Whose game will vote-cutting parties spoil in Chhattisgarh this time?

बतंगड़ः इस बार किसके लिए आइसबर्ग साबित होंगे वोटकटवा दल?

Batangad : निदा फाजली के मशहूर गीत की पंक्ति- 'दो और दो का जोड़ हमेशा, चार कहां होता है' की तरह ही सियासत में भी वोटों और सीटों का जोड़

Edited By :   Modified Date:  October 25, 2023 / 08:24 PM IST, Published Date : October 25, 2023/7:56 pm IST

सौरभ तिवारी

निदा फाजली के मशहूर गीत की पंक्ति- ‘दो और दो का जोड़ हमेशा, चार कहां होता है’ की तरह ही सियासत में भी वोटों और सीटों का जोड़ अनपेक्षित होता है। कई दफा सियासी समीकरण का फलितार्थ वो नहीं होता जो सरसरी तौर पर नजर आता है। सियासत भी ठीक उस आइस बर्ग की तरह है जिसका केवल कुछ हिस्सा ही सतह पर नजर आता है और बाकी का बड़ा हिस्सा अटकलों और आकलन से परे होता है। ये आइसबर्ग इतना खतरनाक होता है कि टाइटैनिक जैसे विशालकाय जहाज को डुबा सकता है। छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में भी काफी कुछ गतिविधियां सतह के नीचे चल रही हैं, जिसके प्रभावों का आकलन चुनाव के बाद जरूर किया जाएगा। सियासी जानकार बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में अघोषित तीसरा मोर्चा के दल इस आइसबर्ग की भूमिका निभा सकते हैं।

यूं तो छत्तीसगढ़ में हमेशा से सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही रहता आया है, लेकिन जीत-हार में यहां के तीसरे दल भी अपनी भूमिका निभाते आ रहे हैं। छ्त्तीसगढ़ बनने के बाद 2003 में हुए पहले चुनाव में तब की सत्ताधारी दल कांग्रेस की जीत तय नजर आ रही थी। लेकिन तब विद्याचरण शुक्ल की राकांपा और बसपा के गठबंधन ने कांग्रेस के वोटों में इतनी तगड़ी सेंघमारी की, कि अजीत जोगी को सत्ता गंवानी पड़ गई। तब राकांपा ने 7.02 फीसदी वोट हासिल करके एक सीट जीती थी जबकि बसपा ने महज 4.5 फीसदी वोट के जरिए 2 सीटें हथिया ली थी। उस चुनाव में कांग्रेस और भाजपा से इतर दूसरे सभी दलों ने करीब 19 फीसदी वोट हासिल किए थे। ये वोट ही तब भाजपा के 3 फीसदी की मामूली मार्जिन से हासिल हुई जीत का आधार बने थे।

2008 के चुनाव में तो भाजपा और कांग्रेस के बीच जीत का अंतर सिमट कर महज 1 फीसदी से थोड़ा ही ज्यादा रह गया था। तब भाजपा को 40.35 फीसदी और कांग्रेस को 38.63 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन वोट मार्जिन इतना कम रहने के बावजूद सीटों के बीच पर्याप्त अंतर था। भाजपा को 50 जबकि कांग्रेस को 38 सीट मिली थी। तब बसपा को 6.11 फीसदी वोट के साथ 2 सीट मिली थीं। 2013 में हुए छत्तीसगढ़ के तीसरे विधानसभा चुनाव में भी कमोबेश यही कहानी दोहराई गई। बीजेपी ने 41.4 फीसदी वोट पाकर 49 सीटें हासिल की जबकि कांग्रेस ने 40.29 फीसदी वोट जुटाकर 39 सीटों पर कब्जा जमाया। बसपा को 4.27 फीसदी वोट की एवज में एक सीट मिली थी। जबकि तब निर्दलीयों ने 5.3 फीसदी वोट बटोरने के अलावा एक सीट भी जीत ली थी। छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी समेत दूसरे दलों को 9 फीसदी वोट मिले थे।

