़ा। जमीनें बंटी तो तहसील में बंटांकन नामांकन हुआ, झगड़े हुए तो आपस में मिल-विचारकर निपटा लिए गए। 4-4 साल तक अबोले रहे, एक दूसरे के चेहरे नहीं देखने के हालात रहे, घरों से दूर, आयोजन, आमंत्रण पर बंध, प्रतिबंध रहे, किंतु ऐसा नहीं कि कानूनी पेचीदगियों में फंसाकर संबंधित एक दूसरे को निपटा रहे हैं। अदालतों के सुबूतो, गवाहों के मद्देनजर वाले लंगड़े न्याय की शरणागति नहीं की। उस न्याय व्यवस्था में आने की नौबत नहीं आई, जिसमें छल, कपट, दंभ, द्वेष अधिवक्ता तर्क-कुतर्कों से होकर इंसाफ मिलता हो। मैं नौबत शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं, यह नहीं कह रहा कि कुछ भी हो जाए आप न्यायालय मत ही आइए।
ऐसे विहंगम समाज में एक टोला निचली जातियों का भी रहा। मध्यम पिछड़ी जातियों का मुहल्ला गांवों में होता है। उच्च जातियों के घर भी होते हैं। सबके बीच में सब तरह के संबंध होते हैं। गांव का खवास जब विवाह आदि आयोजनों के बुलौया यानी आमंत्रण यानि न्यौता देता है तो वह यह देखकर नहीं देता कि यह दलित का घर है, यह पिछड़े वर्ग का घर है या यह उच्च जाति का घर है। वह एक-एक घर आयोजक के प्रतिनिधि के रूप में जाता है। आयोजक का कोई प्रतिनिधि साथ में भी रहता है। आयोजन के हर कार्यक्रम का आमंत्रण समानांतर जाता है।
यह तो बात हुई गांव की। शहरों में तो पहले से ही जातपात की बात कम ही होती रही है। फिर भी अगर हुई भी है तो इसे खारिज करने वाले भी रहे हैं। शहरों में जातियों का कोई असर नहीं होता। सब एक साथ रह रहे होते हैं, खा-पी रहे होते हैं। गांव में ऐसा नहीं भी होता तो भी ऊंची-नीची जातियों के बीच में कोई ऐसी भेद-भाव की खाई नहीं होती जिसे खाई माना जाए। यह एक सामान्य मानविकी स्वभाव जैसी होती है। जैसे कि कोई किसी विशेष कर्म से जुड़ा है। मसलन हमारे घरों में ड्रायवर। समानता की बात करने वाला कोई भी हो, वह ड्रायवर को अपने साथ डायनिंग टेबल पर अपने बच्चों के साथ नहीं खिलाता। घर के लोगों के लिए कपड़े लेने जाए तो समान रूप से ड्रायवर के लिए भी ले ऐसा नहीं होता। आज भी ऐसा होता है। इसमें गलत और सही जैसा कुछ भी नहीं है। जैसे कि एक अफसर तहसीलदार है दूसरा पटवरी तो पटवारी तहसीलदार का सम्मान करेगा। तहसीदार का प्रोटोकॉल पटवारी फॉलो करेगा, क्योंकि कर्म से वह मातहत है। भारत में भी जातियों का विभाजन किसी नकारात्मक अर्थों में नहीं किया गया। यह विशुद्ध शरीर को बीमारियों से दूर रखने, विवाह नाम की संस्था को मजबूत करने, शारीरिक संबंधों को नियंत्रित करने और फिर अंत में चिररोजगार का स्थापित करने के रूप में किया गया है। एक कौशल पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहता था। किसी को ये चिंता नहीं होती कि बच्चा खाएगा, कमाएगा क्या। उसे गांव तक नहीं छोड़ना पड़ता था। सारी मूलभूत जरूरतें वहीं पूरी हो जाती हैं। आज भी भारत के कई गांवों में सैंकड़ों पीढ़ियों से रहने वाले परिवरा मिल जाएंगे। सनातन जनजातिय समाज के गांवों में तो ऐसा प्रामाणिक तौर पर है ही, अन्य सनातन जातियों के गांवों में भी ऐसा है। इन्हीं गांवों में सभी जातियों के लोग रहते हैं। अब भी ये गांव आत्मनिर्भर हैं।
