बरुण सखाजी श्रीवास्तव
सनातन संस्कृति में विचार का बड़ा महत्व है। किसी कार्य से पहले अच्छी तरह से सोचना, विचारना, समझना, तौलना फिर करना, एक प्रक्रिया माना गया है। परमहंस श्रीराम बाबाजी इस बात को कहा करते थे। बिना बिचारे जो करे… फिर हंसते थे। जब एक से अधिक लोग हों, संयोग से संख्या चार हो तो कहा करते थे, अच्छा, चार, करो विचार। विचार का अर्थ फैसलों को अटकाना, लटकाना, मनमाना करना नहीं होता। विचार का अर्थ एक से अधिक लोगों के साथ विर्मश करना, अपने भीतर के चिंतन पर तौलना, जो करने जा रहे हैं उसके बहुआयामों को तलाशना और तराशना है। परमहंस श्रीराम बाबाजी इस बात को इसलिए महत्व देते थे, क्योंकि इसमें समरसता है। समभाव है। समविचार है। संवेदना है। संवाद है।
परमहंस श्रीराम बाबाजी कहते थे विचारो फिर करो, कुछ गूढ़ बातें बोलते और फिर कहते थे समझबे की है बा तो.. यानि बात समझने की है। मौजूद लोगों की आंखों में झांकते फिर सिर हिलाते हुए हंसकर बोलते, आंखों के अंधे, कानों के बहरे, चुप रै बाबा कुछ मत कह रे… चलो तो फिर धरो सामान। वे विस्तार से समझाने, अभिव्यक्तियों के माध्यम से बताने, आदेश, निर्देश, संदेश में नहीं उलझते थे। एक लाइन में जो समझ आ जाए वह मान लो नहीं आए तो ये जा रहे हैं।
साधारण तौर पर परमहंस श्रीराम बाबाजी विधान, विधि, व्यवस्था के उलझाव में नहीं पड़ते थे, क्योंकि वे लक्ष्य पर केंद्रित रहते थे। लक्ष्य में अगर व्यवस्थाएं, विधियां, विधान सहायक हैं तो अच्छी बात है। जरा भी सहायक नहीं हैं तत्क्षण वहीं त्याग। सिर्फ और सिर्फ लक्ष्य। इसके लिए अपनाई गई जो भी व्यवस्था बन सके बनाना। हो सके अपनाना।
एक बार उदयपुरा पंचमुखी पर कालनेमियों द्वारा कब्जे से महाराज जी आहत हुए। किसी असहनीय वचन से वे क्रोधित हुए। महाराजजी के शरीर पर क्रोध के चिन्ह देखकर मन में भय उत्पन्न हुआ। ऐसा लगने लगा जैसे अब कालनेमियों को बड़ा भारी नुकसान हो जाएगा। ऐसा सोचते हुए मन में भारी सा लगने लगा। हैं भले ही अतिक्रमणकारी, कालनेमी, लेकिन कुछ तो सेवा में भगवान के रहे ही हैैं। भले ही कपटपूर्ण ढंग से। ऐसा विचारकर प्रार्थना की, भगवन अच्छा हो एक ट्रस्ट बनाकर इसे नियंत्रित, नियोजित करवा दिया जाए। महाराज जी प्रतिउत्तर में क्रोध को शांत करके बोले, करो, कौन रोक रौ, नगर के लोगों हे सोचने चइए जा तो, हो जाओ इकट्ठे, बात कर लो.. जो काम का हम कर हैं, जो काम का साधू को है, का हमरो है। हम का छाती पे धर के ले जै हैं, अरे हम का कुई ले जा पाओ है आज तक। (अब उनके होंठों पर आनंदपूर्ण हंसी आ गई थी) नै हमे तारो चइए नै कुची। हम का जो सब करबे आए हैं इते… जो हमे करने है बो हम कर रै। बरत हुए उते… बा तो बुकली है निकर रही है। हां मनो दार अभे हैगी। पीरी-पीरी दार हैगी।
हनुमानजी श्रीराम बाबाजी चार करो विचार वाक्य का अर्थ वास्तव में जो हमारी अल्पबुद्धियां समझ पाती हैं वह इतना ही है कि अंतरसंवाद से जीवन के फैसले होने चाहिए। भीतर की निष्ठा, समर्पण, भाव, भंगिमा का नित परीक्षण होना चाहिए, वरना तो हम एक ही तरह से सोचने लग जाते हैं। इसमें विविधता खत्म हो जाती है। यानि जो हम सोच रहे हैं वही सच बन जाता है।
किसी व्यवस्था में शक्तिसंपन्न एक ही होता है, किंतु इस शक्ति संपन्नता के पीछे अनेक होते हैं। अनेक में भी नेक होते हैं। नेक में भी एक। पारंपरिक रूप से परमहंस श्रीराम बाबाजी हनुमानजी के वचन और क्रिया को देखेंगे तो इनके गहरे आध्यात्मिक रहस्य समझने में असमर्थ हो जाएंगे। इसलिए गहरे उतरना आवश्यक है। कुछ मूलभूत सिद्धांतों के परिपालन के लिए प्रशासनिकता अनिवार्य होती है, किंतु मंतव्य विचारपूर्ण होना आवश्यक है। संवाद ही संशय और आग्रहों का अंत है। आत्म विभोर से मुक्ति का मंत्र भी यही है। चार करो विचार।