लेकिन 2018 में कहानी उलट गई। कांग्रेस ने 43.1 फीसदी वोट हासिल करके 67 सीटों पर ऐतिहासिक जीत हासिल की। भाजपा महज 32.8 फीसदी वोट ही हासिल कर सकी, नतीजतन वो 15 सीटों पर आकर सिमट गई। भाजपा के वोट बैंक पर कांग्रेस के अलावा जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ जोगी और बसपा के गठबंधन ने कब्जा जमा लिया। इस गठबंधन ने 11 फीसदी वोट के साथ 7 सीटों पर कब्जा जमाया था। जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जोगी) को 7.4 फीसदी वोट और 5 सीटें जबकि बसपा को 3.7 फीसदी वोट और 2 सीटें मिली थीं। दो और दो का जोड़ हमेशा चार नहीं होता है वाली बात एक बार फिर पिछले चुनाव में सिद्ध हुई थी। जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जोगी) के बारे में ये माना जाता था कि वो कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाएगी लेकिन उसने सत्ताधारी भाजपा के वोटबैंक में सेंधमारी कर दी। सेंध भी इतनी तगड़ी लगाई कि उसके सदमें से भाजपा चार-सवा चार साल तक उबर नहीं पाई। चुनाव के कुछ महीने पहले अब जाकर भाजपा की चेतना वापस लौटी है और देर से ही सही उसने खुद को मुकाबले में ला खड़ा किया है।

पिछले चुनाव में भाजपा की हार के पीछे सबसे बड़ी वजह 15 साल का एंटी इनकम्बेंसी को माना गया था। आम धारणा यही है कि सत्ता विरोधी मतों पर जो पार्टी कब्जा जमाने में सफल हो जाती है, जीत का सेहरा उसी के सर पर सज जाता है। अपने घोषणापत्र में सौगातों का पिटारा खोलकर तब कांग्रेस ने अपने वोटों में महज 2.81 फीसदी का ही इजाफा किया था लेकिन उसकी सीटों में डबल का इजाफा हो गया था। 2013 में कांग्रेस को 40.29 फीसदी वोट से 38 सीटें मिली थीं, लेकिन 2018 में उसने 43.1 फीसदी वोट हासिल करके अपनी सीटें 67 पर पहुंचा दी थी।

सवाल उठता है कि आखिर ये चमत्कार कैसे हुआ था? इस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन एक बात समझने की है कि भाजपा के वोटों में एंटी इनकम्बेंसी लहर ने तगड़ी सेंध लगाई थी। इन वोटों के ज्यादातर हिस्से पर कांग्रेस की बजाए जेसीसीजे और बसपा जैसे तीसरे दल कब्जा जमाने में कामयाब रहे। 2003 में राकांपा और बसपा के गठबंधन ने तब की सत्ताधारी कांग्रेस के वोटों में सेंध लगाकर भाजपा का रास्ता साफ किया था तो 2018 के पिछले चुनाव में जेसीसीजे और बसपा के गठबंधन ने सत्ताधारी दल भाजपा के खिलाफ बने एंटी इनकंबेंसी वोट बैंक में डाका डालकर कांग्रेस को मालामाल कर दिया था। सत्ताधारी दल होने के नाते इस बार यही खतरा/चुनौती कांग्रेस के सम्मुख मौजूद है। हालांकि भाजपा के 15 साल लंबे शासन की एंटी इनकम्बेंसी के मुकाबले कांग्रेस के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर जैसी बात नजर नहीं आती है, लेकिन उसके वोट बैंक पर सेंधमारी का खतरा तो मंडरा ही रहा है। खास बात ये है कि सेंधमारी का ये खतरा हमेशा की तरह इस बार भी तीसरे दलों की ओर से पेश आ रहा है।

छत्तीसगढ़ में भले भाजपा और कांग्रेस से इतर तीसरे दल औपचारिक तौर पर कोई तीसरा मोर्चा बनाकर चुनाव मैदान में नहीं हो, लेकिन ये दल अपने-अपने प्रभाव वाले इलाकों में वोटों की सेंधमारी कर सकते हैं। पंजाब और दिल्ली में सत्ता हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी इस बार अपने अधिकतम संसाधन के साथ चुनाव लड़ने उतरी है। छत्तीसगढ़ में वो सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिसकी तैयारी उसने काफी पहले से शुरू कर दी थी। छत्तीसगढ़ के संदीप पाठक को राज्यसभा सांसद बनाने के साथ उसने अपनी रणनीति को अंजाम देना शुरू कर दिया था। हालांकि छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी से किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती लेकिन वो भाजपा के वोट काटती है या फिर कांग्रेस के, ये देखने वाली बात होगी।

