Amit Shah In Rajnandgaon
Barun Sakhajee
बरुण श्रीवास्तव सखाजी
सह-कार्यकारी संपादक, IBC24
पतंजलि के खिलाफ आईएमए के केस पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां सामान्य नहीं हैं। निर्णय भी सामान्य नहीं हैं। पतंजलि को कहा जा रहा है, उसने लोगों में अपने विज्ञापनों के जरिए भ्रम फैलाया है। इसलिए उसके विज्ञापन रोक देने चाहिए और उसके उत्पादों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। हथियार लॉबी के बाद दुनिया की सबसे मजबूत बिजनेस लॉबी में शुमार फार्मा इंडस्ट्री चीजों को मैन्युप्लेट करने में माहिर है। बड़ी चालाकी से बीमारियों को बोता है, भय को इस्तेमाल करता है और जीवन को सेहतमंद बनाए रखने वाली पद्धतियों को दकियानूसियत बताता है।
यह चालाकी आज की नहीं है, वर्षों की है। भारत दुनिया के ऐसे देशों में सबसे ऊपर है जहां एजेंडाबाज अपना उल्लू बहुत आसानी से सीधा कर पाते हैं। फिर वह आर्थिक क्षेत्र के लोग हों, सांस्कृतिक क्षेत्र के, राजनीतिक क्षेत्र के या फिर वह अपराध क्षेत्र के ही लोग क्यों न हों। फार्मा इन सबका इस्तेमाल करता है। नीतियों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करता है। राज व्यवस्थाओं को अपने अनुकूल बनाने की कोशिश करता है। न्यायालय तो खैर किस खेत की मूली है ही इसके लिए।
फार्मा उद्योग के लिए सबसे अहम है एलोपैथी पद्धति। यह पद्धति फार्मा उद्योग की पैदा की हुई नहीं है, किंतु इंस्टेंट लाभ देने वाली एलोपैथी को फार्मा ने गोद जरूर ले रखा है। वैसे तो फार्मा उद्योग दुनिया में प्रचलित आयुर्वेद, यूनानी, होमियो आदि सबको साथ लेकर चलना चाहता था, किंतु यह सभी पद्धतियां फार्मा उद्योग के हाथों की कठपुतली नहीं बन पाती। होमियोपैथी चिकित्सक को बहुत अध्ययनशील बनकर दवाओं के मिश्रण की आजादी देती है, जिससे इसमें फार्मा उद्योग का ब्रांडवाद नहीं चलता। जबकि फार्मा उद्योग की पूरी कमाई ब्रांडवाद से होती है। आयुर्वेद तो दवाओं को बहुत ही न्यूनतम महत्व देता है। वह खान, पान, रहन, सहन और पूरी दैनिक व जीवनचर्या को फोकस करता है। इससे फिर फार्मा उद्योग का ब्रांडवाद पनप नहीं पाता। इसी तरह यूनानी भी है।
फार्मा उद्योग को चाहिए वह सिरदर्द हो तो चिंता न करने की सलाह देने की बजाए एक ब्रांड की दवा दे दे। फिर इस दवा के खाने से पेट में मितली हो तो फिर एक दवा दे दे। फिर इस दवा से डायजेशन खराब होने लगे तो फिर एक दवा दे दे। डायजेशन की दवा से पेट की तकलीफ बढ़े तो फिर एक दवा दे दे। यानि दवाएं और दवाएं। अनगिनत दवाएं। शरीर में पैदा विकार की दवा, फिर दवा से पैदा विकार की दवा और यह क्रिया अनंत चलती रहे।
