18 अप्रैल- ये दिन आपसे कुछ कहता है

18 अप्रैल- ये दिन आपसे कुछ कहता है

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  • Publish Date - April 17, 2019 / 04:26 PM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 08:03 PM IST

रायपुर । जो आज नया है वो कल पुराना होगा,आज हमें देखकर हमारे माता-पिता खुश होते हैं उन्हें देखकर उनके माता-पिता,और ये क्रम चलता रहता है। लेकिन हम में से कितने लोग हैं जो अपनी पुरानी पीढ़ियों के लोगों के बारे में जानते हैं। शायद दादा के पिताजा नाम भी हमें ना मालूम हो, सच तो ये हैं मित्रो कि हम अपनी दुनिया में इतने मशगूल हो गए हैं कि हमें पता ही नहीं चल रहा कि हमसे क्या छूटता जा रहा है। कुंए से पानी निकालना हम कब भूल गए पता ही नहीं चला। कैंची साइकिल कैसे चलाते शायद ही अब हम किसी को बता पाएं। मित्रो, हम जिस जहां में रहते हैं वो गोल है गाहे-बगाहे चीजें लौटती हैं।जो धोती आउट ऑफ फैशन हो गई थी अब वहीं पहन के दूल्हा स्टेज पर चढ़ता है। तो याद रखिए तना कितना भी ऊपर पहुंच जाए इस धरा में जुड़ा वो जड़ से ही होता है।

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हम जिस जगह पैदा हुए हैं, उस स्थान की अपनी खासियत होती है, वहां के अपने अलग संस्कार होते हैं। जो हमारे पूर्वज लेकर चले आ रहे हैं। हमारी बोली अलग हो सकती है पहनावा कुछ भिन्न हो सकता है। खानपान में अंतर हो सकता है । रहन-सहन में तबदीली हो सकती है । यही सब अंतर हमारी संस्कृति बनाती है। और यहीं भिन्नता हमारी धरोहर है। जिसने इस बचा लिया उसका अस्तित्व बरकरार रहता है । नहीं तो कहा जाता है ना कि जहां दरिया समंदर से मिला तो दरिया नहीं रहता । तो यदि आप अपनी संस्कृति को बचाना चाहते हैं तो उसे आपको जीना पड़ेगा। उसे संभालना और सहेजना पड़ेगा। तब आगे शतकों बाद यही वर्तमान चीजें धरोहर के रुप में जानी जाएंगी।

18 अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस मनाया जाता है, हमने इस पर बात कर चुके हैं कि धरोहर कैसे बनती है, सच तो ये है कि हमें करना कुछ नहीं पड़ता बस जो हमारे बुजुर्ग करते आए हैं उसे ही दोहराना है। कुछ नया करना सीखना है,पर पुराने को नहीं भुलाना है। हिंदी,अंग्रेजी, फ्रेंच हो या अन्य भाषा सीखना सभी को है पर अपनी भाषा को नहीं भुलाना है। अपनी भाषा का बोलचाल में जिंदा रखते हुए इसे भी धरोहर की तरह सजाना आना चाहिए ।

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यूं तो इमारतों को घरोहर के रुप में जल्दी पहचान मिल जाती है भारत में ताजमहल से लेकर एजंता-अलोरा की गुफाएं हों या भीमबेटका के शैलचित्र सबको विश्व की धरोहरों में शामिल किया गया है। पर हमारे आसपास ऐसी बहुत सी चीजें है जो हमारे लिए खास हैं, हो सकता है आज ये चीजे दूसरों के लिए महत्व की ना हो पर आने वाले समय में सहेज कर रखी गई हर चीज धरोहर बननी है। तो समझ लीजिए कि आपके पास तो बहुत कुछ है आसपास, जिसे हम बचा सकते हैं । बस आपको इतना ध्यान रखना है कि जो है जैसा है वैसा बना रहे, ना हम उसे नुकसान पहुचाएं और ना किसी और को नुकसान पहुंचाने दें। हमारी गौरवशाली विरासत हमारी सबसे बड़ी संपदा है। हमारी सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत दोनों ही जीवन और प्रेरणा के अपूर्णीय स्रोत हैं।

विश्व धरोहर दिवस या विश्व विरासत दिवस या World Heritage Day प्रतिवर्ष 18 अप्रैल को मनाया जाता है, इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य भी यह है कि पूरे विश्व में मानव सभ्यता से जुड़े ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थलों के संरक्षण के प्रति जागरूकता लायी जा सके। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को की पहल पर एक अंतर्राष्ट्रीय संधि की गई है। ये संस्था विश्व के सांस्कृतिक प्राकृतिक धरोहर के संरक्षण के हेतु प्रतिबद्ध है। यह संधि सन् 1972 में लागू की गई है। प्रारंभ में मुख्यता तीन श्रेणियों में धरोहर स्थलों को शामिल किया गया था । जिसमें वह धरोहर स्थल जो प्राकृतिक रूप से संबद्ध हो अर्थात प्राकृतिक धरोहर स्थल हो दूसरे सांस्कृतिक धरोहर स्थल और तीसरा मिश्रित धरोहर स्थल हो। वर्ष 1982 में इकोमार्क नाम की संस्था ने ट्यूनीशिया में अंतर्राष्ट्रीय स्मारक और स्थल दिवस का आयोजन किया, उस सम्मेलन में यह भी बात उठी कि विश्व भर में किसी प्रकार के दिवस का आयोजन किया जाना चाहिए यूनेस्को की महासम्मेलन में इसके अनुमोदन के पश्चात 18 अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस के रूप में मनाने के लिए घोषणा की गई पूर्व में 18 अप्रैल को विश्व स्मारक तथा पुरातत्व स्थल दिवस के रूप में मनाए जाने की परंपरा थी।

