नयी दिल्ली, 11 दिसंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को कहा कि किसी व्यक्ति के अधिकार हमेशा राष्ट्र के हित के अधीन होते हैं, और इस बात पर जोर दिया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए अधिकारों की हमेशा रक्षा की जानी चाहिए, लेकिन ऐसे मामलों में जहां देश की सुरक्षा या अखंडता का सवाल उठता है, वह जमानत देने का एकमात्र आधार नहीं हो सकता।
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने ये टिप्पणियां केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले में 2010 में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के पटरी से उतरने के मामले में कुछ आरोपियों को मिली जमानत के खिलाफ दायर अपील की सुनवाई करते हुए कीं।
मुंबई जा रही ट्रेन झारग्राम के पास पटरी से उतर गई थी और फिर सामने से आ रही एक मालगाड़ी से टकरा गई, जिससे 148 यात्रियों की मौत हो गई। अधिकारियों ने बताया था कि 28 मई, 2010 को हुई यह दुर्घटना माओवादियों की साजिश का परिणाम थी। यह घटना भाकपा (माओवादी) द्वारा बुलाए गए चार दिवसीय बंद के दौरान हुई थी।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस स्तर पर आरोपियों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करना, विशेषकर तब जब उनके खिलाफ कोई अन्य सबूत न हो, उचित नहीं होगा।
अदालत ने कहा कि सीबीआई उसके संज्ञान में ऐसा कोई घटनाक्रम नहीं ला सकी जिससे यह हस्तक्षेप किसी सार्थक उद्देश्य की पूर्ति साबित कर सके।
पीठ ने कहा, ‘‘इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अनुच्छेद 21 के अधिकार सर्वोच्च महत्व रखते हैं, और यह उचित भी है। हालांकि, साथ ही, व्यक्ति हमेशा ध्यान का केंद्र नहीं हो सकता।’’
उसने कहा, ‘‘कुछ मामले, जैसे कि यह मामला, अपनी प्रकृति और प्रभाव के कारण यह मांग करते हैं कि प्रस्तुत मुद्दे को व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए, यानी राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में। इसलिए हम यह पाते हैं कि अनुच्छेद 21 के अधिकारों की रक्षा तो सर्वथा की जानी चाहिए, लेकिन ऐसे मामलों में जहां राष्ट्र की सुरक्षा या अखंडता का सवाल उठता है, उसे एकमात्र आधार नहीं बनाया जा सकता।’’
भाषा शफीक अविनाश
अविनाश