रायपुरः Vishnu ka Sushasan: छत्तीसगढ़ राज्य ने 1 नवंबर 2000 को मध्यप्रदेश से अलग होकर एक स्वतंत्र राज्य के रूप में अपने नए सफर की शुरुआत की थी। आज, जब यह राज्य अपने 25 वर्षों की यात्रा पूरी करने की ओर अग्रसर है। कला और संस्कृति के लिहाज से वैश्विक पटल पर एक अलग चमक रखने वाला छत्तीसगढ़ इस वर्ष अपना रजत जयंती वर्ष मना रहा है। छत्तीसगढ़ न केवल प्राकृतिक संसाधनों और खनिजों से समृद्ध है, बल्कि इसकी सांस्कृतिक विरासत भी अत्यंत विविध, जीवंत और ऐतिहासिक रूप से समृद्ध है। यहां की संस्कृति जनजातीय जीवन, लोक परंपराओं, पर्व-त्योहारों, कलाओं और भाषा में रची-बसी हुई है, जो इसे भारत के अन्य राज्यों से विशिष्ट बनाती है। छत्तीसगढ़ की साय सरकार ने भी अपने कार्यकाल में इसे संरक्षिक, संवर्धित और वैश्विक पटल पर पहचान दिलाने का प्रयास कर रही है। यहीं वजह है कि आज छत्तीसगढ़ की कला और संस्कृति की महक पूरे विश्व के कोने-कोने तक पहुंच रही है।
राज्य निर्माण से पहले छत्तीसगढ़ की संस्कृति को एक सीमित पहचान मिली थी। लोकनृत्य जैसे पंथी, राउत नाचा और करमा केवल गांवों की गलियों और मेलों में जीवित थे, जिनकी गूंज बाहरी दुनिया तक नहीं पहुँच पाई थी। पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्रों की थाप पर जीवन नाचता था, और उत्सव केवल अवसर नहीं बल्कि जीवन का अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे। ये परंपराएं बिना किसी मंच या प्रचार के पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहीं। जैसे-जैसे छत्तीसगढ़ ने राज्य बनने के बाद अपने पैरों पर खड़ा होना शुरू किया, वैसे-वैसे संस्कृति को भी एक नई पहचान मिलने लगी। संस्कृति अब केवल परंपरा में बसी नहीं रही, वह मंचों पर उतर आई, उत्सवों का हिस्सा बनी, और ‘राज्योत्सव’ जैसे आयोजनों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी दिखने लगी। जो कभी गांवों की सीमाओं में सिमटी हुई कला थी, अब वह सरकारी संरक्षण से एक नई ऊर्जा के साथ सामने आने लगी। आधुनिकता की आंधी में बहुत-सी पारंपरिक कलाएं मद्धम पड़ने लगीं। फिर भी, छत्तीसगढ़ की संस्कृति ने इस संक्रमण काल में अपनी आत्मा को नहीं खोया है।
Vishnu ka Sushasan: छत्तीसगढ़ सत्ता में आते ही छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार एक ओर जहां छत्तीसगढ़ियों के विकास के काम कर रही है। वहीं दूसरी ओर यहां के विरासत और प्रसिद्ध स्थलों के विकास की बीड़ा भी विष्णुदेव की सरकार ने उठाया है। सरकार छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण धार्मिक आस्था के केंद्रों को शक्तिपीठ परियोजना के तहत विकसित कर रही है। इस परियोजना के अंतर्गत उत्तराखंड की चार धाम परियोजना की तर्ज पर पांच शक्तिपीठों रतनपुर में महामाया, चंद्रपुर में चंद्रहासनी, डोंगरगढ़ में बम्लेश्वरी, दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी मंदिर और सूरजपुर स्थित कुदरगढ़ मंदिर को विकसित करके एक-दूसरे से जोड़ा जाएगा।
जनजातीय विरासतों, कला एवं संस्कृति के धरोहरों का संरक्षण,संवर्धन और उन्हें एक नवीन मंच देने के उद्देश्य से साय सरकार ने एक नई पहल करते हुए बस्तर पंडुम जैसे आयोजन की। बस्तर की जनजातीय परंपराओं, कला और जीवनशैली को दुनिया के सामने लाने वाला एक भव्य उत्सव है। यह आयोजन बस्तर की सांस्कृतिक धरोहर को वैश्विक मंच पर पूरी प्रखरता से ले जाने में सफल रहा। राज्य सरकार की प्रतिबद्धता और बस्तर के लोगों की भागीदारी ने इसे ऐतिहासिक बना दिया। इस आयोजन से बस्तर के स्थानीय लोगों को अपनी परंपराओं और कला को दिखाने का मंच मिला और साथ ही देश-विदेश से आए पर्यटकों, शोधकर्ताओं और संस्कृति प्रेमियों को बस्तर की अनूठी संस्कृति को करीब से जानने का अवसर मिला। आयोजन के वृहत स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बस्तर संभाग के कोने-कोने से आये कलाकारों ने इसमें हिस्सा लिया और अपनी अनूठी कला से देश दुनिया का परिचय कराया।
