Barun Sakhajee,
Asso. Executive Editor
बरुण सखाजी, सह-कार्यकारी संपादक
सुप्रीम कोर्ट चुनावी वादों में मुफ्तखोरी पर इन दिनों सुनवाई कर रहा है। यूं तो सियासत में फ्रीबीज का चलन नया नहीं है, लेकिन अब यह अपने चरम पर है। हर किसी को बहुत सारी फ्री का चाहिए। लेकिन दुनिया में कोई भी चीज हमें वास्तव में फ्री में नहीं मिलती। हम किसी चीज को मुफ्त में पा भी लें तो उसकी दूसरी कीमत चुकानी होती है। फिलहाल भारत की सियासत में यही हो रहा है। सच्चा जब झूठे वायदों से हासिल होती नहीं दिखती तो राजनीतिक दलों ने मुफ्त चीजें देने के वादे पर काम शुरू कर दिया। नतीजे में कई राज्यों में कई दलों को सफलता भी मिल गई। तब यह बन गया सत्ता का शॉर्टकट। मगर क्या सब फ्री देकर सियासी दल ठीक कर रहे हैं? आज की पड़ताल इसी पर।
संसद में राजद के सांसद मनोज झा ने इस संबंध में तर्क दिए हैं। उनका कहना है राज्य लोक कल्याणकारी अवधारणा के साथ चलते हैं। ऐसे में सरकारों का दायित्व है लोगों को चीजें मुफ्त में दी जाएं। इसे मुफ्तखोरी नहीं कहना चाहिए।
संविधान के अनुच्छेद 38 में सरकारों को राजनीति, सामाजिक और आर्थिक रूप से असमानता को खत्म करते हुए लोगों के कल्याण के लिए कदम उठाने हैं। अनुच्छेद 39 के मुताबिक राज्य यह सुनिश्चित करेंगे कि सबको आजीविका का हक मिले, स्त्री-पुरुष में भेद न हो, धन का वितरण न्यायोचित हो सके, भौतिक संसाधन, साधनों का सही बंटवारा हो, श्रमिक स्वास्थ्य व काम के घंटे तय हों, बाल अधिकार से जुड़े कदम उठाएं। इन दोनों ही अनुच्छेदों में मुफ्त देने का कोई जिक्र नहीं है। ऐसे में यह कहना ठीक कैसे हुआ कि मुफ्त देना राज्यों का दायित्व है।
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हाल ही में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 10 राज्य भारी कर्ज में डूबे हुए हैं। इनमें पंजाब तो ऐसा राज्य है जो ब्याज चुकाने के लिए भी कर्ज लेता है। इन राज्यों में पंजाब पर अपनी जीडीपी का 53 फीसद कर्ज है। राजस्थन पर साढ़े 39 फीसद। केरल पर 37, बिहार पर साढ़े 38, झारखंड पर33, एमपी पर 31, यूपी पर साढ़े 32, पश्चिम बंगाल पर साढ़े 34 फीसद और आंध्राप्रदेश पर 35 फीसद कर्ज है। ऐसे में इनकी माली हालत ठीक नहीं है। आरबीआई की ग्रॉस फिस्कल डिपॉजिट और जीडीपी में तीन अनुपात होने पर यह खतरनाक होता है। फिस्कल रिस्पॉन्सिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट एक्ट के मुताबिक राज्य अधिक कर्ज नहीं ले सकते।
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चुनाव के समय मोबाइल, स्कूटी, टीवी जैसे आइटम देने को अपने घोषणा पत्र में रखना कोई नई बात नहीं। यह होता रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार ने 2018 चुनाव से ऐन पहले मुफ्त मोबाइल और डाटा बांटना शुरू किया था, तो यूपी में कांग्रेस ने 2022 के चुनाव में लड़कियों को स्कूटी देने का वादा किया था। लेकिन ये दोनों ही वादे बताते हैं कि लोग अब समझदार हैं। राजनीतिक दलों की फिरकी में नहीं आते। लेकिन ये भी सच है कि कई राजनीतिक दल ऐसे ही वादों के सहारे चुनाव जीत भी रहे हैं। फ्रीबीज का चलन सबसे ज्यादा दक्षिणी राज्यों में है। राजनीतिक पंडित इसे राजनीति के साइड इफैक्ट बताते हैं।
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लोक कल्याणकारी राज्य का मतलब लोगों कल्याण है, लेकिन यह कल्याण मुफ्त टीवी, स्कूटी, पंखा देने तो कम से कम नहीं ही होता। कल्याण के लिए संविधान में जिस आजीविका और संसाधन की बात की है, उसपर फोकस करने की जरूरत है। बहरहाल, यह कोर्ट तय करेगा कि फ्रीबीज को कैसे रोका जाए, लेकिन अच्छी बात यह है कि लोग भी समझ रहे हैं और सियासी दल भी इस बात को मान रहे हैं कि सत्ता का यह शॉर्टकट हमेशा चलने वाला तो नहीं है। लेकिन जब तक चल रहा तब तक कोई इससे चूकने वाला नहीं है। आपको क्या लगता है, मुफ्त के लैपटॉप, मोबाइल, स्कूटी, टीवी, पंखे देने का वादा करने वाला दल सह सरकार दे पाएगा।