इंग्लैंड के नामचीन नाटककार कवि बार्ड ऑफ एवन विलियम शेक्सपियर ने अपने नाटक रोमियो एंड जूलियट में एक डायलॉग लिखा था- ‘नाम में क्या रखा है? जिसे हम गुलाब कहते हैं, किसी और नाम से उसकी सुगंध उतनी ही मीठी होगी।’ इस प्रसंग का धड़ल्ले से उपयोग कर एक धड़ा ये बता रहा है कि जगहों का नवीन नामकरण अप्रासंगिक है। इसके साथ ही एक धड़ा ऐसा भी है जो औपनिवेशिक गुलामी की स्मृतियों से मुक्ति के लिए धरोहरों और शहरों से लेकर देश तक के नाम में बदलाव का पक्षधर है। केंद्र की भाजपा सरकार भी इसी राह पर चलते हुए कई जगहों के नाम बदल चुकी है और अब देश का नाम भी बदलने के कयास लगाए जा रहे हैं। इन दोनों धड़ों और विरोधाभासी विचारों के बीच जनता इस वर्तमान को समझने की कोशिश कर रही है कि क्या नाम बदलने से वाकई इतिहास या भविष्य बदल सकता है? क्या नाम बदलना जरूरी है या सिर्फ सियासी मजबूरी है ?
किसी व्यक्ति, वस्तु या जगह का नाम उसकी विशिष्ठ पहचान बताता है। हाल ही में जी-20 सम्मेलन के दौरान ‘प्रेसिडेंट ऑफ भारत’ लिखने पर कांग्रेस ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार देश का नाम बदलना चाहती है, जो देश के संघीय ढांचे पर हमला है। कांग्रेस के सहयोगी दलों ने इसे I.N.D.I.A गठबंधन से जोड़ते हुए देश का नाम बदलने की कोशिश को भाजपा की बौखलाहट करार दे दिया। विपक्ष का आरोप है कि लोगों का ध्यान बेरोजगारी, महंगाई और मूल समस्याओं से हटाने के लिए भाजपा ने ये मुद्दा उछाला है। इस पर दोनों तरफ से तल्ख बयानबाजी शुरू हुई और देश के नाम को लेकर सियासी तलवारें खिंच गई। भाजपा की ओरे से आरोप लगे कि भारत जोड़ो यात्रा निकालने वालों को भारत शब्द से आपत्ति क्यों हो रही है। प्राचीन काल से भारतभूमि के कई नाम रहे हैं। जम्बूद्वीप, भारतखंड, आर्यावर्त, भारतवर्ष, हिंद, हिंदुस्तान, भारत और इंडिया। संविधान के अनुच्छेद-1 में देश के नाम का जिक्र है। इसमें कहा गया है कि ‘इंडिया, जो कि भारत है, राज्यों का एक संघ होगा।’ इसी के आधार पर हिंदी में देश को ‘भारत गणराज्य’ और अंग्रेजी में रिपब्लिक ऑफ इंडिया कहते हैं। देश के नाम पर ये खींचतान भले ही I.N.D.I.A गठबंधन के आने के बाद तेज हुई हो लेकिन इससे पहले भी इसकी मांग कई बार उठ चुकी है। इस मुद्दे को देश के सर्वोच्च न्यायालय तक जनहित याचिका के जरिए ले जाया जा चुका है लेकिन कोर्ट ने ‘देश अतीत का कैदी बनकर नहीं रह सकता’, इस टिप्पणी के साथ याचिका खारिज कर दी थी।
बॉम्बे का मुंबई बन जाना, कलकत्ता का कोलकाता होना, मद्रास का चेन्नई और बैंगलोर का बेंगलुरु हो जाना, ये तो आपको याद ही होगा। यादाश्त पर थोड़ा जोर देंगे तो पता चलेगा कि आजादी के बाद से अब तक ढाई सौ से ज्यादा जगहों के नाम बदले जा चुके हैं। इस रेस में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल से लेकर महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तक शामिल हैं। यूपी में मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय कर दिया गया। इलाहाबाद को प्रयागराज और फैजाबाद को अब अयोध्या कहते हैं। इसी तरह मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ में भी कई जगहों के नाम बदले जा चुके हैं और कई जगहों के नाम बदलने की मांग की जाती रही है।
