पाकिस्तानी सियासी हाल से हमारी सरकार सीखे और भारत के लोग भी |

पाकिस्तानी सियासी हाल से हमारी सरकार सीखे और भारत के लोग भी

पाकिस्तान विभिन्न दलों के विभाजन, संयोजन, गठन, पुनर्गठन, अवसान, उत्थान आदि का भी गवाह है, लेकिन किसी दल पर श्रद्धा नहीं देखी। इससे पाकिस्तान में रीलिजियस डोमिनेंस अधिक नजर आया। Our government should learn from the Pakistani political situation and the people of India too

Edited By :   Modified Date:  November 29, 2022 / 08:19 PM IST, Published Date : April 4, 2022/2:58 pm IST

बरुण सखाजी

रायपुर, 4 अप्रैल। पाकिस्तान के सियासी चक्रव्यूह और मुल्क की दुर्दशा से भारत को जरूर बहुत कुछ सीखना चाहिए। इसमें यह तुर्रा ठीक नहीं कि भारत बहुत बड़ा और मजबूत देश है तो पाकिस्तान से क्यों सीखे? सीखना कहीं से भी अच्छा ही होता है। पाकिस्तान ने अपने 75 वर्षों में 22 प्रधानमंत्री देखे हैं, लेकिन राजनीतिक स्थिरता उसे नसीब नहीं हो सकी। पाकिस्तान विभिन्न दलों के विभाजन, संयोजन, गठन, पुनर्गठन, अवसान, उत्थान आदि का भी गवाह है, लेकिन किसी दल पर श्रद्धा नहीं देखी। इससे पाकिस्तान में रीलिजियस डोमिनेंस अधिक नजर आया। एक इस्लामिक स्टेट होने के नाते रीलिजियस डोमिनेंस कोई अचरज की बात नहीं है। अरब देश इस्लामिक स्टेट होकर भी अन्य के लिए सुरक्षित हैं। दो तरह का डोमिनेंस होता है, एक तो सिर्फ दखल दूसरा रचनात्मक दखल। पाकिस्तान में इनमें से पहला अधिक है, दूसरा कोसों नहीं दिखाई देता। रचनात्मक दखल भारत की पूर्ववर्ती व्यवस्थाओं में नजर आता है। इससे यह सिद्ध होता है कि धार्मिक दखल सदा ही खराब नहीं होता। लेकिन पाकिस्तान जैसा रीलिजिएस डोमिनेंस खतरनाक है।

 

