(जोहानिस एम लुएट्ज, यूएनएसडब्ल्यू सिडनी)
सिडनी, 29 दिसंबर (द कन्वरसेशन) इंसान इस धरती पर जिन करोड़ों नस्ल के जीवों के साथ रहता है, वे सभी अपने आप में बेहद अहम हैं। जब भी कोई नस्ल विलुप्त हो जाती है, तो इसका व्यापक प्रभाव उस पूरे पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ता है, जिसमें उससे जुड़े जीव रहते थे।
नस्लों का विलुप्तीकरण मानवता से भी बहुत कुछ छीन लेता है। यह वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि पर विराम लगा देता है, सांस्कृतिक परंपराओं को नष्ट कर देता है और मानव जीवन को समृद्ध बनाने वाले आध्यात्मिक संबंधों को मिटा देता है।
मिसाल के तौर पर, जब चीन की बाइजी नदी में पाई जाने वाली डॉलफिन विलुप्त हुई, तब स्थानीय लोगों के जेहन में उसकी यादें भी एक पीढ़ी के भीतर ही मिट गईं। इसी तरह, जब न्यूजीलैंड में पाए जाने वाले विशालकाय और उड़ने में असमर्थ मोआ पक्षी बड़े पैमाने पर अवैध शिकार के कारण विलुप्त हो गए, तो उनसे जुड़े शब्दों और ज्ञान का भंडार भी लुप्त होने लगा।
ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि संरक्षण जितना प्रकृति को बचाने के लिए अहम है, उतना ही ज्ञान की रक्षा के लिए भी।
हम वर्तमान में उस दौर में रह रहे हैं, जिसे वैज्ञानिकों ने ग्रह पर सामूहिक विलुप्तीकरण का छठा दौर करार दिया है। विलुप्तीकण के पिछले सभी दौर के लिए जहां प्राकृतिक आपदाएं जिम्मेदार थीं, वहीं मौजूदा समय में तेजी से हो रहे नुकसान के लिए मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियां कसूरवार हैं, जिनमें पर्यावास का विनाश, बाहरी नस्लों का प्रवेश और जलवायु परिवर्तन शामिल हैं।
विलुप्तीकरण की मौजूदा दर प्राकृतिक स्तर से दस से सौ गुना अधिक है। संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि इस सदी में लगभग दस लाख नस्लों का अस्तित्व मिट सकता है, जिनमें से कई नस्लों के अगले कुछ दशकों के भीतर ही विलुप्त होने का खतरा है।
——वैज्ञानिक हानि——
विज्ञान में ज्ञान के प्रकाश को सबसे ज्यादा नुकसान विलुप्तीकण से पहुंचता है। हर नस्ल की विशिष्ट जेनेटिक पहचान और अनूठी पारिस्थितिक भूमिका होती है। जब कोई नस्ल विलुप्त हो जाती है, तो दुनिया वैज्ञानिक ज्ञान के एक अनमोल भंडार को खो देती है, जिसमें जेनेटिक कोड, जैव रासायनिक प्रक्रियाएं, पारिस्थितिक संबंध और यहां तक कि संभावित चिकित्सा उपचार भी शामिल हैं।
कभी क्वींसलैंड के वर्षा वनों में गैस्ट्रिक-ब्रोडिंग मेंढकों की दो नस्लें रहती थीं। ये असाधारण मेंढक अपने पेट को गर्भाशय में बदलने में सक्षम थे, जिससे उनमें गैस्ट्रिक एसिड का उत्पादन बंद हो जाता था और नन्हें ‘टैडपोल’ (मेंढक के बच्चे) सुरक्षित रूप से वहां पलते-बढ़ते थे। मानव विकास और ‘चिट्रिड’ नामक कवक के प्रसार के कारण ये दोनों ही नस्लें 1980 के दशक में विलुप्त हो गईं। इसी के साथ इनकी अद्वितीय प्रजनन क्षमता हमेशा के लिए समाप्त हो गई।
वैज्ञानिकों का मानना है कि गैस्ट्रिक-ब्रोडिंग मेंढकों की इन दो नस्लों पर अध्ययन से इंसानों में ‘एसिड रिफ्लक्स’ की समस्या और कुछ तरह के कैंसर पनपने के पीछे की वजहों का पता लगाया जा सकता था।
पारिस्थितिकीविद गेरार्डो सेबालोस और पॉल एर्लिच ने गैस्ट्रिक-ब्रोडिंग मेंढकों की इन दो नस्लों के विलुप्तीकरण को विज्ञान क्षेत्र के लिए बड़ी क्षति करार देते हुए कहा, “अब ये नस्लें वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं।”
विलुप्त नस्लों को पुनर्जीवित करने के प्रयास अब तक सफल नहीं हुए हैं।
जैव विविधता चिकित्सा, कृषि और यहां तक कि जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में अभूतपूर्व खोज एवं आविष्कार की नींव के रूप में काम करती है। नस्लों के विलुप्त होने से न सिर्फ जीवन का भंडार सिकुड़ता जा रहा है, बल्कि भविष्य में की जाने वाली वैज्ञानिक खोजों की संभावनाएं भी सीमित होती जा रही हैं।