मध्यप्रदेश में बीते 5 साल के दौरान करीब डेढ़ दर्जन जगहों के नाम बदल दिए गए। इसी सितंबर महीने के पहले सोमवार को भोपाल नगर निगम ने 4 जगहों के नाम बदलने का फैसला लिया है। इससे पहले बरखेड़ा पठानी का नाम लाल बहादुर शास्त्री नगर और हलालपुर बस स्टैंड का नाम हनुमानगढ़ी किया गया था। इसी तरह हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नया नाम रानी कमलापति रेलवे स्टेशन, मिंटो हॉल का नाम कुशाभाऊ ठाकरे कन्वेंशन सेंटर, पातालपानी स्टेशन को टंट्या भील स्टेशन, नसरुल्लागंज को भैरूंदा और होशंगाबाद का नाम नर्मदापुरम कर दिय गया। इसके साथ ही भोपाल का नाम भोजपाल करने की मांग की जा रही है। इसी तरह जबलपुर को त्रिपुरी, ग्वालियर को गोपांचल, ओंकारेश्वर का मांधाता और महेश्वर का नाम महिष्मति करने जैसी मांगों की लिस्ट धीरे-धीरे लंबी होती जा रही है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तो योजनाओं के नामकरण पर भी आपत्ति जता चुके हैं। नीति आयोग की एक बैठक में उन्होंने केंद्र और राज्य की राशि से संचालित योजनाओं का नामकरण करने का अधिकार राज्यों को देने की मांग की थी। इससे पहले मुख्यमंत्री के निर्देश पर प्रदेश के तीन जगहों के नाम बदले गए थे। चंदखुरी का नाम माता कौशल्याधाम चंदखुरी कर दिया गया। गिरौदपुरी का नाम बाबा गुरु घासीदास धाम गिरौदपुरी और सोनाखान का नाम शहीद वीरनारायण सिंह धाम सोनाखान किया गया था। बीते महीने रायपुर नगर निगम ने भी थोक में जगहों के नाम बदले थे।
नामों के बदलाव के पीछे अपनी मूल पहचान और संस्कृति के संरक्षण जैसे तर्क आकर्षित करते हैं लेकिन ये बदलाव कितना मायने रखते हैं, इसको लेकर जनता थोड़ी कंफ्यूज है और राजनीतिक दल बंटे हुए हैं। नाम बदलने के अधिकांश मामलों में एक धर्म विशेष का असर ज्यादा दिखता है, जिसकी वजह से दूसरे खेमे की अप्रत्यक्ष नाराजगी दिखती है। कई बार देश प्रदेश में जनता से जुड़े असल मुद्दों का ज्वार उठने से पहले ही अचानक चर्चा की एक नई बयार चल पड़ती है। इसके बाद राष्ट्रवाद की गंगा में डुबकी लगाती हुई जनता के मानस से महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे विस्मृत हो जाते हैं। पुराने नामों में गुलामी की झलक और नए नाम को भारतीय संस्कृति की पहचान बताकर एक बार फिर राष्ट्रवाद का राग छेड़ा गया है। इसी बीच I.N.D.I.A गठबंधन के आकार लेने के बाद भारत नाम की बहस की टाइमिंग को विपक्षी दल भुनाने में लगे हैं। इसे सही भी मान लें तो क्या सिर्फ नाम बदलने से ही सूरत बदल जाएगी, ये सबसे बड़ा सवाल है। ये बात भी गौर करने लायक है कि एक शहर का नाम बदलने में 300 करोड़ से लेकर 1000 करोड़ रुपए तक का खर्च आता है। बात जब देश का नाम बदलने की हो तो ये आंकड़ा कई गुना बड़ा होगा। जाहिर है ये पैसे आपकी गाढ़ी मेहनत की कमाई के होते हैं, जिसे आप यूं खर्च करना शायद ही पसंद करेंगे। वैसे भी जनता का कल्याण सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और इसके लिए नाम को लेकर लंबी लड़ाई के बजाय विकास पर ध्यान दें तो विश्व पटल पर अपने आप मेरा भारत महान का यशगान हो सकता है।