अप्रचलित कानूनों के निरसन वाला विधेयक ‘गुलामी की मानसिकता से मुक्ति की ओर’ बढ़ता कदम :मेघवाल

अप्रचलित कानूनों के निरसन वाला विधेयक ‘गुलामी की मानसिकता से मुक्ति की ओर’ बढ़ता कदम :मेघवाल

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  • Publish Date - December 16, 2025 / 04:01 PM IST,
    Updated On - December 16, 2025 / 04:01 PM IST

नयी दिल्ली, 16 दिसंबर (भाषा) कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने मंगलवार को लोकसभा में कहा कि कई अप्रचलित एवं पुराने कानूनों के निरसन व संशोधन का प्रस्ताव करने वाला विधेयक गुलामी की मानसिकता से मुक्ति की ओर बढ़ता कदम है।

मेघवाल ने निरसन और संशोधन विधेयक, 2025 को सदन में चर्चा और पारित किए जाने के लिए रखते हुए कहा कि सरकार से समाज हित में कानून बनाने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन एक समय आता है जब ऐसा लगता है कि उस कानून की उपयोगिता नहीं है या वह अपनी प्रासंगिकता खो चुका है तो ऐसे कानूनों का निरसन किया जाना चाहिए।

उन्होंने कहा, ‘‘मई 2014 से अब तक 1,577 अनावश्यक और अप्रचलित कानूनों को निरस्त किया है, जिनमें से 1,562 का पूरी तरह निरसन किया गया और 15 कानूनों को संशोधित करके लागू किया गया।’’

कानून मंत्री ने कहा कि इसी क्रम में यह विधेयक लाया गया है।

उन्होंने कहा, ‘‘इस विधेयक में, 71 ऐसे अधिनियम हैं जिनमें छह मूल अधिनियम हैं और 65 संशोधन अधिनियम शामिल हैं।’’

मेघवाल ने कहा, ‘‘यह सुधार गुलामी की मानसिकता से मुक्ति की ओर बढ़ता हुआ कदम है। ऐसे कानून जिन पर औपनिवेशिक छाया थी… उन्हें (प्रधानमंत्री नरेन्द्र)मोदी जी के कालखंड में समाप्त किया जा रहा है।’’

उन्होंने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 का उल्लेख करते हुए कहा कि इस कानून के तहत, कोई हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन और पारसी यदि वसीयत करता है तो उसे ‘प्रोबेट’ कराना (प्रशासन पत्र लेना) पड़ता है। उन्होंने कहा, ‘‘कोई भी हिंदू वसीयत करेगा तो उसे ‘प्रोबेट’ कराना पड़ेगा, जबकि कोई और ऐसा करेगा तो उसे नहीं कराना पड़ेगा।’’

मंत्री ने कहा, ‘‘यह असमानता का भाव है। यदि यह असमानता पर आधारित कानून है तो उसे भी समाप्त मोदी जी ही कर रहे हैं।’’

विधेयक के प्रस्तावों के अनुसार, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 में प्रस्तावित संशोधन, धारा 213 को समाप्त करने के साथ ही एकरूपता लाने के लिए है। उक्त धारा भेदभावपूर्ण है और उपबंध करती है कि जहां वसीयत, कलकता, मद्रास और मुंबई उच्च न्यायालयों के सामान्य मूल सिविल अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर बनाई जाती है और जहां ऐसी वसीयतें उन सीमाओं के बाहर बनाई जाती हैं, वहां हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन और पारसी को वसीयत का प्रशासन-पत्र (प्रोबेट) लेना होगा।

विधेयक पर चर्चा की शुरूआत करते हुए कांग्रेस के डीन कुरियाकोस ने कहा कि इसके जरिये उन कानूनों को निरस्त किया जा रहा है जिसे इसी सरकार ने 24 महीने पहले पारित किया था।

उन्होंने सवाल किया, ‘‘क्या हम कानून इसलिए पारित करें कि बाद में उन्हें निरस्त करें…हम नये कानूनों के अमृत काल में हैं या औपनिवेशिक काल में?’’

उन्होंने विधेयक को एक ही दिन में चर्चा और पारित किये जाने के लिए रखे जाने पर भी चिंता जताते हुए कहा, ‘‘हम इन संशोधनों को बिना विस्तृत चर्चा के कैसे पारित कर सकते हैं?’’

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के मनोज तिवारी ने कहा कि इस संशोधन के जरिये 1886 से 1988 तक के कुछ कानूनों को हम संशोधित या समाप्त करने जा रहे हैं, जो देश की आजादी के 20 से 25 साल के अंदर ही संशोधित हो जाने चाहिए थे।

उन्होंने कहा कि 71 कानून में से अधिकतर वे कानून हैं जो संशोधन के बाद मुख्य अनुच्छेद में शामिल हो गए हैं और जब वे शामिल हो गए तो उन्हें पुराने रूप में बनाये रखने की क्या जरूरत है।

तिवारी ने कहा कि इनमें से 4 ही ऐसे कानून हैं जिनमें संशोधन किया जा रहा है, बाकी को खत्म किया जा रहा है।

समाजवादी पार्टी के लालजी वर्मा ने महत्वपूर्ण विधेयकों को एक ही दिन में पेश किये जाने और पारित करने पर चिंता जताते हुए कहा कि मौजूदा सरकार कई कानून जल्दबाजी में लाई, जिस कारण आज इस तरह का विधेयक लाने की आवश्यकता महसूस हुई।

उन्होंने आरोप लगाया, ‘‘सरकार की नीति सुनिश्चित नहीं है और विचार- विमर्श कर विधेयक नहीं लाये जाते।’’

सपा सदस्य ने विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजने का आग्रह किया।

उन्होंने यह सवाल भी किया कि 2016 से 2023 तक लाये गए विधेयक आज अप्रसांगिक क्यों हो गए?

द्रमुक सदस्य के. वीरास्वामी ने कहा कि विधेयकों को पारित करने के एक-दो साल में ही सरकार संशोधन ला रही है। उन्होंने विधेयकों के नाम हिंदी में रखने पर भी आपत्ति जताई।

तृणमूल कांग्रेस के कल्याण बनर्जी ने कहा कि एक ओर जहां ‘‘हम अधिक से अधिक कानून ला रहे हैं’’ और वहीं दूसरी ओर न्यायालयों में मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है। उन्होंने न्यायिक सुधारों की जरूरत बताते हुए कहा कि अदालतों में मुकदमों की संख्या बढ़ रही है लेकिन न्यायाधीशों की नहीं।

भाषा

सुभाष वैभव

वैभव