IBC Open Window: संघ के होसबोले ने मोदी से इशारों में होश में आने को कहा है, यूपीए जैसा न हो हाल, समय रहते चेताया, मुद्दा बनने के बाद कुछ न रहेगा हाथ

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  • Publish Date - July 25, 2022 / 05:54 PM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 07:01 AM IST

Barun Sakhajee
Asso. Executive Editor, IBC24

बरुण सखाजी, सह-कार्यकारी संपादक, आईबीसी24

अपनी लगातार जीतों में खोई  भाजपा अपने मूलभूत आर्थिक विमर्श को भूल गई है। सत्तर-अस्सी के दशक में जनसंघ के जेंडे में आम आदमी से लेकर खास आदमी तक की जद में भोजन की थाली रहती थी। जनसंघ के प्रमुख चुनावी मुद्दों में वादे होते थे, सरकार आती है तो खाद्य वस्तुओं की कीमतों में गिरावट लाएंगे। मूलतः संघ की प्रयोगशाला से उदारवाद के पहले तक का अर्थ विमर्श यही था। इसमें कहा जाता था कि खाने-पीने की चीजें सबके लिए सुलभ और सस्ती होनी चाहिए। यह विचार यूपीए के खाद्य सुरक्षा का ही रूपांतरण था।

लेकिन नए भारत की नई भाजपा में खाद्य पदार्थों की कीमतों पर कोई  ध्यान नहीं दिया जा रहा। तभी संघ के सहकार्यवाह होसबोले को कहना पड़ता है कि आम आदमी की जद में रहें खाने-पीने की चीजें। इसका मतलब साफ है कि भाजपा को यह नसीहत है। आगामी चुनावी 2024 में होंगे, लेकिन मोदी सरकार फिलवक्त तक इस दिशा में कठोर कदम उठाते हुए दिख नहीं रही। खाद्य पदार्थों की कीमतें ऊंची होने का मतलब बहुत अधिक प्रभावित करता है। आम आदमी को भोजन संकट हो जाने से वे अपने खर्च और आय के बीच तालमेल नहीं बिठा पाते। भाजपा को इसका चुनावी नुकसान भले न हो रहा हो, लेकिन लोगों को दीर्घकाल में इसका नुकसान जरूर होता है। फिलवक्त यह कह सकते हैं कि खाद्य पदार्थों की कीमतें अब तक की किसी भी सरकार ने कम करने की दिशा में कोई पहल नहीं की है, इसलिए इसके लिए मोदी  अकेले दोषी नहीं हैं। परंतु इतने ऐतिहासिक कैल्कुलेशन से लोग नहीं सोच सकते।

भारत के सामान्य नागरिक को भोजन की चिंता न रहे तो इनकी रचनात्मकता में वृद्धि हो सकती है। जबकि पश्चिमी अर्थ-विचारों में भारी आसामान्य है। वे मानते हैं कि महंगाई बढ़ती अर्थव्यवस्था के साइडइफैक्ट्स हैं। यह किसी वस्तु में रोककर बाकियों में जारी नहीं रह सकती। अगर किसी भी वस्तु के दाम बढ़ते हैं तो सभी वस्तुओं के दाम बढ़ते हैं। क्योंकि मौजूदा विश्व अर्थव्यवस्था की बनावट और बुनावट इसी तरह की है। भारत की प्राचीन अर्थव्यवस्था की बुनावट और बनावट ऐसी  नहीं थी। उसके अनुरूप खाद्य पदार्थों की कीमत को नियंत्रित रखा जा सकता था। लेकिन इसका दुष्प्रभाव दूसरी चीजों पर पड़ता। क्योंकि उस दौर में सबसे बड़ा उत्पादक और जेनरेटर किसान ही था। किसान सबसे ज्यादा खाद्य पदार्थों का उत्पादन करता है। ऐसे में अगर खाद्य पदार्थ सस्ते होंगे तो किसान के पास धनाभाव होगा। जब किसान के पास धनाभाव होगा तो पूरी अर्थव्यवस्था में  धन संकट रहेगा।

यह सीधी-सीधी बात लगती जरूर है, लेकिन है नहीं। अर्थव्यवस्था में धनाभाव का अर्थ अर्थव्यवस्था का डूब जाना नहीं होता था। लेकिन नवयुगीन अर्थव्यवस्था में इसका अर्थ यही निकलता है। भारत की प्राचीन अर्थव्यवस्था में ऐसे प्रबंध होते थे, जिससे किसी पर भी बोझ नहीं आता था। यह नगदी प्रधान न होकर मूल्य प्रधान थी। यानी दाम सदा ही नगदी में नहीं होते थे। वस्तु विनिमय अधिक था। चूंकि हमने अवसंरचना पश्चिमी ले रखी है तो इसमें प्राचीन भारत की अवसंरचना के अनुसार व्यवहार नहीं हो सकता। संघ या जनसंघ या भाजपा कुछ भी कर लें, मगर महंगाई या खाद्य वस्तुओं के दामों में गिरावट नहीं हो सकती।

तब क्या होसबोले सिर्फ मोदी सरकार को आंखें दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। यह राजनीतिक सवाल और विचार हो सकता है। वास्तव में होसबोले ने सिर्फ आगाह किया है। भाजपा और मोदी की सरकार के लिए यह एक आवश्यक मुद्दा होना चाहिए। क्योंकि चुनावी लोकतंत्र में मुद्दों को समय रहते पहचान लेना ही समझदारी है, वरना सब हाथ से निकल जाए तो दोबारा हाथ आता नहीं। सबसे अच्छा उदाहरण मनमोहन सरकार को मान सकते हैं। भ्रष्टाचार होता था, लेकिन भ्रष्टाचारी को हटाया भी जाता था। जब भी घोटाले हुए कार्रवाइयां हुईं। जांचें होती रहीं। सजा व कोर्ट कचहरी, गिरफ्तारी आदि सब चलता रहा, लेकिन भ्रष्टाचार ऐसा मुद्दा बना कि यूपीए की 10 साल पुरानी सरकार लाख कोशिशों के बावजूद ताश के पत्तों जैसी बिखर गई। इतना ही नहीं इस आंधी में एक नई पार्टी भारत में पैदा हो गई, जिसे आम आदमी पार्टी कहा गया।

ऐसे ही हालात मोदी सरकार के न हों। होसबोले सिर्फ इस दिशा में ध्यानाकर्ण करना चाहते हैं। इसका मायना यह हुआ कि संघ चाहता है महंगे होते खाद्य पदार्थों पर मोदी सरकार तत्काल ध्यान दे। मुद्दा बननने के बाद ध्यान देने से कोई अर्थ नहीं निकलेगा।