बतंगड़ः लोकतांत्रिक राजतंत्र में ‘खड़ाऊ राज’ की वापसी
भरत के देश भारत में एक बार फिर खड़ाऊ राज की वापसी हुई है। राजधानी दिल्ली में भी राजनीतिक रामलीला का मंचन हुआ है। इस लोकतांत्रिक रामलीला में....
Batangad
– सौरभ तिवारी
भरत ने अयोध्या के शासन पर श्री राम का वास्तविक अधिकार घोषित करने के लिए सिंहासन पर उनकी खड़ाऊ को रखकर अपना राजपाट चलाया था। भरत के इस कदम के पीछे उनका उद्देश्य भ्रातत्व प्रेम प्रदर्शित करने के अलावा प्रजा को ये प्रतीकात्मक संदेश देना था कि राजा भले उन्हें मनोनीत किया गया है लेकिन उसके वास्तविक अधिकारी श्री राम ही है। ये तो खैर रामायण काल की बात थी। भरत के देश भारत में एक बार फिर खड़ाऊ राज की वापसी हुई है। राजधानी दिल्ली में भी राजनीतिक रामलीला का मंचन हुआ है। इस लोकतांत्रिक रामलीला में भरत की भूमिका निभाई है दिल्ली की नवमनोनीत मुख्यमंत्री आतिशी ने और राजा राम बने हैं अरविंद केजरीवाल।
दिल्ली के मुख्यमंत्री पद पर आतिशी मार्लेना की ताजपोशी इस बात की गवाही है कि शासन व्यवस्था भले लोकतांत्रिक हो लेकिन राजनीति का मिजाज अब भी राजतांत्रिक है। तब श्री राम को वनयात्रा पर जाना पड़ा था और अब केजरीवाल को जेलयात्रा पर। तब श्री राम को अपनी सौतेली मां कैकयी की जिद के चलते राजमहल त्यागना पड़ा था और अब कथित शराब घोटाले के चलते केजरीवाल को ‘शीशमहल’ त्यागना पड़ रहा है। तब श्री राम की सत्ता उनकी खड़ाऊ के प्रतीक के तौर पर कुर्सी पर विराजमान थी और अब केजरीवाल की सत्ता पर बरकरारी उनकी खाली कुर्सी के तौर पर विद्यमान है। इस लोकतांत्रिक राजवंश की उत्तराधिकारी ने तो मुख्यमंत्री पद संभालने के बाद सार्वजनिक ऐलान कर भी दिया है कि , ‘जिस तरह भरत ने खड़ाऊ रखकर सिंहासन संभाला उसी तरह मैं सीएम की कुर्सी संभाऊंगी।’
आतिशी भले खुद को भरत साबित कर रही हों लेकिन विरोधी उनके रहनुमा के राम होने पर सवाल खड़ा करने से नहीं चूक रहे हैं। कोई इसे अरविंद केजरीवाल की नई नौटंकी बता रहा है तो कोई उनकी मजबूरी। नौटंकी इसलिए क्योंकि ऐसी राजनीतिक पैंतरेबाजी अब आम आदमी पार्टी की पहचान बन चुकी है, और मजबूरी इसलिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की जमानत शर्तों के मद्देनजर एक मुख्यमंत्री के तौर पर काम कर सकना वैसे भी केजरीवाल के लिए आसान नहीं था। कुर्सी त्याग कर जनता की अदालत में जाने का ये फैसला उनका ‘मास्टर स्ट्रोक’ साबित होता है या ‘मिस्टेक’ ये तो खैर फरवरी माह में जनता की अदालत का फैसला आने के बाद ही चलेगा।
वैसे भारत में ‘खड़ाऊ राज’ का ये कोई पहला उदाहरण नहीं है। आतिशी से पहले भी भारत के ‘अयोध्यायों’ में कई ‘भरत’ अपने-अपने राम की खड़ाऊ रखकर शासन कर चुके हैं। ये अलग बात है कि इन ‘भरतों’ में से कुछ अपनी निष्ठा बरकरार नहीं रख पाते और जीतम राम मांझी, चंपई सोरेन बन जाते हैं। राजनीति का मिजाज है ही ऐसा कि ‘केयरटेकर’ के तौर पर शासन करने वाला कब ‘टेकओवर’ कर जाए कोई ठिकाना नहीं है।
कुल मिलाकर भारत में अब भले लोकतंत्र स्थापित हो गया है लेकिन उसका चरित्र मूलतः राजतांत्रिक ही है। ये लोकतांत्रिक राजतंत्र नहीं तो और क्या है जहां वंशानुगामी पार्टियों के अध्यक्ष से लेकर संवैधानिक पदों की नियुक्ति तक में मनोनयनवाद हावी है। इस मनोनयनवाद को आप सर्वसम्मति से लिया गया लोकतांत्रिक फैसला माने या फिर राजनीति का राजतांत्रिक स्वरूप आपकी मर्जी।
– लेखक IBC24 में डिप्टी एडिटर हैं।

Facebook



