Watch Video: G-23 यानी गांधी परिवार मुक्त Congress, 73 साल में 3 बार हुई कोशिश क्यों हुई विफल, लेकिन ये झटका है तगड़ा |

Watch Video: G-23 यानी गांधी परिवार मुक्त Congress, 73 साल में 3 बार हुई कोशिश क्यों हुई विफल, लेकिन ये झटका है तगड़ा

Edited By :   Modified Date:  November 29, 2022 / 08:12 PM IST, Published Date : May 26, 2022/1:17 pm IST

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Barun Sakhajee

Barun Sakhajee, Associate Executive Editor, IBC24

बरुण सखाजी

(एसोसिएट एक्जेक्यूटिव एडिटर- आईबीसी-24)

 

जी-23 कांग्रेस को गांधी परिवार मुक्त करने की कोशिश का नाम है। ऐसा नहीं है कि यह कोशिश पहली बार रहा है। ऐसा होते रहने का लंबा इतिहास है। कांग्रेस गांधी परिवार के वर्चस्व की बात सभी जानते हैं। पार्टी को गांधी परिवार से मुक्त कराने की कोशिश बीते 73 सालों से लगातार हो रही हैं। जबकि राजनीतिक दल के रूप में पार्टी पर परिवार के वर्चस्व को ही 75 साल हो चुके हैं। उदयपुर चिंतन शिविर के बाद से जी-23 कुनबा बिखरा-बिखरा सा नजर आ रहा है। मूलतः पार्टी को संगठनात्मक स्तर पर मजबूत करने और एक लोकतांत्रित नेतृत्व की मांग को लेकर बने इस समूह के लोग पार्टी छोड़कर जा रहे हैं।

 

नेहरू की मौत के बाद पहली कोशिश

 

भारत के पहले प्रधानमंत्री की अचानक मौत हो जाती है। सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के सामने नए नेता का संकट खड़ा हो जाता है। एक शख्स जो स्वतः ही इस पद का दावेदार था, अचानक दरकिनार कर दिया गया। पहले तो कार्यवाह प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा को बनाया और फिर इस वरिष्ठ नेता की आस लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री बनाकर तोड़ दी गई। फिर दूसरी बार इस वरिष्ठ नेता की आशाएं उस वक्त चूर-चूर हो गईं जब शास्त्री जी की ताशकैंट में मौत हो गई और फिर गुलजारी लाल नंदा को ही कार्यवाह बनाया गया। जैसे ही हल्के विरोध ने रफ्तार पकड़ी तो इंदिरा गांधी को पीएम बना दिया गया। यह नेता थे मोरारजी देसाई।

 

 

12 नवंबर 1969 को हमला

 

मोरारजी देसाई ने कामराज जैसे 17 नेताओं को साथ लेकर 12 नवंबर 1969 को बगावत का बिगुल फूंक दिया। देसाई कांग्रेस संगठन नाम का नया दल बना लेते हैं। इस पूरी स्क्रिप्ट के सरताज थे दक्षिण भारत के बड़े चेहरे के. कामराज।

 

मोदी होते तो बताते जी-17, ये नेता थे शामिल

 

अगर उस वक्त मोदी होते तो वे इसे जी-17 नाम देते। इस 17 दलीय विरोधी गुट में मोरारजी देसाई, के कामराज, एस. निजालिंगप्पा, नीलम संजीव रेड्डी, अतुल्य घोष, एसके पाटिल, हितेंद्र देसाई, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, चंद्रभानू गुप्ता, वीरेंद्र पाटिल, अशोका मेहता, त्रिभुवन नारायण सिंह, राम सुभाग सिंह, बीडी शर्मा, शंकर डी शर्मा और पीवी नरसिम्हा राव।

 

इस गुट के 2 नेता बने आगे चलकर प्रधानमंत्री

 

इस गुट के 17 नेताओं में से 2 आगे चलकर भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बने। एक नेता को जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री बनाया दूसरे को कांग्रेस ने ही पीएम बनाया। जबकि राष्ट्रपति बनने वाले नीलम संजीव रेड्डी राष्ट्रपति बनाए गए। मोरारजी देसाई जनता पार्टी के पहले गैर कांग्रेसी पीएम बने। जबकि पीवी नरसिम्हा राव पीएम बने।

 

लेकिन इंदिरा का कुछ न बिगड़ा

 

तबके विपक्षी दल इस टूट से फूले नहीं समाते थे। लेकिन इस टूट का असर ये हुआ कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 705 सदस्यों में से 446 इंदिरा के साथ खड़े हो गए। इंदिरा विरोधी मोरारजी अब तक बहुत आगे बढ़ चुके थे। इसलिए अब उनका मकसद भी बदल चुका था। वे प्रधानमंत्री के लिए नहीं बल्कि इंदिरा गांधी को हराने के लिए मैदान में थे। इस काम में साथ देने के लिए तमाम विपक्षी नेता एकजुट थे तो वहीं आंदोलनकारी भी साथ आ गए। सारी कोशिशों के बाद भी इंदिरा ने अपना पहला इम्तिहान पास किया। वे साल 1971 के चुनाव में 44 फीसद वोट और 352 सीटों के साथ सरकार में आई। मोरारजी की पार्टी को 10 फीसद वोट और महज 16 सीटें मिली।

 

1977 में फिर आजमाया, लेकिन रहे विफल

 

