बरुण सखाजी. सह-कार्यकारी संपादक, आईबीसी24
केंद्रीय बजट से जैसी उम्मीद थी वैसा कुछ हुआ नहीं। लोगों ने सोचा था चुनावों का इस पर व्यापक असर होगा। मीडिया के जरिए विश्लेषक इसे अंतिम पूर्ण बजट मानकर सियासत से जोड़ रहे थे, लेकिन यह सोच बीते दशकों की सिद्ध हुई। मोदी सरकार ने यह साफ समझ लिया है कि बजट जैसा तकनीकी मामला लोगों की जिंदगी पर ऐसा कोई सीधा असर नहीं महसूस कराता, जिससे सरकार के प्रति लोगों में नरमी आए या गरमी। इस मंत्र को समझकर ही मोदी सरकार का यह नौवां पूर्ण बजट पेश किया गया है। राजनीति में सीधे फायदों से ज्यादा यह समझाना अब जरूरी है कि जो नुकसान दिख रहा है वह कैसे आपका फायदा भी है। चूंकि बदला हुआ जन-मानस सूचनाओं से लबरेज है। वह कच्ची सूचनाएं लेकर पक्की राय बनाना सीख चुका है। इसलिए उसे इंटरप्रिटर से ज्यादा इनफॉर्मर की जरूरत है।
लोकलुभावन की परिभाषा अब बदल जानी चाहिए। जैसा कि सियासत में होता है। दल वादे करते हैं। लोगों को जो पसंद आए वही करते हैं और वोट लेते हैं। परंतु यह बजट और वर्ष 2022 में हुए तमाम चुनावों के नतीजे कहते हैं लोकलुभावन का अब अर्थ बदल रहा है। लोग अपने फायदे को वर्टिकली कैल्कुलेट नहीं कर रहे, बल्कि वे होरजेंटल देखना सीख चुके हैं। जो चीज उन्हें सीधा फायदा दे रही है वह ठीक हो सकती है, लेकिन वही चीज घुमा-फिराकर कुछ नुकसान भी दे रही हो तो गलत भी हो सकती है। लोगों ने कैल्कुलेट करना सीख लिया है।
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जिस तरह से अपने बजट को अराजनीतिक पिच पर रखा वह वास्तव में बदले भारत का प्रमाण है। बजट का आर्थिक विश्लेषण अर्थविद करेंगे, किंतु इसके पीछे की जाने वाली सियासत का विश्लेषण जरूर होना चाहिए। बजट भाषण में सीमित बार कृषि, किसान, गरीब जैसे चुनावी शब्द आए। जबकि इस भाषण को देखकर कोई कह नहीं सकता कि इस भारत में कभी रेल बजट अलग था, जिसमें टिकटें 5 पैसे बढ़ाने, घटाने से सरकारों के खिलाफ हायतौबा होती थी। यहां वित्तमंत्री ने रेल शब्द तक मुंह से नहीं बोला।
नए भारत के नए ढंग और ढौल से जीने वाली पीढ़ी के लिए यह ऐसा प्रशासनिक बजट है जिसके असर को समझना अत्यधिक कठिन है और समझाना उससे भी ज्यादा जटिल।
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