Paramhans_Shrirambabajee: प्रेम और मोह आपस में गुथे दो ऐसे छोर हैं जो ठीक विपरीत दिशाओं में जाकर खुलते हैं
बरुण सखाजी श्रीवास्तव
मोह और प्रेम दो पृथक चीजें हैं। मोह को प्रेम मान लेना और प्रेम को मोह मान लेना वास्तविकता से दूर हो जाना है। इन दोनों की सही समझ हमे सत्य की ओर लेकर जाती है। आम बोलचाल में इन्हें एक ही माना जाता है। मोह से भक्ति पैदा नहीं हो सकती, प्रेम भक्ति का चरमोत्कर्ष है। इस भ्रम को परमहंस श्रीराम बाबाजी एक क्षण में दूर करते हैं। वे एक स्थान पर टिकते नहीं क्योंकि ज्यों ही टिके त्यों ही किसी न किसी रूप में मोहपाश बंधा। वह चाहे अपनी ही दृढ़ मान्यताओं का ही क्यों न हो। मोह बहुत ही महीन भाव है। अहंकार से भी महीन। अति सूक्ष्म। पता नहीं चलता कब, कहां से, कैसे घुस जाए। कैसे मजबूत हो जाए।
हम मोह और प्रेम में भेद करने के लिए परमहंस श्रीराम बाबाजी महाराजजी की उस क्रिया को देखते हैं जिसमें वे इसे सुस्पष्ट करते थे। अपने थैले, डंडे के साथ भ्रमण करते गुरुदेव कब किस भक्त के घर पहुंच जाएं कोई सुनिश्चित नहीं। इस क्रिया का सीधा ताल्लुक हमारे भीतर की भावना पर निर्भर करता है। जब भी भक्त ने महाराजजी को हृदय से स्मरण किया वह प्रकट हो जाते थे। यह कहने में चमत्कार लगता है। कई बार भक्त अपने मन में इसका प्रयोग भी करते थे। वे महाराजजी को स्मरण करते थे और सोचते थे महाराजजी आ जाएंगे। लेकिन अनेक बार वे नहीं भी आते थे। जब आते तो कहते देख रहे हो। देखना आम समाज की बोलचाल में परीक्षण को भी कहा जाता है। जैसे हम कहें देखते हैं कैसा है, देखते हैं कैसा निकलेगा। महाराजजी के शब्दों और भावों को समझने के लिए किसी बुद्धि की नहीं बल्कि निश्छल हृदय की आवश्यकता होती है। गूढ़, गहरी बातों के लिए हजारों धर्मग्रंथों का अध्ययन एक गुरुकृपा से निकले वाक्य के बराबर होता है।
परमहंस श्रीराम बाबाजी अपनी यात्रा में पड़ाव रखते थे, मंजिल नहीं। निरंतर यात्रामय रहना अपने आपमें प्रेम का सर्वोच्च है। जैसे एक ठिकाने पर रुकना मोह का कारक, जनक, प्रभावकारी हो सकता है वैसे ही यात्राएं मोह का प्रतिरोधण करती हैं। यात्राएं प्रेम की प्रेरक हैं। हमारी अमरकंट में नर्मदा मैया के धरागम केंद्र को देखने की इच्छा होना और वहां बसना ये दोनों में प्रेम क्या है और मोह क्या है। हमारा संसारी कूढ़महज कहता है ईश्वरीय वस्तुओं, भावों की इच्छा मोह नहीं होती, लेकिन इसे बारीक नजर से देखेंगे तो समझ आएगा मोह का एक सूक्ष्म स्वरूप होती हैं। अगर हम नर्मदा के उद्गम के दर्शन की चाह रख रहे हैं तो यह मोह नहीं है। यह हमारा प्रेम है। किंतु ऐसा नहीं है। मोह वह सब है जिसका कुछ भी फल होता है। ज्यों हम दर्शन करने गए तो वहां हमें फल मिला, दर्शन अपने आपमें फल है। इसलिए महाराजजी अपनी यात्रा का कोई वृत्त या योजना नहीं बनाते थे। वे सिर्फ निकलते थे, क्योंकि वृत्त बनाना मतलब फल पाने का क्रम।