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यदि विश्व धरोहरों से हटकर हम अपने आसपास निगाह डालें तो छत्तीसगढ़ में कई पुरातात्विक महत्व के स्थल हैं। इन स्थानों के बारे में जानना इसलिए भी जरुरी है कि इन सब के साथ छत्तीसगढ़ का एक इतिहास जुड़ा है। एक नज़र छत्तीसगढ़ के पुरातात्विक स्थल को।
काँकेर
काँकेर का प्राचीन नाम शीला व तामपत्र लेखों में काकरय, काकैर्य, कंकर व काँकेर अंकित है। कुछ विद्वानों का मत है कि प्राचीन समय में कांकेर कंकर ऋषि, श्रृंगी ऋषी, कांकेर नगर के मध्य में दूधनदी प्रवाहित होती है। इस नगर के दक्षिण में स्थित मढ़ियापहाड़ पुरातात्विक महत्व लिये हुये है। पहाड़ के उपर पत्थरों से निर्मित सिंहद्वार व किला यहां के समृद्ध इतिहास की एक झलिक प्रस्तुत करते हैं।

दुर्ग जिला
दुर्ग से 10 किलोमीटर दूर भिलाई एक औद्योगिक नगरी है। देश का पहला सार्वजनिक इस्पात कारखाना अपनी उन्नत तकनीकी, कौशल व उपकरणों के कारण विशेष दर्शनीय है। भिलाई में 100 एकड़ में एक अत्यन्त सुन्दर उद्यान व चिड़िया घर मैत्रीबाग पर्यटकों को रोमांचित करता है।
तान्दुला
दुर्ग जिले में बालोद के पास बना विशाल बांध है। जिसका निर्माण तान्दुला नदी पर हुआ है।
मल्हार
बिलासपुर जिले में स्थित पुरातात्विक महत्व का यह ग्राम है। उत्खनन से प्राप्त देउरी मन्दिर, पातालेश्वरी मन्दिर, डिंडेश्वरी मन्दिर यहां पर उल्लेखनीय हैं। देश की प्राचीनतम चतुर्भुज विष्णु प्रतिमा भी यहां देखने को मिलती है।
तालागाँव
छत्तीसगढ़ के प्रमुख पुरातात्विक स्थल में से एक तालाग्राम बिलासपुर से 30किलोमीटर दूर मनियारी नदी के तट पर अवस्थित है। देवरानी-जेठानी मन्दिर के अलावा यहां विष्णु की एक विलक्षण प्रतिमा प्राप्त हुई है, जिसके प्रत्येक अंग में जलचर, नभचर व थलचर प्राणियों को दर्शाया गया है।

खूंटाघाट
बिलासपुर से तकरीबन 40 किलोमीटर दूर खारंग नदी पर बना विशाल बांध है। जिसके बीचो-बीच एक टापू स्थित है। यह एक पिकनिक स्थल है।
मैनपाट
इसे छत्तीसगढ़ का शिमला कहा जाता है। यह सरगुजा जिले में स्थित एक पठार है। यह प्राकृतिक रूप से अत्यधिक समृद्ध है। तिब्बती शरणार्थियों के एक बड़े समुदाय को यहां सन् 1962 में बसाया गया है।
चांग-भखार
सरगुजा जिले में स्थित चांग-भखार कलचुरी व चौहानकालीन मठों व मन्दिर के पुरावशेषों के लिये प्रसिद्ध है।
मंडवा महल
भोरमदेव से आधा किलोमीटर दूर चौराग्राम के पास पत्थरों से निर्मित शिव मन्दिर है। यह 14वीं शताब्दी का जीर्ण-शीर्ण मन्दिर है। इसकी बाह्य दीवारों पर मैथुन मूर्तियां बनी हुई हैं।11 वीं सदी का चन्देल शैली में बना भोरमदेव मन्दिर अपने उत्कृष्ट शिल्प एवं भव्यता की दृष्टि से उच्च कोटि का है। भोरमदेव के प्राचीन मन्दिर इतिहास, पुरातत्व एवं धार्मिक महत्व के स्थल हैं। चारों ओर से सुरम्य पहाड़, नदी एवं वनस्थली की प्राकृतिक शोभा के मध्य स्थित यह मन्दिर अगाध शांति का केन्द्र है। इस मन्दिर का निर्माण नागवंशी राजा रामचन्द्र ने कराया था। भोरमदेव मन्दिर को उत्कृष्ट कला शिल्प एवं भव्यता के कारण छत्तीसगढ़ का खजुराहों कहा जाता है।

खैरागढ़
राजनांदगांव जिले में स्थित है। यहां एशिया का एकमात्र कला व संगीत विश्वविद्यालय स्थित है। जहां संगीत एवं कला की शिक्षा दी जाती है।
रुद्री
धमतरी से 12 किलोमीटर दूर गंगरेल बांचध के पास बना बांध है। जिसका निर्माण महानदी पर हुआ है। इसे कांकेर नरेश राजा रुद्रदेव ने बनवाया था। यह कबीर पंथीयों का धार्मिक स्थल है। यहां का कुद्रेश्वर महादेव यज्ञ मन्दिर प्रसिद्ध है।
कोरबा
यहां पर भारत का सबसे बड़ा ताप विद्युत गृह एवं एल्युमीनियम का कारखाना स्थित है।
बैलाडीला
बस्तर जिले में स्थित बैलाडीला की खदानें विश्व प्रसिद्ध हैं। यहां का लोहा जापान को निर्यात किया जाता है।