कर्नाटक में हुए सत्ता के नाटक का पर्दा आखिरकार वैसा नहीं गिरा जैसा भाजपा सुप्रीमो अमित शाह और पीएम नरेंद्र मोदी चाहते थे। पिछले 48 घंटों में हुए घटनाक्रम से भाजपा को समझ आ गया था कि इस नाटक के विलेन हम ही बनने वाले हैं और इसीलिए एक लघु पटकथा लिखी गई। कुछ चैनलों को साथ लेकर लोकसभा के 22 साल पुराने दृश्य को फिल्माने की कोशिश की गई। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी वाले अंदाज में येदुरप्पा से पहले भावुक भाषण और बाद में इस्तीफ़ा दिलवाया गया। कर्नाटक में सत्ता का नाटक कोई नया नहीं है। अगले सालभर के भीतर वहां फिर नया नाटक देखने के लिए हम तैयार रहें, लेकिन मौजूदा परिप्रेक्ष्य में कर्नाटक में भाजपा का दावा और ऐन वक्त पर पलायन आने वाली गठबंधन सरकार के लिए एक चेतावनी भरा संदेश है। कर्नाटक विधानसभा में भाजपा की शिकस्त को लोकतंत्र की जीत बताया जा रहा है,लेकिन बहुमत के आंकड़ों को पाने के लिए दोनों तरफ से जो तरीके अपनाए गए वो लोकतंत्र का कलेजा हिलाने वाले थे।
जिस तरह बस में भरकर विधायकों को होटलों और रिसोर्ट में छिपाया गया, विधायकों को बिकने से बचाने के लिए जो एहतियात बरते गए, उतनी तो किसी खूंखार अपराधी को एक जेल से दूसरी जेल में ले जाते समय भी नहीं बरती जाती। जनता का दुःख दर्द कम करने के लिए जनता के चुने हुए ये नुमाइंदे इतने खोखले और कमजोर कैसे हो सकते हैं कि ये अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्यों को पैसे या पावर के आगे गिरवी रख दें। पैसा और पावर यदि भाजपा का भरोसा था और यही कांग्रेस और जेडीएस का भय तो धिक्कार है, लोकतंत्र के ऐसे भीरु नुमाइंदों पर। कर्नाटक में अब भाजपा सरकार नहीं बनाएगी और अब ऐसी दो पार्टियां सरकार बनाएंगी जिन्होंने एक महीने पहले जनता के सामने एक दुसरे के कपडे फाड़े थे। हम भले ही भाजपा की हार को लोकतंत्र की जीत बता दें लेकिन यह अवसरवादी गठबंधन भी लोकतंत्र का सत्य नहीं है तो फिर लोकतंत्र क्या है? बहस करते रहिए।
अब जरा इस घटना के पीछे का सच जानने की कोशिश कर लें जो पूरी तरह एक राजनीतिक षड्यंत्र रचता हुआ दिख रहा है। भाजपा आज उस अमित शाह के इशारों पर चलती है जिनके शब्दकोष में बैकफुट नाम का कोई शब्द ही नहीं है। फिर ऐसा क्या हो गया कि तीन घंटे के भीतर ही भाजपा की अंतरात्मा जाग गई और भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे येदुरप्पा किसानों की बात करते करते भावुक हो गए और मैदान छोड़ दिया। दरअसल, भाजपा के मुख्यमंत्री उम्मीदवार येदुरप्पा मजबूरी के मुख्यमंत्री थे। लिंगायत समुदाय के भय से भाजपा ने उन्हें आगे किया था और बहुमत न मिलने पर दूसरी पार्टी के लिंगायत विधायकों के भरोसे यह दांव खेला गया और कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के सहारे इस दांव की हवा निकाल दी। येदुरप्पा को अगर पंद्रह दिन का समय मिल जाता तो वे बहुमत साबित कर देते और हमेशा के लिए भाजपा के माथे पर तांडव करते रहते। आज के घटनाक्रम ने येदुरप्पा के लिंगायत कार्ड पर पानी फेर दिया और भाजपा में उनकी दादागिरी को ख़त्म कर दिया। अब अमित शाह कर्नाटक में भाजपा का नया चेहरा तलाशेंगे और फिर सत्ता का नया नाटक खड़ा करेंगे। वहीं कर्नाटक की इस हार के बाद कांग्रेस पूरे देश में यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि भाजपा ने कर्नाटक में एक पिछड़े को मुख्यमंत्री बनने से रोका। अब इस पूरे घटनाक्रम में आपको लोकतंत्र और लाचार लोक कहीं दिखता है? कर्नाटक का अम्मा,अप्पा स्वामी कोई हो क्या फर्क पड़ता है, अगर फर्क पड़ना चाहिए तो उस पार्टी को जो केवल सत्ता के खेल में चुनाव लड़ने और जीतने की मशीन बन गई है। इस धुन में उसने दुनिया के एक परिपक्व लोकतंत्र को भी झोंक दिया है। पूरे देश के नक़्शे को भगवा करने के जुनून में आज लोकतंत्र के चीथड़े उड़ने वाले थे। बस यूँ समझिए कीचड कम पड़ गया नहीं तो कमल खिलने ही वाला था।
प्रफुल्ल पारे
एसोसिएट एडिटर, IBC24
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3 weeks ago