महाराजजी का चलते रहना दरअसल भ्रम और क्रम को तोड़ने की क्रिया का हिस्सा था। प्रेम का प्रस्फुटन ईश्वर की ओर लेकर जाता है। प्रेम का बढ़ना आनंद में समा देता है। महाराज जी उस परमसत्ता के पथिक थे, जिसे परमहंस श्रीराम बाबाजी हनुमानजी कहते हैं। परमहंस श्रीराम बाबाजी यूं शब्दों को भी आकार मानते हैं। आकार जिससे अभिव्यक्ति हो, आकार जिससे संरचना हो, आकार जिससे परंपरा हो, आकार जिससे आग्रह उत्पन्न हों। इसलिए वे कभी किसी चीज की व्याख्या शब्दों से नहीं करते थे। महाराज जी के दर्शन, उनकी पूजा उनके सत्व और तत्व को समझना ही है। उनके आध्यात्मिक विज्ञान में प्रवेश ही उनकी पूजा है। उनके चरणों की कृपा है।
मोह फलदायी होता है प्रेम मधुर दुखदायी। हमारा चयन फलदायी को श्रेष्ठ मानता है। कोई भला दुखदायी की ओर क्योंकर जाएगा। इसलिए बुद्धि प्रेम और मोह को एक में एक गूथकर हमे बताती है दोनों एक ही हैं। मोह मिठाई है, प्रेम स्वाद। लेकिन हम स्वाद को नहीं देखते मिठाई को देखते हैं। जिसमें बाद में जो स्वाद आता है वह हमारी स्वादेंद्री को गुलाम बनाकर अपने वशीभूत कर लेता है। जबकि स्वाद तो वो था ही नहीं जो हमे चाहिए थे। हमे जो चाहिए था वह हम देख नहीं पाए। प्रेम असल में वह स्वाद था। प्रेम ही उसका असली काम कर सकता था। परंतु हम इंद्रियों के वशीभूत हर स्वाद जीभ से लेना चाहते हैं। इसलिए मिठाई को पकड़ते हैं स्वाद के लिए जबकि स्वाद अदृश्य है, वह भूत वस्तुओं में नहीं होना चाहिए। प्रेम वही स्वाद है, मोह की मिठाई वाला नहीं।
प्रेम से आशय अपने भगवान की स्मृतियों में खो जाना। भाव भक्ति में नाचना। परमात्म सुमिरन में लीन हो जाना। परमात्मा ही हो जाना है। इस परमात्मा को हम अपनी सुविधा के अनुसार कोई नाम दे देते हैं, जैसे कि परमहंस श्रीराम बाबाजी। असली स्वाद। असली आनंद। असली मजा। जब आपकी चाह, राह, मंजिल सब गायब हो जाए। जब सिर्फ प्रेम रहे। प्रेम वर्तमान होता है। न भूत न भविष्य। जब कोई भूत होता ही नहीं तो हम तिराहे से भी मुक्त हो गए। यानी भविष्य की चिंता और भूत की टीस सबसे मुक्त हो गए। तभी हमारी सनातन परंपरा में डाकू होकर भी बाल्मिक जी को राम चैतन्य रूप में प्रकट मिल जाते हैं, जबकि वे नाम भी ठीक नहीं ले रहे थे। वे अंदर से प्रेम के हवाले, वर्तमान के हवाले, निश्छलता के हवाले, पूर्ण शुद्ध मन के हो गए थे। कह सकते हैं जब हम न्यूट्रालाइज्ड हो जाएं। न चाह हो न राह हो न वाह की आशा हो। न अच्छा हो न बुरा हो। न हां हो और न ही न हो। यही प्रेम है। यह मोह का सबसे बड़ा शत्रु है। इसलिए प्रेम और मोह एक नहीं एक दूसरे क विपरीत दिशाओं के हाथी हैं। प्रेम प्रकाश है, मोह अंधकार। प्रेम शास्वत है, मोह नाशवान। मोह शरीर है, प्रेम अशरीर। मोह विशाल है प्रेम विराट। मोह विस्तार है, प्रेम संपूर्ण। मोह सुदर्शन है, प्रेम महादर्शन। परमहंस श्रीराम बाबाजी का समग्र वांग्मय प्रेम है। मोहातीत सशरीर ब्रह्म प्रेमाश्रय।
(आगे पढ़िए भिक्षा और शिक्षा में से क्या श्रेष्ठ है)

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