Yamraj ki Mrityu Gatha: क्या हुआ जब यमराज को खुद चखना पड़ा मौत का ज़हर? जान लें मृत्यु देवता की मौत की चौंकाने वाली अद्भुत कथा!
क्या हुआ जब श्वेत मुनि के शाप का प्रभाव तत्काल हुआ? यमराज का तेज क्षीण होने लगा, उनका शरीर कांपने लगा, और वे धराशायी हो गए। इस अभूतपूर्व घटना से मृत्यु के देवता की मृत्यु हो गई! जान लें यमराज को क्यों भुगतना पड़ा मृत्यु का दंश?
Yamraj ki Mrityu Gatha
- स्वयं यमराज को क्यों झेलना पड़ा मृत्यु का प्रकोप? जानें मृत्यु और पुनर्जन्म की गाथा!
Yamraj ki Mrityu Gatha: हिंदू पौराणिक कथाओं में यमराज को मृत्यु का स्वामी, धर्म का रक्षक और नरक का अधिपति कहा जाता हैअथवा यमराज का नाम सुनते ही मन में मृत्यु, कर्म और न्याय की छवि उभरती है। वे सूर्यदेव और संज्ञा के पुत्र हैं, जिनकी जुड़वां बहन यमुना है। ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक, यमराज को पहले मनुष्य के रूप में चित्रित किया गया है, जो स्वयं मृत्यु के द्वार पर पहुंचे और मृतकों के राजा बने। यमराज वह शक्ति हैं जो जीवन के अंतिम पड़ाव को नियंत्रित करते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक बार स्वयं मृत्यु के देवता को मृत्यु का सामना करना पड़ा था? यह कथा, जो शिवपुराण और मार्कंडेय पुराण के गहरे पन्नों में छिपी है, न केवल आश्चर्यजनक है, बल्कि भक्ति की अनंत शक्ति और सृष्टि के संतुलन का अनूठा दर्शन देती है। आइए, इस रहस्यमयी और अनोखी कथा में गोता लगाएं, जो यमराज की मृत्यु और उनके पुनर्जनन की गाथा है।
Yamraj ki Mrityu Gatha यमराज का जन्म और भूमिका
यमराज का जन्म सूर्यदेव और विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से हुआ। संज्ञा, सूर्य की प्रचंड ऊर्जा सहन न कर पाने के कारण छाया बनकर छिप गईं, इसी बीच यमराज और यमुना का जन्म हुआ। वेदों में यम को प्रथम मनुष्य बताया गया है, जिन्होंने मृत्यु को स्वीकार कर मृतकों का मार्ग प्रशस्त किया। वे दक्षिण दिशा के दिक्पाल हैं, महिष (भैंस) पर सवार, दंड और पाश धारण किए हुए। चित्रगुप्त उनके लेखाकार हैं, जो जीवों के कर्मों का हिसाब रखते हैं। यमराज का कर्तव्य है—कर्मफल प्रदान करना, पापियों को नरक भेजना और पुण्यात्माओं को स्वर्ग। लेकिन एक कथा के अनुसार, उनकी यह भूमिका एक भक्त के क्रोध से चुनौतीपूर्ण हो गई।
Yamraj ki Mrityu Gatha: मृत्यु का शिकार: यमराज की अनोखी कथा
शिवपुराण और मार्कंडेय पुराण में वर्णित इस कथा का केंद्र है राजा श्वेत, जो भगवान शिव के परम भक्त थे। एक बार राजा श्वेत ने अपना राज्य त्याग दिया और हिमालय में कठोर तपस्या में लीन हो गए। वे इतने गहन ध्यान में थे कि न तो आंखें खोलते थे, न ही सांस लेने का ध्यान रखते थे। तपस्या के दौरान एक चोर ने श्वेत ऋषि के आश्रम में शरण ले ली। चोर को पकड़ लिया गया और राजा के दरबार में लाया गया। लेकिन चोर ने चतुराई से कहा कि वह श्वेत ऋषि का शिष्य है। राजा ने बिना जांचे चोर को सजा सुना दी और उसके हाथ-पैर काटकर फेंक दिया।
चोर की चीखें हिमालय तक पहुंचीं। श्वेत ऋषि को होश आया तो उन्होंने देखा कि चोर मर चुका है। ऋषि को क्रोध आया तो उन्होंने सोचा कि उनके नाम पर निर्दोष की हत्या हुई। लेकिन वास्तव में, चोर की मृत्यु यमराज के दूतों ने की, क्योंकि उसका समय आ चुका था। यमदूतों ने चोर को पकड़ लिया और यमराज के पास ले गए। लेकिन चोर ने झूठा रोना रोया कि श्वेत ऋषि के आश्रम में रहते हुए भी उसे मृत्यु क्यों मिली?
