सौरभ तिवारी
एक बार फिर केंद्र सरकार और विपक्ष आमने-सामने हैं। इस बार वजह बने हैं गृहमंत्री अमित शाह की ओर से संसद में पेश किए गए वो तीन विधेयक जिसमें पांच साल या उससे अधिक की सजा वाले आपराधिक मामलों में तीस दिन तक जेल में रहने पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों को उनके पद से हटाने का प्रावधान है। सत्ता पक्ष इसे लोकतंत्र में शुचिता और नैतिकता की प्रतिस्थापना करने वाला कदम बता रहा है तो विपक्ष को इन विधेयकों में उनकी राज्य सरकारों को अस्थिर करने की साजिश नजर आ रही है।
विपक्ष की दलील है कि इन विधेयकों का प्रावधान न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के खिलाफ है। इस सिद्धांत के हवाले से सवाल उठाया जा रहा है कि किसी के खिलाफ आरोप साबित हुए बिना उसे दोषी मानकर सजा देना कहां का न्याय है? इन संविधान संशोधन विधेयकों के खिलाफ एक व्यवहारिक दलील ये भी दी जा रही है कि जब जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत दागी नेताओं के लिए दो साल की सजा मुकर्रर होने पर उनको पद से हटाने का प्रावधान है तो फिर जेल में महज 30 दिन गुजारने पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री स्तर के जनप्रतिनिधि की कुर्सी छीन लेना कितना उचित है? यही वो आपत्ति है जिसकी वजह से विपक्ष इन विधेयकों को विपक्षी राज्य सरकारों को गिराने के हथकंडे के तौर पर देख रहा है।
वैसे इन विधेयकों का दुरुपयोग करके विपक्षी राज्य सरकारों को गिराने की आशंकाओं को खारिज नहीं किया जा सकता। जिस तरह विपक्षी दलों के प्रमुख राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेताओं के खिलाफ मुकदमें चल रहे हैं, उसके मद्देनजर उनको न्यायिक रिमांड पर जेल में भेजने की साजिश रचे जाने की आशंका निराधार नहीं है। अपनी कुर्सी बचाने के लिए 30 दिन के अंदर ही जमानत हासिल कर पाने की बाध्यता को पार कर पाना भी इतना आसान नहीं होगा।
लेकिन सवाल उठता है कि आखिर सरकार को इन विधेयकों को लाकर संविधान में संशोधन करने जैसा कदम उठाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? दरअसल संविधान निर्माताओं को तब ये भान नहीं रहा होगा कि आजादी के अमृत महोत्सव कालखंड में अरविंद केजरीवाल के रूप में देश में एक ऐसा मुख्यमंत्री अवतरित होगा जो तिहाड़ जेल में रहते हुए भी संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करेगा। केवल मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि उनके दो मंत्री और दूसरे जनप्रतिनिधि भी उनके बताए मार्ग का अनुसरण करते हुए पूरी ठसक के साथ जेल से अपना-अपना कार्यभार संभालेंगे। जबकि ये वही लोग थे जो तब रामलीला मैदान से तब के मंत्रियों को आरोप लगते ही अपना पद छोड़ देने की नसीहती हुंकार भर रहे थे।
अपनी नई राजनीति से नया इतिहास गढ़ने का वादा/दावा करके सत्ता में आने वाले अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री रहते हुए जेल जाने वाला पहला राजनेता बनकर वाकई इतिहास रच दिया। इससे पहले भी देश में कई मुख्यमंत्री और मंत्री हुए, जो जेल गए। लेकिन उन्होंने इतनी नैतिकता तो कायम रखी कि जेल जाने से पहले अपनी कुर्सी त्याग दी। जनमानस से जब केजरीवाल एंड कंपनी की इस ढिठाई के खिलाफ आवाज उठी तो आम आदमी पार्टी ने उतनी ही ढिठाई से ये कहकर इस्तीफा देने से इंकार कर दिया कि संविधान में तो ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है।
जान पड़ता है कि केजरीवाल एंड कंपनी की इसी धृष्टता भरी दलील को दुरुस्त करने के लिए केंद्र सरकार की ओर ये विधेयक लाया गया है। लेकिन कैसी विडंबना है कि इन विधेयकों का विरोध वो पार्टी भी कर रही है जिसके युवराज ने कभी राजनीतिक शुचिता की बहाली के नेक इरादे को दिखाते हुए अपने ही प्रधानमंत्री के उस विधेयक के ड्राफ्ट को सरेआम फाड़ दिया था जो कथित तौर पर लालू प्रसाद यादव जैसे दागी नेताओं को बचाने के मकसद से तैयार किया गया था। वक्त-वक्त की बात है। आज वही राहुल गांधी लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी के साथ जुगलबंदी करके अपनी खोई जमीन हासिल करने की जुगत में जुटे हैं।
दरअसल जेल जाने की वजह से मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवाने की चिंता सबसे ज्यादा उन परिवारवादी पार्टियों को हो रही है, जिनके पास खुद उनके या फिर उनके परिवार के सदस्यों के अलावा मुख्यमंत्री पद का कोई दूसरा विकल्प नहीं रहता। इस लिहाज से देखा जाए तो भाजपा, कांग्रेस और वामपंथी दलों जैसी कैडर बेस पार्टियों को इस विधेयक के प्रावधानों पर चिंतित नहीं होनी चाहिए। आखिर पांच साल या उससे ज्यादा की सजा जैसे गंभीर मामलों के आरोपी को मुख्यमंत्री बनाए रखने की क्या मजबूरी है? क्योंकि ये विधेयक तो आरोपी मुख्यमंत्री को सत्ता से हटाने की बात करते हैं ना कि उसकी पार्टी को। पार्टियों के पास अपने आरोपी मुख्यमंत्री को हटाकर किसी दूसरे नेता को सत्ता सौंप देने जैसा सरल सा विकल्प मौजूद है।
इन विधेयकों को लेकर मचे सियासी घमासान के बीच लोगों के जेहन में एक सवाल जरूर उठता है कि जब किसी सरकारी सेवक के महज 24 घंटे की जेल यात्रा की वजह से उसको पद से हटाने का कानूनी प्रावधान है तो फिर मंत्री जैसे आला लोकसेवको को 30 दिन जेल में गुजारने के बाद भी कुर्सी पर बैठे रहने की संवैधानिक इजाजत क्यों दी जाए? आरोप सिद्ध होने तक किसी को दोषी नहीं ठहराने के जिस नैसर्गिक न्याय सिद्धांत का हवाला देकर लोकसेवकों को कुर्सी से हटाने पर आपत्ति जताई जा रही है क्या वही सिद्धांत सरकारी सेवकों पर लागू नहीं होता?
(लेखक IBC24 में डिप्टी एडिटर हैं।)