इमरान खान जैसे लोग पाकिस्तान की धरोहर होने चाहिए, क्योंकि वह एक ऐसे शख्स के रूप में जाने जाएंगे, जिन्होंने भारत के प्रति हर वक्त पनपाई गई घृणा को अपने पूर्ववर्तियों की तरह और अधिक नहीं बढ़ाया। पाकिस्तान के आर्थिक, सामरिक हालातों में मेल बिठाने की कोशिश की। पाकिस्तान भस्मासुर की तरह भारत के पीछे पड़ा है। इमरान ने आकर इस तकनीकी बात को समझा, उसके हिसाब से रणनीतिक बदलाव करने की कोशिश की। अमेरिकी मोहनी रूप को समझा। अपनी तोप का मुंह तो उन्होंने भारत की तरफ ही रखा, लेकिन इसमें गोले उतने ही डाले जो पाकिस्तान में चुनाव जीतने के लिए चाहिए। भारत के पक्ष में खड़े हुए न दिख पाएं, बस यही कोशिश रही। नतीजतन भारत में बैठी मोदी सरकार को भी पाकिस्तानी पर अपनी बढ़त बनाने का मौका मिला। रणनीतिक स्तर पर इमरान ने कोशिश की है कि भारत उन पर जनता की नजरों में हावी न दिखे। इसके लिए वे बीच-बीच में भारत को समझाइश और भभकियां देते रहे हैं। मगर यह भभकियां भयानक नहीं रही। कश्मीर में धारा 370 खत्म करके भारत ने उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाया और भारतीयों में पीओके वापस लेने की चर्चा शुरू की। तब भी इमरान बौखलाए नहीं। वे बोलते तो रहे भारत के विरुद्ध मगर कुछ किया नहीं। इसकी एक वजह भारत का आक्रामक रुख तो है ही, लेकिन यह रुख लाजिमी है। चूंकि भारत पाकिस्तान से हर चीज में बीसियों गुना बड़ा है। इमरान ने इसे अपनी जनता के बीच न्यू नॉर्मल जैसा बनाने की अघोषित कोशिश की। ये जो न्यू नॉर्मल है यही भारत-पाकिस्तान रिश्तों की बुनियाद बन सकता है। उस कालखंड में और अधिक आशा की किरण जागती है जब भारत में एक बड़े भाई की भूमिका में दिखने वाली सरकार हो और पाकिस्तान में मजहबी आधार पर बनाई गई सियासी जमातों को पाकिस्तानी आवाम ने खारिज कर दिया हो। साल 2018 के पाकिस्तानी जनरल असेंबली के नतीजे इसका प्रमाण हैं। संभवतः पाकिस्तान भी मदरसा, तकरीर, मजहबी जमात, मजहबी जहरीले धर्मुगुरुओं आदि से आजिज आ रहा है। इमरान के कार्यकाल को भारत इस तरह से देखे कि इस दौरान देश में अच्छा कुछ होने का माहौल तो कमसकम बना ही है।

अब भारत की जनता और भारत की सरकार पाकिस्तान से वह सीखे जो मैं बताने जा रहा हूं। जिस तरह से इमरान जैसी पाक-साफ और पारदर्शिता से काम कर रही सरकार को वहां के तमाम सियासी दलों ने उलझाया, लोगों को भरमाया और अस्थिर किया, वह भारत में भी हो रहा है। कोशिशें जारी हैं, लेकिन स्पष्ट ही नहीं बल्कि प्रचंड बहुमत से आ रही सरकारें इस साजिश को नाकाम कर रही हैं। पाकिस्तान में अभी स्पष्ट बहुमत दूर की कौड़ी है। भारत को यह पाकिस्तान के सियासी हालात से जरूर सीखना चाहिए कि वह अपने यहां ऐसे राजनीतिक हालात न बनने दे। सीधे तौर पर कहें तो सरकारों से विपक्ष के सवाल अलग बात होते हैं, लेकिन सरकारों पर गैरजिम्मेदाराना हमले अलग। चुनावी लोकतंत्र में सरकारों का आना-जाना आम बात होनी चाहिए, किंतु सत्ता की इस कदर भूख कि किसी और को बर्दाश्त ही न किया जा सके, सर्वथा हानिप्रद है। इसलिए भारत की जनता भी यह सीख ले। वह अपने चयन में जिसे भी चुने स्पष्ट और मजबूत बहुमत के साथ चुनती रहे। खिचड़ी सरकारों का महाभुक्तभोगी भारत भी कम नहीं रहा। कइयों इतिहास में ऐसे राजनेता जीवनभर सुस्पष्ट विजन और दृष्टि लिए हुए अपनी आयु खपा गए लेकिन उन्हें अवसर नहीं मिल सका। इन प्रतिभाओं को मौके मिलते तो तस्वीर दूसरी हो सकती थी। अबकी ऐसा भारत में न होने पाए। यही समानांतर भारत की सरकार को भी सीखना होगा कि धर्म की आड़ में नफरतों की दुकानें कहीं अधिक तो नहीं खुल रही। कहीं यह दुकानें बहुत ज्यादा सत्ता प्रतिष्ठानों पर हावी तो नहीं हो रही। इनका चुनावी इस्तेमाल हद तक तो नहीं हो रहा?

बरुण सखाजी

 

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