——संस्कृति को नुकसान——
प्रकृति कई मानव संस्कृतियों का अद्भुत मेल है। पारंपरिक भूमि पर रहने वाले आदिवासी अपनी भाषा, कहानियों और रीति-रिवाजों के जरिये स्थानीय नस्लों के विस्तृत ज्ञान को सहेजते हैं। शहरों में रहने वाले कई लोग शांति और सुकून की तलाश में स्थानीय पक्षियों, वृक्षों, नदियों और पार्कों के इर्द-गिर्द जीवन बिताना पसंद करते हैं।
जब किसी नस्ल के जीवों की संख्या घटने या विलुप्त होने लगती है, तो उनसे जुड़े गीत, कहानियां, अनुभव और रोजमर्रा की प्रथाएं यादों से ओझल हो सकती हैं या पूरी तरह से मिट सकती हैं।
विलुप्तीकरण प्रकृति के साथ सहभागिता की भावना को नष्ट करता है और अन्य नस्लों के साथ उन छोटी-छोटी अंतःक्रियाओं में कमी लाता है, जो हमारे जीवन में आनंद, कौतूहल और आस्था का भाव जगाने में मदद करती हैं।
जैवध्वनिकी शोधकर्ता क्रिस्टोफर क्लार्क ने विलुप्तीकरण की तुलना एक ऐसे ऑर्केस्ट्रा से की है, जो धीरे-धीरे शांत होता जाता है। उन्होंने कहा है, “जहां जीवन है, वहां गीत-संगीत भी है। पूरी दुनिया गा रही है। लेकिन जो हो रहा है, वह यह है कि हम इन आवाजों को मार रहे हैं। यह ऑर्केस्ट्रा से वाद्ययंत्रों को निकालने जैसा है… और फिर वह गायब हो जाता है।”
लुप्त होती आवाज (नस्ल) का एक मार्मिक उदाहरण हवाई से मिलता है। 2023 में काले-पीले रंग के छोटे गीत गाने वाले पक्षी ‘कवाई ओओ’ को विलुप्त घोषित कर दिया गया। इस नस्ल का केवल एक नर पक्षी बचा है, जो इस बात से अनजान है कि वह जिस मादा ‘कवाई ओओ’ को अपने गीत से आकर्षित कर रहा है, वह अब कभी नहीं आएगी।
चिंताजनक बात यह है कि दुनियाभर में गीत गाने वाले पक्षियों की संख्या तेजी से घट रही है।
पारिस्थितिकी-केंद्रित दृष्टिकोण से देखें, तो प्रत्येक नुकसान से सहोदर नस्लों का पूरा समुदाय कमजोर हो जाता है, जिसमें इंसान भी शामिल हैं। वैज्ञानिक इसे “अनुभव के विलुप्तीरण” के रूप में देखते हैं। जीवविज्ञानी डेविड जॉर्ज हास्केल लिखते हैं कि विलुप्तीकरण का अर्थ संवेदनाओं से वंचित एक ऐसे भविष्य का निर्माण करना है, जो कम जीवंत और अत्यधिक नीरस हो।
——आध्यात्मिक ज्ञान की हानि——
प्राकृतिक वस्तुएं कई समुदायों के लिए धार्मिक महत्व रखती हैं। उनकी कुछ विशेष नस्लों या पारिस्थितिक तंत्र में गहरी आध्यात्मिक आस्था होती है।
स्वदेशी संरक्षक ऑस्ट्रेलिया की ‘ग्रेट बैरियर रीफ’ को बेहद पवित्र मानते हैं। उनकी प्राचीन परंपराएं इसे एक पवित्र, जीवंत समुद्री परिदृश्य के हिस्से के रूप में वर्णित करती हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण ‘ग्रेट बैरियर रीफ’ की जैव विविधता में गिरावट आने से ये आध्यात्मिक संबंध क्षीण हो रहे हैं, जिससे मानवीय जुड़ाव को परिभाषित करने वाली आस्था, कौतूहल और अस्तित्वगत अभिविन्यास के स्रोत कम हो रहे हैं।
कुछ पारिस्थितिकीय परंपराएं प्रकृति को एक पुस्तक के रूप में देखती हैं, जो दिव्य सत्य को प्रकट करने का एक माध्यम है। प्रकृति उन विभिन्न समुदायों और परंपराओं के लिए गहरा महत्व रखती है, जो भूमि और उसके जीवों को सजीव, परस्पर रूप से जुड़ा हुआ और पवित्र मानती हैं।
विलुप्तीकरण अलौकिक अर्थों को समाहित करने की प्रकृति की क्षमता को कमजोर करता है। इससे प्राकृतिक जगत धुंधला और नीरस होता जाता है, जिससे हमें विस्मय, सौंदर्य और पवित्रता की अनुभूति करने के अवसर कम मिलते हैं। इस लिहाज से विलुप्तीकरण केवल जैविक हानि नहीं है, बल्कि यह इनसान और अन्य प्राणियों के बीच आध्यात्मिक संबंधों को भी तोड़ देती है।
(द कन्वरसेशन) पारुल नरेश
नरेश
नरेश