शीर्ष अदालत ने दाऊदी बोहरा समुदाय में बहिष्कार की प्रथा के मुद्दे को नौ न्यायाधीशों की पीठ को भेजा

शीर्ष अदालत ने दाऊदी बोहरा समुदाय में बहिष्कार की प्रथा के मुद्दे को नौ न्यायाधीशों की पीठ को भेजा

शीर्ष अदालत ने दाऊदी बोहरा समुदाय में बहिष्कार की प्रथा के मुद्दे को नौ न्यायाधीशों की पीठ को भेजा
Modified Date: February 10, 2023 / 01:43 pm IST
Published Date: February 10, 2023 1:43 pm IST

नयी दिल्ली, 10 फरवरी (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने दाऊदी बोहरा समुदाय में बहिष्कार की प्रथा के मुद्दे को शुक्रवार को नौ-न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ के पास भेज दिया।

पिछले साल 11 अक्टूबर को, संविधान पीठ ने इस मुद्दे पर अपना आदेश सुरक्षित रख लिया था कि याचिका को एक बड़ी पीठ के पास भेजा जाए या नहीं। वह इस मुद्दे पर विचार कर रहा था कि क्या कई देशों में फैले 10 लाख से अधिक लोगों वाले इस मुस्लिम समुदाय को अपने असहमत सदस्यों को बहिष्कृत करने का अधिकार है।

आज, न्यायमूर्ति एस के कौल के नेतृत्व वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि केरल के सबरीमला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं और लड़कियों को प्रवेश की अनुमति देने वाले 2018 के फैसले से संबंधित मामले में नौ न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ विचार कर रही है।

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जनवरी 2020 में नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट कर दिया था कि वह 2018 के फैसले की समीक्षा के अनुरोध वाली दलीलों पर सुनवाई नहीं कर रही है और इसके बजाय वह बड़े मुद्दों पर गौर करेगी, जिसमें यह भी शामिल है कि ‘विशेष धार्मिक प्रथाओं’ में अदालतें किस हद तक हस्तक्षेप कर सकती हैं। उसने कहा था कि वह इस मामले में पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा उसे सौंपे गए मुद्दों पर ही विचार करेगी।

पांच न्यायाधीश की पीठ ने 3:2 के बहुमत से पहले सात मुद्दों को बड़ी पीठ के पास विचार के लिए भेजा था।

इससे पहले, सितंबर 2018 में, शीर्ष अदालत ने 4:1 के बहुमत के फैसले में 10 से 50 वर्ष की आयु के बीच की महिलाओं और लड़कियों को सबरीमला में प्रसिद्ध अयप्पा मंदिर में प्रवेश करने से रोकने वाले प्रतिबंध को हटा दिया था और कहा था कि सदियों पुरानी हिंदू धार्मिक प्रथा अवैध और असंवैधानिक है।

दाऊदी बोहरा समुदाय के मुद्दे पर, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति ए एस ओका, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति जे के माहेश्वरी की पीठ ने अक्टूबर 2022 में कहा था, ‘यह तथ्य कि यह मामला 1986 से लंबित है, हमें परेशान करता है… हमारे सामने विकल्प यह है कि हम सीमित मुद्दे का निर्धारण करें जो हमारे सामने है, या इसे नौ न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजा जाए।’’

पीठ को पहले बताया गया था कि बंबई बहिष्कार रोकथाम कानून 1949 निरस्त कर दिया गया है और महाराष्ट्र सामाजिक बहिष्कार से लोगों का संरक्षण (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2016 प्रभावी हो गया है।

पीठ को बताया गया था कि 2016 के कानून की धारा तीन में समुदाय के एक सदस्य का 16 प्रकार से सामाजिक बहिष्कार किए जाने का उल्लेख है और धारा चार में कहा गया है कि सामाजिक बहिष्कार निषिद्ध है और ऐसा करना अपराध है। इसके तहत सज़ा का प्रावधान है। इन 16 में से एक प्रकार समुदाय से किसी सदस्य के निष्कासन से संबंधित है।

उक्त अधिनियम में कहा गया है कि अपराध के दोषी व्यक्ति को कारावास, जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माने से जो 1 लाख रुपये तक हो सकता है, या दोनों से दंडित किया जाएगा।

शीर्ष अदालत की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1962 में फैसला सुनाया था कि बंबई बहिष्कार रोकथाम कानून 1949, संविधान के अनुरूप नहीं है।

बाद में, 1986 में एक याचिका दायर करके 1962 में सरदार सैयदना ताहिर सैफुद्दीन साहेब बनाम बंबई राज्य के मामले में दिए गए फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया गया था।

भाषा अमित नरेश

नरेश


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