यमराज ने चित्रगुप्त से हिसाब मंगवाया। हिसाब से चोर के पापों का फल तो मिल चुका था, लेकिन गलती से यमदूतों ने उसे श्वेत ऋषि के आश्रम से उठा लिया। यमराज क्रोधित हुए। उन्होंने सोचा कि निर्दोष को जल्दी बुलाना उनकी गलती है। इसलिए, उन्होंने श्वेत ऋषि को भी बुलाने का आदेश दिया। लेकिन श्वेत ऋषि शिव-भक्ति में लीन थे। यमराज स्वयं भैंसे पर सवार होकर सेना सहित पहुंचे। उन्होंने पाश फेंका, लेकिन ऋषि का ध्यान भंग न हुआ। क्रोध में यमराज ने दंड से प्रहार किया। इससे श्वेत ऋषि का ध्यान टूटा। ऋषि ने आंखें खोलीं तो देखा कि मृत्यु स्वयं उनके सामने खड़ी है। लेकिन भक्ति के जोश में ऋषि ने यमराज को शाप दे दिया: “तुम मृत्यु के देवता होकर निर्दोष को क्यों हरते हो? जाओ, स्वयं मृत्यु का स्वाद चखो!”
शाप का प्रभाव तुरंत हुआ। यमराज का शरीर कांपने लगा। उनकी शक्ति क्षीण हो गई। वे गिर पड़े और मृत्यु हो गई। यमराज की मृत्यु से सृष्टि में हाहाकार मच गया। जन्म-मृत्यु का चक्र रुक गया। कोई मरता नहीं था, इसलिए पृथ्वी पर भीड़ बढ़ने लगी। देवता परेशान होकर ब्रह्मा और विष्णु के पास पहुंचे। अंत में, सूर्यदेव ने भगवान शिव की तपस्या की। शिव प्रसन्न हुए और नंदी को यमुना नदी का जल लाने को कहा। उस जल को यमराज के पार्थिव शरीर पर छिड़कते ही वे जीवित हो उठे।
शाप का प्रभाव: यमराज की मृत्यु और सृष्टि का संकट
श्वेत मुनि के शाप का प्रभाव तत्काल हुआ। यमराज का तेज क्षीण हुआ, उनका शरीर कांपने लगा, और वे धराशायी हो गए। मृत्यु के देवता की मृत्यु हो गई! यह एक अभूतपूर्व घटना थी। यमलोक में हाहाकार मच गया। जन्म-मृत्यु का चक्र रुक गया। पृथ्वी पर कोई मर नहीं रहा था, जिससे जनसंख्या बढ़ने लगी और संसाधन कम पड़ने लगे। देवता घबराकर ब्रह्मा, विष्णु और अंत में शिव के पास पहुंचे। सूर्यदेव, यमराज के पिता, ने शिव की तपस्या शुरू की।
शिवजी ने यह संकट देखा। उन्होंने नंदी को यमुना नदी का पवित्र जल लाने का आदेश दिया। नंदी ने यमराज के पार्थिव शरीर पर यमुना जल छिड़का, और चमत्कार हुआ—यमराज जीवित हो उठे! लेकिन यह पुनर्जनन केवल एक शुरुआत थी। शिवजी ने यमराज को समझाया, “तुम्हारी गलती थी कि तुमने एक भक्त के आश्रम में हस्तक्षेप किया। कथा का मुख्य संदेश है—भक्ति सर्वोच्च है। मृत्यु भी भगवान के भक्तों के आगे नतमस्तक हो जाती है। साथ ही, यह कर्म और न्याय की निष्पक्षता पर जोर देती है। यमराज गलती मानकर सुधारते हैं, जो न्यायपालिका का प्रतीक है।
यमराज का पुनर्जनन और सृष्टि का संतुलन
यमराज ने अपनी गलती स्वीकारी। उन्होंने श्वेत मुनि से क्षमा मांगी, और मुनि ने शाप वापस ले लिया। यमराज ने वचन दिया कि वे कभी भी शिव भक्तों के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस घटना से सृष्टि का चक्र पुनः शुरू हुआ। पृथ्वी पर संतुलन बहाल हुआ, और यमराज की भूमिका और भी स्पष्ट हो गई। वे केवल कर्मों के आधार पर न्याय करेंगे, न कि भक्ति के मार्ग में बाधा बनेंगे।
निष्कर्ष
यह कथा हमें सिखाती है कि मृत्यु अटल है, लेकिन भक्ति से उसका प्रभाव कम किया जा सकता है। यमराज, जो स्वयं मृत्यु के कारण देवता बने, वे हमें याद दिलाते हैं कि अच्छे कर्म ही सच्ची मुक्ति देते हैं। इस कथा को याद रखें, खासकर पितृपक्ष में, जब यमराज की आराधना विशेष फलदायी होती है। यदि आप भक्ति के इस रहस्य को गहराई से समझना चाहें यां और ज्यादा इसके बारे में जानना चाहें तो शिवपुराण पढ़ें, यह जीवन को नई दृष्टि देगी।
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