NandKumar Sai left BJP joins congress implications on electoral results

#NindakNIye: नंदकुमार साय ने क्यों छोड़ी भाजपा…क्या इस्तेमाल करेगी कांग्रेस और क्या पड़ेंगे छत्तीसगढ़ चुनाव पर असर? विश्लेषण

Edited By :   Modified Date:  May 2, 2023 / 12:27 PM IST, Published Date : May 1, 2023/2:28 pm IST

बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक

NandKumar Sai left BJP joins congress भाजपा के वरिष्ठ आदिवासी नेता नंदकुमार साय कांग्रेस में चले गए। चुनाव से महज 6-7 महीने पहले यह घटनाक्रम बड़ा है। नंदकुमार साय कितने असरदार हैं या होंगे यह वक्त तय करेगा, लेकिन उनका कद बड़ा है। उनका भाजपा में रहना भले ही लाभदायक न हो लेकिन न रहना नुकसानदायक हो सकता है। इसके साथ ही एक सवाल ये भी है कि उनका कांग्रेस इस्तेमाल क्या करेगी। ढूंढते हैं इनके जवाब।

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NandKumar Sai left BJP joins congress भाजपा में विभिन्न बड़े पदों पर रहे नंदकुमार साय ने अपनी आयु के 79वें वर्ष में भाजपा छोड़ दी। वे लंबे अरसे से नाराज चल रहे थे। 2018 में भाजपा की हार के बाद उन्हें लगा था अब पार्टी उन्हें वह दायित्व भी देगी जिसकी वे अपेक्षा कर रहे हैं। पार्टी यह उन्हें लगातार जताती और बताती रही है कि उन्हें जो दिया जाना था दिया जा चुका है, परंतु साय अबकी प्रदेश में मुख्यमंत्री चेहरे के रूप में आदिवासी चेहरा चाहते थे। वे इसकी वकालत किया करते थे। नंदकुमार साय का तर्क है कि राज्य में 80 लाख आबादी आदिवासी समाज की है और लगभग 54 लाख मतदाता हैं। तब राज्य को आदिवासी मुख्यमंत्री देना लाजिमी है। इसके अलावा भाजपा उन्हें हर स्तर पर पद और सम्मान से नवाजती रही है। अब सवाल है कि क्या नंदकुमार साय कांग्रेस में जाकर अपनी इस मांग को मनवा लेंगे? आइए समझते हैं नंदकुमार साय के जाने से भाजपा को क्या नुकसान होगा, कांग्रेस को क्या फायदा, नंदकुमार की राजनीति में क्या अच्छा होगा और क्या खराब। साथ ही जानेंगे, इसका वर्ष 2023 के चुनावों पर क्या असर होगा।

भाजपा को क्या होगा नुकसान

बीते कुछ वर्षों से भाजपा परसेप्शन की सियासत पर जोर देती आई है। ऐसे में नंदकुमार साय का जाना यह माना जा सकता है कि भाजपा आदिवासियों का उपेक्षा करती है। इसके जवाब में भले ही पार्टी अनेक आदिवासी नेताओं को आगे रखकर अपनी सफाई देती रहे, लेकिन यह परसेप्शन बन सकता है। इससे निपटने के लिए भाजपा ने कहना शुरू कर दिया है कि साय साहब को वह सब दिया है जो दिया जा सकता था। चूंकि छत्तीसगढ़ में हुए 2018 के विधानसभा चुनाव में 54 लाख आदिवासी मतदाताओं में से लगभग 40 लाख वोटर्स ने मतदान किया था। इनमें से 24 लाख वोट कांग्रेस को मिले थे, 2 लाख वोट जोगी को और 14 लाख वोट भाजपा को मिले थे। कांग्रेस मानती है जोगी के 2 लाख वोट भी कांग्रेस के थे। ऐसे में भाजपा आदिवासी वोटों के मामले में लगभग 10 लाख के फासले से पीछे है। लेकिन लोकसभा चुनाव में हालात पलट गए। 2019 में पड़े कुल आदिवासी वोट माने गए 42 लाख। भाजपा को मिले लगभग 34 लाख। यानि अर्थ निकाला गया आदिवासी केंद्र की मोदी सरकार से खुश हैं, लेकिन प्रदेश में वे नाखुश हैं। इस कैल्कुलेशन को पूरा करने के लिए भाजपा ने कांग्रेस के रेबेलियंस के छिपे हुए समर्थन से चल रहे सर्व आदिवासी समाज को मौन समर्थन देना शुरू किया। अनुमान था कि भाजपा नंदकुमार साय के आदिवासी मुख्यमंत्री वाली बात को खारिज करते हुए सर्व आदिवासी समाज के जरिए कांग्रेस-भाजपा के बीच पैदा हुए अंतराल को खत्म कर सकती है। नंदकुमार साय यह समझ रहे थे। वे कहते रहे हैं आदिवासी वोटर्स का जुड़ना जरूरी है और अब वे कहेंगे आदिवासी वोटर भाजपा नहीं जोड़ना चाहती। बस यहीं से भाजपा को परसेप्शन स्तर का नुकसान शुरू होगा।

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कांग्रेस को क्या फायदा?

