Satyanarayan Bhagwan ki Katha : “धन-संबंधी समस्याओं से जूझ रहे लोगों के लिए है अत्यंत लाभकारी” श्री सत्यनारायण कथा का तीसरा अध्याय..

"It is very beneficial for people struggling with money-related problems" Third chapter of Shri Satyanarayan Katha..

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  • Publish Date - June 21, 2025 / 01:10 PM IST,
    Updated On - June 21, 2025 / 01:10 PM IST

Satyanarayan Vrat Katha - Teesra adhyay

Satyanarayan Bhagwan ki Katha : सत्यनारायण कथा का तीसरा अध्याय पढ़ने से भगवान सत्यनारायण की विशेष कृपा प्राप्त होती है, जिससे सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और घर में सुख-शांति आती है। यह अध्याय विशेष रूप से व्यापारियों और धन-संबंधी समस्याओं से जूझ रहे लोगों के लिए लाभकारी माना जाता है। यह अध्याय घर में सुख-शांति और समृद्धि लाता है, साथ ही साथ सत्य और निष्ठा के महत्व को दर्शाता है। आईये यहाँ प्रस्तुत है श्री सत्यनारायण भगवन की कथा – तीसरा अध्याय..

श्री सत्यनारायण व्रत कथा – तृतीय अध्याय

श्री सूतजी बोले, “हे श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं आगे की एक कथा कहता हूँ। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक महान ज्ञानी राजा था। वह जितेन्द्रिय एवं सत्यवक्ता था। प्रतिदिन मन्दिरों में जाता तथा निर्धनों को धन देकर उनके दुःख दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान सुन्दर मुख वाली एवं सती साध्वी थी। एक दिन भद्रशीला नदी के तट पर वे दोनों विधि विधान सहित श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहे थे। उस समय वहाँ साधु नामक एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिये बहुत-सा धन था। वह वैश्य अपनी नाव को नदी किनारे पर ठहराकर राजा के पास आया। राजा को व्रत करते हुये देखकर उसने विनम्रतापूर्वक पूछा, “हे राजन! यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है। कृपया आप यह मुझे भी समझाइये। महाराज उल्कामुख ने कहा, “हे साधु वैश्य! मैं अपने बन्धु-बान्धवों के साथ पुत्र की प्राप्ति के लिये श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुनकर साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा, “हे राजन! मुझे भी इसका सम्पूर्ण विधि विधान बतायें। मैं भी आपके कहे अनुसार इस व्रत को करूँगा। मेरी भी कोई सन्तान नहीं है। मुझे विश्वास है, इस उत्तम व्रत को करने से अवश्य ही मुझे भी सन्तान होगी।”

Satyanarayan Bhagwan ki Katha

राजा से व्रत के सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य सुखपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी पत्नी को सन्तान देने वाले उस व्रत के विषय में सुनाया और प्रण किया कि, “जब मेरे सन्तान होगी, तब मैं इस व्रत को करूँगा।” वैश्य ने यह वचन अपनी पत्नी लीलावती से भी कहे। एक दिन उसकी पत्नी लीलावती श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गयी। दसवें महीने में उसने एक अति सुन्दर कन्या को जन्म दिया। दिनों-दिन वह कन्या इस तरह बढ़्ने लगी, जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम उन्होंने कलावती रखा। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने जो भगवान का व्रत करने का सङ्कल्प किया था, अब आप उसे पूर्ण कीजिये। साधु वैश्य ने कहा, “हे प्रिय! मैं कलावती के विवाह पर इस व्रत को करूँगा।” इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह व्यापार करने विदेश चला गया।

कलावती पितृगृह में वृद्धि को प्राप्त हो गयी। लौटने पर साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी वयस्क होती पुत्री को खेलते देखा तो उसे उसके विवाह की चिन्ता हुयी, तब उसने एक दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिये कोई सुयोग्य वर देखकर लाये। दूत साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर कन्चननगर पहुँचा तथा देख-भालकर वैश्य की कन्या के लिये एक सुयोग्य वणिक पुत्र ले आया। उस सुयोग्य लड़के के साथ साधू नमक वैश्य ने अपने बन्धु-बान्धवों सहित प्रसन्नचित्त होकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। दुर्भाग्य से वह विवाह के समय भी सत्यनारायण भगवान का व्रत करना भूल गया। इस पर श्री सत्यनारायण भगवान अत्यन्त क्रोधित हो गये। उन्होंने वैश्य को श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा।

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तदोपरान्त अपने कार्य में कुशल वह वैश्य अपने दामाद सहित नावों का बेड़ा लेकर व्यापार करने के लिये सागर के समीप स्थित रत्नसारपुर नगर में गया। रत्नसारपुर पर चन्द्रकेतु नामक राजा राज करता था। दोनों ससुर-जमाई चन्द्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित एक चोर राजा चन्द्रकेतु का धन चुराकर भाग रहा था। राजा के दूतों को अपने पीछे तेजी से आते देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को वैश्य की नाव में चुपचाप रख दिया, जहाँ वे ससुर-जमाई ठहरे हुये थे और भाग गया। जब दूतों ने उस वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो उन्होंने उन ससुर-दामाद को ही चोर समझा। वे उन ससुर-दामाद दोनों को बाँधकर ले गये तथा राजा के समीप पहुँचकर बोले, “आपका धन चुराने वाले ये दो चोर हम पकड़कर लाये हैं, देखकर आज्ञा दें।”

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तब राजा ने बिना उस वैश्य की बात सुने उन्हे कारागार में डालने की आज्ञा दे दी। इस प्रकार राजा की आज्ञा से उनको कारावास में डाल दिया गया तथा उनका सारा धन भी छीन लिया गया। सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण उस वैश्य की पत्नी लीलावती व पुत्री कलावती भी घर पर बहुत दुःखी हुयीं। उनका सारा धन चोर चुराकर ले गये। मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुःखी हो भोजन की आस मे कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। उसने ब्राह्मण को श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत विधिपूर्वक करते देखा। उसने कथा सुनी तथा श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आयी। माता ने कलावती से पूछा, “हे पुत्री! तू अब तक कहाँ रही, मैं तेरे लिये बहुत चिन्तित थी।”

माता के शब्द सुन कलावती बोली, “हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा है और मेरी भी उस उत्तम व्रत को करने की इच्छा है।”

माता ने कन्या के वचन सुनकर सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी की। उसने बन्धुओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन एवं व्रत किया तथा वर माँगा कि, “मेरे पति एवं दामाद शीघ्र ही घर लौट आयें। साथ ही विनती की कि, “हे प्रभु! अगर हमसे कोई भूल हुयी हो तो हम सभी का अपराध क्षमा करो।” श्री सत्यनारायण भगवान इस व्रत से प्रसन्न हो गये। उन्होंने राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, “हे राजन! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बन्दी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ दो। उनका सब धन जो तुमने अधिग्रहित किया है, लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हारा राज्य, धन, पुत्रादि सब नष्ट कर दूँगा।” राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये।

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तदोपरान्त प्रातः काल राजा चन्द्रकेतु ने दरबार में सबको अपना स्वप्न सुनाया तथा सैनिकों को आज्ञा दी कि दोनों वैश्यों को कैद से मुक्त कर दरबार में ले आयें। दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा ने कोमल वचनों में कहा, “हे महानुभावों! तुम्हें अज्ञानतावश ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है। अब तुम्हें कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो।” इसके पश्चात् राजा ने उनको नवीन वस्त्राभूषण पहनवाये तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दुगना लौटाकर आदर सहित विदा किया। दोनों वैश्य अपने घर को चल दिये।”

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय सम्पूर्ण ॥

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