छत्तीसगढ़ प्रदेश आदिवासियों की रीति रिवाज, परंपरा और संस्कृति काफी विख्यात है। ये बाकी राज्यों के आदिवासियों की तुलना में काफी अलग भी है। बस्तर के आदिवासी अंचलों में प्रत्येक गांव और पंचायतों में आदिवासियों की देवगुड़ी है। इन आदिवासियों के लिए देवगुड़ी का भी अलग महत्व है। देवगुड़ी से तात्पर्य भगवान के मंदिर से है जिन्हें आदिवासी अपनी कुल देवता के रूप में पूजते हैं। साय सरकार केवल प्रदेश का विकास ही नहीं कर रही है। बल्कि आदिवासियों के आस्था केंद्रों को भी संवारा है। आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय प्रदेश की सत्ता संभालते ही इस काम शुरू किया और देवगुड़ियों के विकास के लिए राशि का प्रावधान किया। इन पैसों से देवगुड़ियों के आसपास कई निर्माण कार्य किए गए, जिससे वहां की खूबसूरती बढ़ी दूरदराज से दंतेवाड़ा और बस्तर घूमने आने वाले पर्यटक भी इन देवगुड़ियों में पहुंच रहे हैं और बस्तर के संस्कृति की जानकारी भी ले रहे हैं।
राज्य गठन के बाद से हुए प्रयासों से अब छत्तीसगढ़ सिर्फ खदानों और उद्योगों के लिए नहीं, बल्कि अपनी समृद्ध और रंगीन संस्कृति के लिए भी पहचाना जाता है। यहां की सांस्कृतिक विरासत लोगों के जीवन का हिस्सा बन चुकी है और अब यह वैश्विक स्तर पर भी अपनी पहचान बना रही है। राज्य गठन के बाद हर वर्ष 1 नवंबर को आयोजित राज्योत्सव छत्तीसगढ़ की संस्कृति का सबसे बड़ा उत्सव बन गया है। इस आयोजन में देश-विदेश के कलाकार भाग लेकर अपनी प्रस्तुतियों से राज्य की सांस्कृतिक गरिमा को नई ऊंचाइयां देते हैं। बस्तर दशहरा, सिरपुर महोत्सव और राजिम कुंभ जैसे पारंपरिक पर्वों को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली है। चक्रधर समारोह जैसे सांस्कृतिक उत्सव रायगढ़ में आयोजित किए जाते हैं, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य को बढ़ावा देते हैं और राज्य को कला की राजधानी के रूप में पहचान दिलाते हैं. इसके अलावा तातापानी महोत्सव, ताला महोत्सव जैसे आयोजन ने प्रदेश के समृद्द विरासत को नई ऊंचाई दी।
छत्तीसगढ़ के शिल्पकारों की ढोकरा कला, टेराकोटा, लोहा शिल्प और कोसा सिल्क को देश-विदेश की प्रदर्शनियों तक पहुँचाया गया। कोसा सिल्क और बस्तर की धातु कला को पहचान दिलाने के लिए जीआई टैग और निर्यात योजनाओं पर काम हुआ। आज यह शिल्प भारत की सांस्कृतिक धरोहर का गौरव माने जाते हैं। कला-संस्कृति के शैक्षणिक विकास के लिए इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ और अन्य संस्थानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लोक कलाकारों और साहित्यकारों को सरकारी पेंशन, सम्मान और मंच देकर उनकी परंपराओं को जीवित रखा गया। छत्तीसगढ़ी साहित्य को बढ़ावा मिला और छत्तीसगढ़ी सिनेमा ने भी अपनी अलग पहचान बनाई।
छत्तीसगढ़ ने न केवल आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रगति की, बल्कि अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को भी संरक्षित और प्रोत्साहित करने में उल्लेखनीय कार्य किया। पंथी नृत्य, राऊत नाचा, करमा, सुआ और ददरिया गीत देश-विदेश में लोकप्रिय हुए। इसके अलावा कई बड़े आयोजनों में छत्तीसगढ़ के स्टॉल लगाए गए, जहां छत्तीसगढ़ियां संस्कृति की धमक देखने को मिली। महाकुम्भ क्षेत्र के सेक्टर 6 में स्थित छत्तीसगढ़ पवेलियन में छत्तीसगढ़ के निवासियों के लिए मुफ्त भोजन और आवास की व्यवस्था की गई है। साथ ही यहां अत्याधुनिक तकनीक और प्रभावशाली प्रस्तुतियों के माध्यम से छत्तीसगढ़ की समृद्ध संस्कृति, परंपराओं और विकास को भी दर्शाया गया है।