इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के समक्ष एआई आधारित टूल्स और ‘डीपफेक्स’ एक बड़ी चुनौती |

इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के समक्ष एआई आधारित टूल्स और ‘डीपफेक्स’ एक बड़ी चुनौती

इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के समक्ष एआई आधारित टूल्स और ‘डीपफेक्स’ एक बड़ी चुनौती

:   Modified Date:  March 19, 2023 / 05:01 PM IST, Published Date : March 19, 2023/5:01 pm IST

(प्रत्युष रंजन)

नयी दिल्ली, 19 मार्च (भाषा) कृत्रिम बुद्धिमत्ता(एआई), ‘डीपफेक्स’ और सोशल मीडिया, जिसे साधारण जनता कम ही समझती है। लेकिन यह तिकड़ी करोड़ों इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के लिए रहस्यमयी बाधा बन गई है जो रोजाना सच और फर्जी के बीच अंतर करने के लिए जूझते हैं।

डीपफेक्स का आशय किसी छवि या वीडियो में डिजिटल छेड़छाड़ करके उसे दूसरे की छवि या वीडियो के रूप में दिखाना ताकि फर्जी सूचना फैलाई जा सके।

भ्रमित करने वाली सूचना के खिलाफ लड़ाई हमेशा से चुनौतीपूर्ण रही है और एआई चालित टूल्स के विकास के बाद विभिन्न सोशल मीडिया मंचों पर ‘डीपफेक्स’ सूचनाओं की सच्चाई का पता लगाना और मुश्किल हो गया है।

एआई की बिना मंशा वाली फर्जी खबरें बनाने की क्षमता ऐसी खबरों को रोकने से अधिक है, जो चिंता का विषय बनी हुई है।

‘डाटालीड्स’ के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) सईद नजाकत ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा,‘‘भारत में तेजी से बदलती सूचना पारिस्थितिकी में ‘डीपफेक्स’ भ्रामक सूचना का एक नया मोर्चा बनकर उभरा है जिसमें लोगों के लिए झूठ और सच्चाई के बीच अंतर करना मुश्किल होता है।’’

‘डाटालीड्स’ एक डीजिटल मीडिया समूह है। नजाकत ने कहा कि भारत पहले ही विभिन्न भारतीय भाषाओं में भ्रामक सूचनाओं की बाढ़ का सामना कर रहा है। यह स्थिति एआई प्रौद्योगिकी और डीपफेक्स आधारित टूल्स से और विकराल हो गई है।

ब्रिटिश टेलीकॉम में इंटरप्राइज आर्किटेक के तौर पर काम करने वाले अजहर माचवी कहते हैं, ‘‘एआई मॉडल की अगली पीढ़ी को जेनरेटिव एआई कहते हैं, जिसमें डाल-ई, चैटजीपीटी, मेटा का मेक ए वीडिया आदि उदाहरण हैं। इनमें बदलाव के लिए स्रोत की जरूरत नहीं होती। इसके बजाय ये तस्वीर, लेख या वीडियो को आदेश के आधार पर पैदा कर सकते हैं। यह विकास की शुरुआती अवस्था है, लेकिन इन में नुकसान पहुंचाने की क्षमता है क्योंकि हमारे पास सबूत के तौर पर पेश करने के लिए मूल सामग्री नहीं होती।

डीपफेक्स क्या है?

डीपफेक्स का अभिप्राय कृत्रिम मीडिया से होता है, जिसमें एक मौजूदा छवि या वीडियो में एक व्यक्ति की जगह किसी दूसरे को लगा दिया जाए, इतनी समानता से कि उनमें अंतर करना कठिन हो जाए। इसके लिए व्यक्ति के ज्ञान की जरूरत नहीं होती बल्कि कंप्यूटर स्वयं कर देता है। इंटरनेट पर कई एआई टूल्स हैं जिनका इस्तेमाल स्मार्टफोन पर मुफ्त में किया जा सकता है।

एआई और फर्जी खबरें

कुछ साल पहले पत्रकारिता में एआई की शुरुआत की गई जिससे उद्योग को आगे बढ़ाने और समाचार प्राप्त करने एवं वितरण में क्रांति की उम्मीद की गई। इसके फर्जी खबरों और भ्रामक सूचना को रोकने में सहायक माना गया।

अजहर ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया, ‘‘ डीपफेक्स की कमी यही है कि उसे काम करने के लिए कुछ मूल सामग्री की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए बिल गेट्स का वीडियो जिसमें उनकी आवाज की जगह फर्जी आवाज स्थापित कर दी जाए। इसकी पहचान करना आसान है बशर्ते मूल की पहचान कर ली जाए, लेकिन इसमें समय और मूल सामग्री की तलाश करने की क्षमता की जरूरत होती है।’’

वह मानते हैं कि हाल में सोशल मीडिया पर साझा किए गए ‘डीपफेक्स’ की पहचान करना आसान है, लेकिन आने वाले दिनों में इनका पता लगाना चुनौतीपूर्ण होगा।

आगे की राह

अधिकतर सोशल मीडिया मंच फर्जी समाचार भाषा की परिपाटी और जन जानकारी आधारित कलन विधि से स्रोत के स्तर पर ही फर्जी समाचार को कम करने का दावा करते हैं। यह सुनिश्चित करती हैं कि भ्रामक सूचना के तथ्य को पता लगाने और हटाने के बाद उसे आगे फैलने न दी जाए।

हालांकि, डीपफेक्स्स के उदाहरणों ने एआई द्वारा फर्जी खबर गढ़ने की क्षमता को रेखांकित किया है। एआई और मशीन लर्निंग ने कई कार्य-सुविधा वाले उपकरण के साथ पत्रकारिता के कार्य में मदद करने वाले टूल्स दिए हैं जिनमें स्वयं से ध्वनि-पहचान प्रतिलेखन टूल सामग्री शामिल है।

नील्सन की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में 42.5 करोड़ इंटरनेट उपयोकर्ता हैं। यह संख्या शहरी क्षेत्र में इंटरनेट इस्तेमाल कर रहे 29.5 करोड़ लोगों से 44 प्रतिशत अधिक है।

नजाकत ने कहा, ‘‘ हमें बहु आयामी और अंतर क्षेत्र रुख पूरे भारत में सभी लोगों को आज और कल की जटिल डिजटिल अवस्था के लिए तैयार करने के लिए अपनाना चाहिए ताकि वे डीपफेक्स और भ्रामक सूचना के प्रति सतर्क रह सकें।’’

भाषा

धीरज संतोष

संतोष

 

(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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