कांग्रेस को गांधी परिवार से मुक्ति के इस आंदोलन के अगुवा बने मोरारजी अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में जुट गए। उन्होंने 1977 के चुनाव में फिर से पार्टी को झौंका, लेकिन इस बार वे सिर्फ 5 फीसद वोटों के साथ 13 सीटों पर अटक गए। इसके बाद मोरारजी ने अपनी पार्टी का विलय जनता पार्टी में कर दिया। इसके बदले वे पीएम बना दिए गए। मोरारजी देश के सबसे बुजर्ग पीएम बने। उन्हें 81 साल की उम्र में यह पद मिला।

 

मोरारजी गुट के साथ नरसिम्हा राव ने रोका दखल

 

साल 1991 के चुनाव चल रहे थे। राजीव गांधी तमिल में एक सभा को संबोधित करने पहुंचे थे। अचानक वहां एक धमाका होता है और 1984 में देश में अब तक के इतिहास की सबसे बड़े बहुमत की सरकार के मुखिया रह चुके राजीव गांधी इसमें मारे जाते हैं। देशभर में सन्नाटा छा जाता है। कांग्रेस चुनाव तो जीत जाती है, लेकिन उसके पास नेता का संकट उभरता है। उस वक्त सोनिया गांधी राजनीति में नहीं थी। राहुल, प्रियंका छोटे थे। ऐसे में एक विकल्प बनकर उभरे करीम नगर आंध्राप्रदेश के पीवी नरसिम्हा राव।

 

बात हुई थी पीम बनते ही अध्यक्षी छोड़ने की, लेकिन….

 

नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बनते ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद भी अपने पास रखते हैं। जबकि बात ये हुई थी कि वे अध्यक्ष का पद त्याग देंगे। अपने 5 साल के कार्यकाल में गांधी परिवार के किसी सिपहसालार या खुद गांधी परिवार को सत्ता के इर्दगिर्द भी नहीं भटकने देते। पार्टी कार्यकर्ताओं को लगता है, अब गांधी परिवार की वापसी मुश्किल है।

 

छियानवे का चुनाव हारते ही घटा नरसिम्हा का प्रभाव

 

1996 में पार्टी के प्रदर्शन के बाद फिर गांधी परिवार इकट्ठा होता है और कांग्रेस में एंट्री होती है सोनिया गांधी की। तबके राष्ट्रीय अध्यक्ष सीताराम केसरी को अपमानित करके पद से हटाया जाता है। हारी पार्टी के नरसिम्हा राव भी हारे से नजर आते हैं। टुकड़ों-टुकड़ों को जोड़कर सरकारें बनती हैं। 1996 में महज 13 दिन की सरकार गिराकर देवेगौड़ा और गुजराल किसी तरह से सालभर सरकार खींचते हैं। अंततः फिर चुनाव होते हैं और अबकी अटल बिहारी वाजपेयी की 13 महीनों की सरकार बनती है।

 

सोनिया आईं तो धूल में उड़ गया गांधी परिवार मुक्ति का सिलसिला

 

सोनिया गांधी 1997 तक पार्टी पर अच्छी पकड़ बना चुकी थी। 1996 के चुनाव में जो प्रदर्शन था लगभग वही सोनिया की कांग्रेस ने दोहाराया। लेकिन यह चर्चा में नहीं  आया। जिस कारण से सीताराम केसरी से अध्यक्षी छीनी गई, नरसिम्हा राव की उपेक्षा की गई वह कारण सोनिया के अध्यक्ष बनते ही चर्चा से बाहर था। तब सोनिया गांधी के हाथ में आई कांग्रेस अब राहुल के हाथ में जाने को है। अब फिर रोड़ा बन रहे हैं जी-23 के सदस्य।

 

जब भी बदली पीढ़ी, कांग्रेस को परिवार से बाहर लाने की हुई कोशिश

 

दरअसल कांग्रेस में जब भी पीढ़ियों का हस्तांतरण हुआ है तो एक धड़े ने परिवार का विरोध किया ही है। लेकिन यह विरोध कालखंड में सिर्फ एक राजनीतिक महत्वाकांक्षा बना दिया गया। फिर वह चाहे मोरारजी देसाई का उनके 17 सीनियर कांग्रेसियों का हो या फिर नरसिम्हा राव, सीताराम केसरी का हो या फिर अब कथित जी-23 का। अंततः मोरारजी के विरोध के बाद कांग्रेस नेहरू पुत्री इंदिरा के हाथ में गई, तो केसरी, नरसिम्हा की लाख कोशिशों के बाद भी पार्टी राजीव गांधी के पत्नी सोनिया गांधी के खाते में चली गई। अब जब सोनिया से राहुल के हाथ में पार्टी जा रही है तो फिर वही संकट खड़ा हो रहा है। लेकिन इसमें एक फर्क है। मोरारजी से छीनकर कांग्रेस को अपने कब्जे में करने वाली इंदिरा ने पार्टी को 2 बार सत्ता दिलाई और तीसरी बार अपनी मृत्यु से उपजी सहानुभूति के बूते परोक्षी रूप से सत्ता भी दिलाई। ऐसे ही केसरी, नरसिम्हा से छीनकर अपने कब्जे में की गई सोनिया गांधी की कांग्रेस ने भी मनमोहन सिंह के रूप में बैकटुबैक 10 सालों का सत्तासुख भोगा है। इसके ठीक उलट सोनिया से राहुल के हाथों में जाती कांग्रेस लगातार गर्त में जा रही है। 2004 से पार्टी में आए राहुल पार्टी में 2009 से फुल-लेंथ में खेल रहे हैं। भले ही अध्यक्ष वे बाद में बने हों, लेकिन उनकी सरपरस्ती में पार्टी राज्यों में भी लूज कर रही है और केंद्र में भी। ऐसे में इस बार का झटका जरा बड़ा है।

(राजनीतिक विश्लेषण की विशेष श्रृंखला पढ़िए आईबीसी-24 पर।)