कुछ विचार भारत में ऐसे पनपे जिन्होंने इस कर्म बंटवारे को भारत की दुखती रग बनाया है। इसमें कुछ उनका साथ उन्होंने भी दिया जो इस व्यवस्था का दुरुपयोग करके स्वयं को मिले कर्म आधारित विशेषाधिकार को पावर के रूप में एंजॉय करने लगे। जैसे कि एक तहसीलदार के हस्ताक्षर से जमीनें किसी की किसके नाम होने लग जाएं तो वह स्वयं के नाम कई लोगों की जमीनें कर ले। यह तो होता ही है। वही हुआ। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि हम तहसीलदारी वाला ढांचा ध्वस्त कर दें। इसमें पटवारी को पीड़ित और तहसीलदार को शोषक बना दें। इसका अर्थ होता है ऐसी निगरानी संस्था बनाएं जो इस तरह की मनमानी पर नियंत्रण कर सके। इस तरह की निगरानी संस्था हमारे पास हमारा संविधान है। हमारा सनातन धर्म है। हमारे ग्रामीण समाज हैं। हमारी ग्रामीण पंचायतें हैं। जातिय आधार पर बने संगठन है। इस तरह की निगरानी संस्थाओं में भी जब दोष आने लगे तो इनके संगठनात्मक ढांचे को एड्रेस करने की जरूरत है बजाए इन्हें ध्वस्त कर देने के।
अहमदाबाद अधिवेशन दरअसल इस गांव के समाज को, इस सनातन के समाज को तोड़कर सियासत करने के लिए ही हुआ जान पड़ता है। कांग्रेस की प्रतिवादी पार्टी भाजपा इन दिनों हिंदुत्व के मजबूत किले में जा बैठी है। ऐसे में कांग्रेस के सामने कोई विकल्प बचा नहीं। वह मुस्लिमों को अपने पक्ष में शत-प्रतशत कर भी लेती है तब भी हिंदू बहुसंख्य हैं। ऐसे में कांग्रेस की नजर इस बहुसंख्य के कॉम्बिनेशन को तोड़ने की रणनीति पर है। एक राजनीतिक दल होने के नाते वह इसे भारत का बहुसंख्य न मानकर भाजपा का वोट बहुसंख्य मान रही है। कांग्रेस से यह गलती हो रही है और हो भी क्यों न, जब वह इसी के इर्दगिर्द वर्षों से सियासत करती आई है। यह कांग्रेस का आजामाया हुआ मजबूत राजनीतिक हथियार है।
जब-जब कांग्रेस के पास मजबूत नेतृत्व रहे वह ऐसा अपने बूते करती रही। इसमें सहायक बने वाम विचारों के हवाले शिक्षा, विचार विस्तार जैसे काम बदले में देती रही। किसी को पता भी नहीं चल सका कि कांग्रेस असल में भारतीय सनातन समाज को लेकर समग्रता में सोचती ही नहीं। वह तात्कालिक शक्ति प्राप्ति के लिए सोचती है। वह इसमें कामयाब भी रही। इस शक्ति के पाते ही वे सारे करैक्शन करती रही जिससे इस बहुसंख्य को एकजुट होने में बाधा उत्पन्न होती रहे। अब जब यह बहुसंख्य किसी राजनीतिक दल ने इकट्ठा कर लिया है तो वह भी इसका राजनीतिक इस्तेमाल करते हुए बहुत कम मात्रा में बहुसंख्य के हित के लिए कुछ देता-लेता रहेगा। इसलिए कांग्रेस का अहमदाबाद अधिवेशन समग्र भारतीय सनातन समाज के लिए चिंता का विषय है। समग्र समाज को सोचना शुरू करना चाहिए कांग्रेस भाजपा के विरुद्ध है, किंतु कहीं भारतीयता के भी विरुद्ध तो नहीं।