कांग्रेस के लिए असली खतरा बस्तर में पैदा हो सकता है। यहां से सर्व आदिवासी समाज के बड़े नेता अरविंद नेताम ने अपनी ‘हमर राज’ राजनीतिक पाटी बनाकर बस्तर के सियासी समीकरणों को उलझा दिया है। नेताम का बस्तर में ठीक-ठाक असर है। हालांकि उनकी पार्टी की स्थिति वोटकटवा वाली ही रहेगी। सर्व आदिवासी समाज अपनी वोटकटवा ताकत की नुमाइश भानुप्रतापपुर उपचुनाव में कर चुका है। सवाल फिर से वही है कि आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाली ये नई नवेली आखिर वोट किसका काटेगी? आम राय यही है कि कटने वाले ये वोट कांग्रेस के ही होगे।

इसके अलावा अनुसूचित जाति के वोटों पर दावेदारी जताने वाली बसपा इस बार भी चुनावी समीकरणों को प्रभावित करने का जतन कर रही है। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से बसपा को छत्तीसगढ़ से एक-दो सीट मिलती रही हैं। ये सिलसिला आज भी जारी है। बसपा पामगढ़, जैजेपुर, नैला, जांजगीर जैसे गढ़ में जनाधार होने के अलावा एससी वर्ग के लिए आरक्षित सीटों पर भी दखल रखती है। खास बात ये है कि बसपा ने जेसीसीजे से नाता तोड़कर इस बार गोंगपा के साथ गठबंधन कर लिया है। दोनों के बीच सीटों का बंटवारा भी हो चुका है। बसपा 53 और गोंगपा 37 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। हालांकि हीरा सिंह मरकाम के निधन के बाद गोंगपा काफी कमजोर हो गई है, लेकिन कोरबा और सरगुजा के आदिवासी वोटरों में पार्टी का पर्याप्त परंपरागत जनाधार बाकी है।

इधर अजीत जोगी के निधन के बाद खत्म होने की कगार पर पहुंच चुकी जेसीसीजे अपनी बची-खुची ताकत समेट कर इस बार चुनाव लड़ने की कोशिश कर रही है। जोगी के प्रभाव वाले इलाके पेंड्रा, कोटा, मरवाही में पार्टी वोट वटोर सकती है। लेकिन कांग्रेस के सामने एक नई चुनौती अपने ‘छत्तीसगढ़िया’ वोटों में विभाजन को रोकने की पैदा हो गई है। पिछले चुनाव में छत्तीसगढ़ियावाद के नाम पर कांग्रेस को कई सीटों पर फायदा पहुंचाने वाली छत्तीसगढ़ क्रांति सेना इस बार खुद मुकाबले में उतर चुकी है। ‘जोहार छत्तीसगढ़ पार्टी’ के नाम से अस्तित्व में आया ये दल परदेशिया बनाम छत्तीसगढ़िया के नाम पर अपनी सियासत को चमकाने की कोशिश में है। उसकी ये कोशिश कितना परवान चढ़ती है, उसका पता तो नतीजे आने के बाद चल ही जाएगा। कांग्रेस के सामने छत्तीसगढ़िया वोटों के अलावा ईसाई मतदाता वर्ग में भी विभाजन का खतरा पैदा हो गया है। ईसाइयों की संस्था क्रिश्चियन फोरम ने कांग्रेस पर वादाखिलाफी और उनके हितों की अनदेखी का आरोप लगाते हुए सरगुजा और बस्तर के ईसाई प्रभाव वाले इलाकों में अपने उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर दिया है।

हालांकि छत्तीसगढ़ के लोगों ने अब तक ‘तीसरा मोर्चा’ को उसकी ‘हद’ में ही रखा है। इन दलों को इतनी ताकत नहीं दी है कि वो वोटों का बंटवारा करके सत्ता के बंटवारे में अपनी भूमिका निभा सकें। लेकिन ये भी सही है कि वे यहां करीब 20 फीसदी वोट बटोरते आ रहे हैं। छत्तीसगढ़ के चुनाव में ये वोटकटवा तीसरे दल इस बार भाजपा और कांग्रेस में से किसके वोटों की पैदावार काटने में सफल रहते हैं, उसी से यहां की नई सरकार का भविष्य तय होगा।

– लेखक IBC24 में डिप्टी एडिटर हैं।