कांग्रेस 2018 के बेस के मुताबिक 24 लाख आदिवासी वोटर्स, 29 आदिवासी विधायक, 1 प्रदेश अध्यक्ष, 3 मंत्रियों के साथ सबसे ज्यादा आदिवासी नेतृत्व वाली पार्टी दिख रही है। इस लिहाज से देखें तो नंदकुमार साय का जुड़ना और प्लस होगा। कांग्रेस राज्य में दो परसेप्शन पर काम कर रही है। पहला वह छत्तीसगढ़िया संस्कृति की पैरोकार के रूप में पेश होती आई है, दूसरा आदिवासियों को आनुपातिक रूप से प्रतिनिधित्व देकर वह इस मोर्चे को भी संभालती रही है। इस परसेप्शन को एंडोर्स करने वाला चेहरा होंगे नंदकुमार साय। यानि कांग्रेस को साय के आने से परसेप्शन का फायदा मिलेगा।

नंदकुमार साय को पर्सनल क्या फायदा?

अब बात करते हैं नंदकुमार साय को आखिर इसका पर्सनल क्या फायदा होगा? वे पहले ही भाजपा में अच्छी भूमिकाओं में रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाते रहे हैं। कांग्रेस उन्हें क्या दे सकती है। यह सच है कि कांग्रेस उन्हें प्रदेश अध्यक्ष नहीं बना सकती। न मुख्यमंत्री का चेहरा। जबकि उनकी मौलिक मांग और भाजपा से असहमति यही थी कि वे आदिवासी सीएम चेहरा चाहते थे। तो यह साफ है कि नंदकुमार साय को यहां व्यक्तिगत रूप से अधिक कोई फायदा नहीं दिख रहा। वे 2003 से जारी अपने असमंजस को सिर्फ यहां खत्म कर पाएंगे।

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नंदकुमार साय को क्या नुकसान?

नंदकुमार साय की राजनीतिक आयु 50 वर्ष से अधिक है। वे सत्तर के दशक से सक्रिय रहे हैं। उनकी बेटी पहले कांग्रेस का दामन थाम चुकी थी। उन पर रायपुर में जेल विभाग की भूमि पर निर्माण संबंधी आरोप भी लगे थे। उनकी बहू ने मीडिया में उन पर दहेज संबंधी आरोप लगाए थे। साय इन सबके पीछे भाजपा के अपनी उन प्रतिद्वंदियों को देखते हैं जो उन्हें 2003 से लगातार अप्रासंगिक बनाने की कोशिश में जुटे थे। आहत साय ने यहां फायदे और नुकसान पर ज्यादा सोचे बिना ही इस बार निर्णायक ढंग से यह कदम उठाया है। साय संघ के रामजन्मभूमि जैसे आंदोलनों से भी जुड़े रहे। वे हिंदू धर्म ग्रंथों के अच्छे जानकार हैं। इस तरह के वैचारिक दायरों में भी मुखर होते रहे हैं। कांग्रेस की संस्कृति में राम का वह रूप फिट नहीं बैठता जो भाजपा की संस्कृति में फिट है। साय को इसका नुकसान उठाना होगा।

छत्तीसगढ़ की सियासत पर क्या असर?

छत्तीसगढ़ की सियासत पर इसका परसेप्शन स्तर का असर होगा। इसकी तीन स्थितियां बन सकती हैं। पहली साय का घटनाक्रम रामदयाल उइके के घटनाक्रम की तरह सिद्ध होगा। जैसे कि कांग्रेस के तबके प्रदेश उपाध्यक्ष रामदयाल उइके ने एन चुनाव से पहले कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था। इसके बाद वे 2018 में 3 बार से जीतते आ रहे पाली-तानाखार सीट पर तीसरे नंबर जा पहुंचे थे। जिन्हें भाजपा लाई थी किला बचाने वे खुद अपना ही 3 बार से सुरक्षित किला नहीं बचा पाए थे। जबकि कांग्रेस ने उइके से बहुत जूनियर मोहित केरकेट्टा को मैदान में उतारा था। नंदकुमार साय तपकरा से लड़ते थे, वह सीट अब नहीं है। परिसीमन के बाद यह अलग रूप में है। ऐसे में वे सरगुजा में कहां से लड़ेंगे कहना मुश्किल है। जहां से वे आते हैं वहां कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रामपुकार सिंह बैठे हुए हैं। कुनकुरी से यूडी मिंज मजबूत स्थिति में हैं ही और जशपुर विनय भगत लड़े थे। ऐसे में साय सरगुजा की किसी सीट से जाएंगे तो नतीजे अपेक्षित आएं जरूरी नहीं। एक इस्तेमाल जरूर हो सकता है कि उन्हें सरगुजा लोकसभा से लड़ा दिया जाए, चूंकि वे वहां से सांसद रह भी चुके हैं। दूसरी स्थिति यह बनती है कि साय को सर्व आदिवासी समाज के रूप में पनप रहे राजनीतिक समीकरण के जवाब में साय को लगाया जाए। तीसरी स्थिति यह बन सकती है कि वे 2023 के चुनाव में आदिवासी सीटों पर किसी असरदार भूमिका में नजर आएं।

 

 

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