नयी दिल्ली, 27 दिसंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर करके 1954 के एक कानून की अनुसूची की समीक्षा और इसे अद्यतन करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति के गठन का केंद्र को निर्देश देने का अनुरोध किया गया है। संबंधित कानून का उद्देश्य कुछ मामलों में दवाओं के विज्ञापन को वर्तमान समय की वैज्ञानिक नवाचार के अनुरूप बनाना है।
याचिका में यह निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया है कि आयुष चिकित्सकों को भी औषधि एवं चमत्कारिक उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954 की धारा 2(सीसी) के अंतर्गत ‘पंजीकृत चिकित्सक’ के रूप में शामिल किया जाये।
कुछ मामलों में 1954 का अधिनियम दवाओं के विज्ञापन को नियंत्रित करने और चमत्कारिक गुणों वाले माने जाने वाले उपचारों के कुछ उद्देश्यों के लिए विज्ञापन पर रोक लगाने के उद्देश्य से बनाया गया है।
अधिनियम की धारा 2(सीसी) में ‘पंजीकृत चिकित्सक’ की परिभाषा दी गई है।
याचिकाकर्ता नितिन उपाध्याय द्वारा दायर याचिका में कहा गया है, ‘‘यह अधिनियम जनता को झूठे और भ्रामक चिकित्सा विज्ञापनों से बचाने के लिए बनाया गया था। हालांकि, धारा 3(डी) कुछ बीमारियों और स्थितियों से संबंधित विज्ञापनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाती है।’’
अधिनियम की धारा-तीन कुछ बीमारियों और विकारों के उपचार के लिए कुछ दवाओं के विज्ञापन पर प्रतिबंध से संबंधित है।
इसमें कहा गया है कि चूंकि आयुष चिकित्सक और अन्य वास्तविक गैर-एलोपैथिक पंजीकृत चिकित्सक अधिनियम की धारा 14 के अपवाद के अंतर्गत नहीं आते हैं, इसलिए “यह व्यापक प्रतिबंध उन्हें गंभीर बीमारियों के लिए उपलब्ध दवाओं के बारे में विज्ञापन करने से प्रभावी रूप से रोक देता है।’’
अधिवक्ता अश्वनी कुमार दुबे के माध्यम से दायर याचिका में कहा गया है कि अधिनियम की धारा 3(डी) भ्रामक विज्ञापनों और सत्य, वैज्ञानिक और वैध जानकारी के बीच अंतर किये बिना कुछ बीमारियों और स्थितियों से संबंधित विज्ञापनों पर ‘‘पूर्ण और व्यापक प्रतिबंध’’ लगाती है।
याचिका में कहा गया है कि दवाओं और उपचारों से संबंधित विज्ञापन, जब वैज्ञानिक रूप से समर्थित हों और भ्रामक न हों, तो उपभोक्ताओं और मरीजों तक सही जानकारी का प्रसार करते हैं।
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देवेंद्र सुरेश
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