विनोद कुमार शुक्ल : वह आदमी नया गरम कोट पहिन कर चला गया विचार की तरह

विनोद कुमार शुक्ल : वह आदमी नया गरम कोट पहिन कर चला गया विचार की तरह

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  • Publish Date - December 23, 2025 / 07:23 PM IST,
    Updated On - December 23, 2025 / 07:23 PM IST

रायपुर, 23 दिसंबर (भाषा) अपने काव्य संग्रह और उपन्यासों से हिंदी पाठकों को हर बार चकित करने वाले विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी संवेदनशील एवं ‘‘जादुई यथार्थ’’ के आसपास वाली लेखन शैली से साहित्य जगत में एक विशिष्ट स्थान बनाया था। भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार एवं साहित अकादमी जैसे शीर्षस्थ पुरस्कार प्राप्त करने के बावजूद उनकी लिखने की ललक तनिक भी कम नहीं हुई थी।

छत्तीसगढ़ के इस प्रसिद्ध साहित्यकार का मंगलवार शाम निधन हो गया। वह 89 वर्ष के थे।

शुक्ल ने अपनी उपन्यास त्रयी ‘‘नौकर की कमीज’’, ‘‘खिलेगा तो देखेंगे’’ और ‘‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’’ के माध्यम से हिंदी साहित्य जगत में एक ऐसी जमीन तोड़ी जिसके कारण वह समालोचकों ही नहीं पाठकों के भी रातों रात पसंदीदा रचनाकार बन गये।

शुक्ल को 59 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनकी स्वास्थ्य स्थिति को देखते हुए उनके रायपुर स्थित निवास पर आयोजित एक समारोह में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था।

इस वर्ष एक नवंबर को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने छत्तीसगढ़ का दौरा किया था तब उन्होंने शुक्ल और उनके परिवार से बात की थी तथा उनके स्वास्थ्य और कुशलक्षेम के बारे में जानकारी ली थी। शुक्ल पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे और अस्पताल में भी भर्ती रहे थे।

छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में एक जनवरी 1937 को जन्मे विनोद कुमार शुक्ल हिंदी साहित्य के ऐसे रचनाकार थे, जो बहुत धीमे बोलते थे, लेकिन साहित्य की दुनिया में उनकी आवाज बहुत दूर तक सुनाई देती थी। उन्होंने मध्यमवर्गीय, साधारण और लगभग अनदेखे रह जाने वाले जीवन को शब्द देते हुए हिंदी में एक बिल्कुल अलग तरह की संवेदनशील, न्यूनतम और जादुई दुनिया रची।

उनका पहला कविता संग्रह ‘लगभग जय हिन्द’ 1971 में आया और वहीं से उनकी विशिष्ट भाषिक बनावट, चुप्पी और भीतर तक उतरती कोमल संवेदनाएं हिंदी कविता में दर्ज होने लगीं। उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ (1979) ने हिंदी कथा-साहित्य में एक नया मोड़ दिया, जिस पर मणि कौल ने फिल्म भी बनाई है।

शुक्ल को साहित्य अकादमी पुरस्कार, गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, रज़ा पुरस्कार, शिखर सम्मान, राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, हिंदी गौरव सम्मान और 2023 का पैन-नाबोकोव जैसे पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया था।

शुक्ल छत्तीसगढ़ के उन लेखकों में से एक थे जिन्होंने राज्य के महान साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और गजानंद माधव मुक्तिबोध की परंपरा को आगे बढ़ाया था। शुक्ल पिछले पिछले पांच दशक से भी अधिक समय से लगातार लिख रहे थे और लिखते जा रहे थे।

अपने अंतिम दिनों में जब वह अस्पताल में भर्ती थे तब भी उनके करीब कागज और कलम ही हुआ करता था। उनके पुत्र शाश्वत के मुताबिक अस्पताल में शुक्ल को ऑक्सीजन दिया जा रहा था और इसी हालत में उनका लेखन कार्य भी जारी था।

इस वर्ष सितंबर माह में रायपुर में चौथे हिंद युग्म महोत्सव के दौरान शुक्ल को 30 लाख रुपए की रॉयल्टी का प्रतीकात्मक चेक दिया गया था जो चर्चा को विषय बन गया था।

महोत्सव में शुक्ल ने कहा था कि व्यक्ति जितना स्थानीय होगा, उतनी ही वैश्विकता उसके भीतर होगी और इसीलिए अपनी स्थानीयता और बचपन की स्मृतियों को संभालकर रखना चाहिए।

अपने घर से बाहर यह शुक्ल का अंतिम सार्वजनिक कार्यक्रम था।

बाद में 21 नवंबर को उनके घर पर ही उन्हें हिंदी का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया।

इस दौरान शुक्ल ने कहा था, ”जब हिन्दी भाषा सहित तमाम भाषाओं पर संकट की बात कही जा रही है, मुझे पूरी उम्मीद है नई पीढ़ी हर भाषा का सम्मान करेगी। हर विचारधारा का सम्मान करेगी। किसी भाषा या अच्छे विचार का नष्ट होना, मनुष्यता का नष्ट होना है।”

शुक्ल ने कहा था, ”मुझे बच्चों, किशोरों और युवाओं से बहुत उम्मीदें हैं। मैं हमेशा कहता रहा हूं कि हर मनुष्य को अपने जीवन में एक किताब जरूर लिखनी चाहिए। अच्छी किताबें हमेशा साथ होनी चाहिए। अच्छी किताब को समझने के लिए हमेशा जूझना पड़ता है। किसी भी क्षेत्र में शास्त्रीयता को पाना है तो उस क्षेत्र के सबसे अच्छे साहित्य के पास जाना चाहिये।”

मध्यप्रदेश के जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय से कृषि विज्ञान में एम.एससी की डिग्री हासिल करने के बाद शुक्ल ने अध्यपान कार्य को व्यवसाय के रूप में चुना। इस दौरान उनका लेखन कार्य भी जारी रहा। उनका पहला कविता-संग्रह ‘लगभग जयहिन्द’ का प्रकाशन 1971 में हुआ था। इसके बाद वह लगातार लिखते गए।

शुक्ल के काव्य संग्रहों में ‘लगभग जयहिंद’, ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह’ और ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’’ काफी चर्चित रहे। उनकी कई कृतियों का देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनकी बाल साहित्य में भी रूचि थी।

साल 2023 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय साहित्य में उपलब्धि के लिए 2023 के पेन/नाबोकोव पुरस्कार के लिए चुना गया था। वह भारतीय एशियाई मूल के पहले लेखक थे, जिन्हें इस सम्मान से नवाजा गया था।

भाषा संजीव माधव नरेश

नरेश