फार्मा उद्योग दुनियाभर में इतना बड़ा है कि इसकी ताकत, महत्व और एकजुटता से लड़ा नहीं जा सकता। वर्षों तक आयुर्वेद, यूनानी, होमियो समेत अनेक पैथियां लड़ती रही हैं। अब भी लड़ रही हैं, किंतु फार्मा उद्योग एलोपैथी को अपनी ढाल बनाकर सबको ठिकाने लगाता रहा है। इस बार उसके निशाने पर पतंजलि है। पतंजलि आयुर्वेद की दवाएं बनाने के लिए जानी जाती है। यूं तो डाबर, हमदर्द वैद्यनाथ वर्षों से भारत में आयुर्वेदिक, यूनानी दवाएं बना रहे हैं, किंतु फार्मा उद्योग को इनसे डर नहीं लगा। क्योंकि यह भी विशुद्ध बिजनेस कर रहे थे। एलोपैथी की आड़ में चल रहे इस घिनौने फार्मा उद्योग को चुनौति वैचारिक आंदोलन के जरिए दी जा सकती है, वरना प्रभावशाली यूनानी, होमियो से लेकर आयुर्वद तक की दवाएं पहले से ही हैं। आंदोलन खड़ा किया पतंजलि ने। यह एक निजी क्षेत्र की सफलतम कंपनी बनकर उभरी है। किंतु इसके पीछे के मंतव्य, गंतव्य बहुत जुदा हैं। पतंजलि के सीईओ, एमडी, चिकित्सक कोई टाई, टप्पे, बाटा शू पहने लोग नहीं होते। न करेसपोन्डेंस में एमबीए, एमडी किए लोग होते हैं। न इसके कोई ऐसे व्यापक साइड इफैक्ट नजर आते हैं। दवा असर करती है, धीरे से घुलती है, अधिकतर को फायदा करती है कमतर को कोई फायदा नहीं करती। किंतु नुकसान किसी को नहीं करती। ऐलोपैथ में यह समस्या है। वह या तो फायदा करेगी नहीं तो नुकसान तो करेगी ही करेगी।
फार्मा उद्योग इतना शक्तिशाली है कि कोर्ट, सरकार, मीडिया, व्यवस्था, समाज, विचार, आंदोलन आदि सबको संगठित ढंग से दबा सकता है। क्योंकि फार्मा उद्योग अकेला नहीं है जो ऐसा कर सकता है, बल्कि यह एक गुट है। बीमा कंपनियां, अस्पतालों की चैन, मेडिसन साइंस में रिसर्च, स्कॉलर की पैदावार, मेडिकल कॉलेज, हेल्थ प्रॉ़क्ट, जीवन शैलियों से जुड़े खाद्य उत्पाद, जलवायु, पर्यावरण से जुड़े उत्पाद आदि की इंडस्ट्री भी इसकी ही एक सब्सीडियरी के रूप में काम कर रही हैं। ऐसे में इसकी ताकत को बहुत अधिक मानना चाहिए।
फार्मा की इस ताकत को चुनौती मिलेगी तो इसके ही छद्म स्वरूप आईएमए आदि उभरेंगे ही। फार्मा उद्योग को दुनिया में किसी ने पतंजलि की तरह एक्सपोज नहीं किया है। किसी वक्त में राजीव दीक्षित जब लगातार इस तरह की बातें कहते थे तो लोग उन्हें अंधा राष्ट्रवादी मानते हुए उपहास करते थे, किंतु अंत में उनकी कही बातें सही सिद्ध हो रही हैं।
पतंजलि की लड़ाई किसी कंपनी के नफे-नुकसान की लड़ाई नहीं है। इसे बाबा रामदेव और आईएमए की लड़ाई भी नहीं समझना चाहिए। इसे आचार्य बालकृष्ण और फार्मा उद्योग की रसाकस्सी भी न कहें। यह समग्रता से मानव स्वास्थ और फार्मा उद्योग के बीच का जीवन संघर्ष है। इस जीवन संघर्ष में कौन किसके साथ खड़ा है, हम साफ देख रहे हैं।
बीते अनेक वर्षों में काले-गोरे जैसे रंगभेद को बोने वाली फेयर लवली या अन्य ऐसी क्रीम मेकर्स कंपनियों के विरुद्ध किसी न्यायालय को पीड़ा नहीं हुई। किसी को 1954 का वह अधिनियम नहीं याद आता जिसमें भ्रामक विज्ञापन पर कार्रवाई की धाराएं हैं। किंतु श्वसारी और कोरोनिल से कोरोना दूर करने वाली सिर्फ 5 सौ रुपए की एक दवाकिट के विरुद्ध पूरी फार्मा इंडस्ट्री परेशान हो रही है। सामान्य नजला, जुकाम की 300 रुपए तक की दवाएं देने वाले एलोपैथी लेड फार्मा लॉबी को यकीन नहीं हो रहा कोरोना 5 सौ रुपए में दूर हो सकता है। बस झगड़ा ये है। न्यायालय, सरकारी नीतियां, मीडिया, जनता के विभिन्न ओपनियन मेकर संगठन आदि तो इस फार्मा उद्योग के टूल हैं।