उच्चतम न्यायालय ने पॉक्सो कानून के तहत बरी करने के बंबई उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाई

उच्चतम न्यायालय ने पॉक्सो कानून के तहत बरी करने के बंबई उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाई

  •  
  • Publish Date - January 27, 2021 / 10:34 AM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 08:11 PM IST

नयी दिल्ली, 27 जनवरी (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को बंबई उच्च न्यायालय के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसके जरिये ‘यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण’ (पॉक्सो) कानून के तहत एक व्यक्ति को यह कहते हुए बरी कर दिया गया था कि बच्ची के शरीर को उसके कपड़ों के ऊपर से स्पर्श करने को यौन उत्पीड़न नहीं कहा जा सकता।

प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना तथा न्यायमूर्ति वी रामसुब्रमण्यम की पीठ ने अटार्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल द्वारा यह विषय पेश किये जाने के बाद उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगा दी।

शीर्ष न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार को नोटिस भी जारी किया और अटार्नी जनरल को बंबई उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ के 19 जनवरी के फैसले के खिलाफ अपील दायर करने की अनुमति दी।

उच्च न्यायालय के फैसले में यह भी कहा गया था कि नाबालिग के शरीर को कपड़ों के ऊपर से गलत इरादे से स्पर्श करने को यौन उत्पीड़न नहीं कहा जा सकता, जैसा कि पॉक्सो कानून के तहत परिभाषित किया गया है।

गौरतलब है कि 19 जनवरी को उच्च न्यायालय ने कहा था कि चूंकि व्यक्ति ने बच्ची के शरीर को उसके कपड़े हटाये बिना स्पर्श किया था, इसलिए उसे यौन उत्पीड़न नहीं कहा जा सकता। इसके बजाय यह भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 354 के तहत महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाने का अपराध बनता है।

उच्च न्यायालय ने एक सत्र अदालत के आदेश में संशोधन किया था, जिसमें 39 वर्षीय व्यक्ति को 12 साल की लड़की का यौन उत्पीड़न करने को लेकर तीन साल कैद की सजा सुनाई गई थी।

उल्लेखनीय है कि आईपीसी की धारा 354 के तहत न्यूनतम एक साल की कैद की सजा का प्रावधान है, जबकि पॉक्सो कानून के तहत यौन उत्पीड़न के मामले में तीन साल की कैद की सजा का प्रावधान है।

अदालत में अभियोजन की दलीलों और बच्ची के बयान के मुताबिक दिसंबर 2016 में यह घटना हुई थी , जब नागपुर में सतीश नाम का आरोपी पीड़िता को कुछ खाने के लिए देने के बहाने अपने घर ले गया था।

उच्च न्यायालय ने कहा था, ‘‘अपराध (यौन उत्पीड़न) के लिए सजा की कठोर प्रकृति (पॉक्सो के तहत) पर विचार करते हुए इस अदालत का मानना है कि कहीं अधिक ठोस सबूत और गंभीर आरोपों की जरूरत है। ’’

भाषा

सुभाष मनीषा

मनीषा