Contract Employees Regularization. Image: IBC24 Customized
चंडीगढ़: Contract Employees Regularization Order लंबे समय से नियमितीकरण्ध का इंतजार कर रहे संविदा कर्मचारियों की दिवाली के बाद असली दिवाली हो गई है। दरअसल हाईकोर्ट ने संविदा कर्मचारियों के नियमितीकरण का रास्ता साफ करते हुए सरकार को कहा है कि राज्य एक आदर्श नियोक्ता के तौर पर कर्मचारियों का शोषण नहीं कर सकता। उन्हें दशकों तक अस्थायी पदों पर रखकर नियमितीकरण से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन है।
Contract Employees Regularization Order मिली जानकारी के अनुसार संविदा कर्मचारियों के नियमितीकरण का फैसला जस्टिस हरप्रीत सिंह बराड़ ने सुनाया है। बताया जा रहा है कि नियमितीकरण की मांग को लेकर दो संविदा कर्मचारियों ने याचिका दायर करते हुए न्याय की गुहार लगाई थी। याविकाकर्ताओं ने दलील देते हुए लिखा था कि वो क्रमशः 1979 और 1982 से लगातार काम कर रहे थे और चार दशकों से अधिक समय से स्थायी पद पर काम कर रहे थे। कोर्ट ने माना कि वे मौजूदा नीतियों और अदालती फैसलों के तहत नियमितीकरण के हकदार हैं। याचिकाकर्ताओं, सुरिंदर सिंह और राजेंद्र प्रसाद, को PRTC के बरनाला डिपो में पार्ट-टाइम वाटरमैन के तौर पर नियुक्त किया गया था। 40 साल से ज्यादा समय तक लगातार और पूर्णकालिक प्रकृति का काम करने के बावजूद, उन्हें कभी भी नियमित नहीं किया गया। सिंह अभी भी सेवा में हैं, जबकि प्रसाद 2019 में सेवानिवृत्त हो गए। उन्होंने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था ताकि उनके नियमितीकरण से इनकार को रद्द किया जा सके और PRTC को पंजाब सरकार की 4 मार्च 1999, 23 जनवरी 2001 और 15 दिसंबर 2006 की नीतियों के तहत उनकी सेवाओं को नियमित करने का निर्देश दिया जा सके।
याचिकाकर्ताओं के वकील ने दलील दी कि उन्होंने पूर्णकालिक कर्मचारियों के बराबर काम किया है। नवंबर 2004 से उन्हें न्यूनतम वेतनमान और महंगाई भत्ता भी दिया जा रहा था, जो निगम द्वारा उनके नियमित रोजगार की स्पष्ट स्वीकृति थी। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि उनके मामले 1999 और 2001 की नियमितीकरण नीतियों के दायरे में आते हैं। इन नीतियों के अनुसार, तीन या दस साल की सेवा पूरी करने वाले कर्मचारियों को स्वीकृत पदों पर समायोजित किया जाना था।
इसके जवाब में, PRTC के वकील ने तर्क दिया कि नियमितीकरण नीतियां लागू नहीं होतीं क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने सेवा के दौरान कभी भी नियमितीकरण की मांग नहीं की थी और उनमें से एक तो सेवानिवृत्त भी हो चुका है। हालांकि, निगम यह नहीं बता सका कि दोनों याचिकाकर्ता 1980 के दशक की शुरुआत से लगातार सेवा में थे और व्यवहार में उन्हें नियमित कर्मचारी माना जाता था। जस्टिस बराड़ ने सुप्रीम कोर्ट के ‘स्टेट ऑफ कर्नाटक बनाम उमा देवी’ जैसे महत्वपूर्ण फैसलों का हवाला देते हुए इस बात पर जोर दिया कि राज्य एक आदर्श नियोक्ता के तौर पर व्यक्तियों का शोषण नहीं कर सकता। उन्हें दशकों तक अनिश्चित रोजगार में नहीं रखा जा सकता।
कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ताओं का काम स्थायी प्रकृति का था। 40 साल से अधिक समय तक अस्थायी पदों पर उनका लगातार काम करना संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन था। ये अनुच्छेद सार्वजनिक रोजगार में समानता और निष्पक्षता की गारंटी देते हैं। दोनों रिट याचिकाओं को स्वीकार करते हुए, कोर्ट ने PRTC को प्रमाणित आदेश मिलने के छह सप्ताह के भीतर याचिकाकर्ताओं की सेवाओं को नियमित करने का निर्देश दिया। यदि निगम ऐसा करने में विफल रहता है, तो इस अवधि के बाद याचिकाकर्ताओं को “स्वचालित रूप से नियमित माना जाएगा”। जस्टिस हरप्रीत सिंह बराड़ ने कहा, “राज्य को कल्याणकारी होना चाहिए और याचिकाकर्ताओं का शोषण नहीं करना चाहिए। उन्हें स्थायी प्रकृति का काम करवाकर उपयुक्त और उचित नियुक्तियां नहीं देना गलत है।”