मंदिर–मस्जिद: कैसे प्रतिस्पर्धी धार्मिक राजनीति बंगाल के 2026 के चुनावी मैदान को नया रूप दे रही

मंदिर–मस्जिद: कैसे प्रतिस्पर्धी धार्मिक राजनीति बंगाल के 2026 के चुनावी मैदान को नया रूप दे रही

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  • Publish Date - December 13, 2025 / 06:02 PM IST,
    Updated On - December 13, 2025 / 06:02 PM IST

surajpur news/ image source: IBC24

(प्रदीप्त तापदार)

कोलकाता, 13 दिसंबर (भाषा) पश्चिम बंगाल में चुनावी वर्ष नजदीक आने के साथ मंदिर-मस्जिद से जुड़ी सिलसिलेवार घोषणा, धार्मिक ग्रंथों के प्रदर्शन और तारीख़ों से जुड़े प्रतीकों का इस्तेमाल राज्य की राजनीति को एक ऐसे अपरिचित रास्ते पर ले जा रहा है, जिससे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और तेज़ हो रहा है। विभाजन की स्मृतियों, जनसांख्यिकीय आशंकाओं और राजनीतिक गोलबंदी से समय-समय पर परखी जाने वाली सहअस्तित्व की परंपरा से आकार पाए इस सीमावर्ती राज्य में हालात और संवेदनशील होते दिख रहे हैं।

मुर्शिदाबाद से सटे ज़िलों से लेकर कोलकाता के पूर्वी छोर पर बसे नियोजित टाउनशिप साल्ट लेक तक, राजनीतिक गोलबंदी की सबसे मुखर भाषा के रूप में आस्था उभर आई है। इसके चलते प्रवासन, रोज़गार, महंगाई और शासन जैसे मुद्दों पर होने वाली चर्चाएं अक्सर पीछे छूट जाती हैं, क्योंकि विधानसभा चुनाव से पहले प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक खिलाड़ी यह परख रहे हैं कि धार्मिक दावेदारी बंगाल की चुनावी व्याकरण को कितनी दूर तक खींच सकती है।

इस विवाद की शुरुआत छह दिसंबर को हुई, जो बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी का दिन है।

तृणमूल कांग्रेस के निलंबित विधायक हुमायूं कबीर ने मुर्शिदाबाद के रेजिनगर में अभूतपूर्व सुरक्षा व्यवस्था के बीच ‘मूल बाबरी मस्जिद ढांचे की तर्ज पर’ मस्जिद की नींव रखी। कबीर का तर्क था कि राजनीतिक परिस्थितियां बदल गई हैं।

कबीर ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा “कुछ लोग यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि बंगाल की राजनीति में आस्था की कोई भूमिका नहीं है, लेकिन वह दौर अब बीत चुका है। पसंद हो या न हो, पहचान, गरिमा और धार्मिक अधिकारों से जुड़े सवाल ही अगले चुनाव को आकार देंगे। अगला चुनाव सम्मान और अपनेपन के मुद्दों पर लड़ा जाएगा। जो इसे नकार रहे, वह ज़मीनी हालात को समझ नहीं रहे।”

मुर्शिदाबाद के पास स्थित बनजटिया में भाजपा नेताओं ने राम मंदिर के लिए भूमि-पूजन जैसे प्रारंभिक अनुष्ठान भी किए, जिसे उन्होंने कथित अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के खिलाफ प्रतिरोध के रूप में पेश किया। वहीं अन्य जगहों पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने सांस्कृतिक दावेदारी के मुद्दे पर अपनी राजनीति और तेज़ की, जबकि तृणमूल कांग्रेस ने कबीर के कदमों से खुद को जल्दी अलग कर लिया।

तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता कुणाल घोष ने कहा, “बंगाल की संस्कृति ने कभी भी प्रतिस्पर्धी धार्मिक राजनीति का समर्थन नहीं किया है। पार्टी का मानना है कि आस्था व्यक्तिगत मामला है और राजनीति समावेशी बनी रहनी चाहिए। हम बंगाल को कहीं और से उधार लिए गए ध्रुवीकरण के प्रयोगों की प्रयोगशाला नहीं बनने देंगे।”

इस प्रतिक्रिया ने पार्टी की राजनीतिक रस्साकशी को रेखांकित किया—एक ओर उस अल्पसंख्यक आधार को साधे रखना, जो मतदाताओं का लगभग 30 प्रतिशत है, और दूसरी ओर पहचान की राजनीति के तेज़ होते माहौल में हिंदू वोटों के खिसकने के संकेतों पर अंकुश लगाना।

सात दिसंबर को कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान पर भगवद्गीता पाठ का विशाल आयोजन हुआ जिसमें पांच लाख से ज्यादा लोगों ने भागीदारी की। मंच पर भाजपा के वरिष्ठ नेता और प्रसिद्ध साधु-संत मौजूद थे, हालांकि आयोजकों का जोर था कि यह कार्यक्रम राजनीतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक है।

इसी बीच, कबीर ने मुर्शिदाबाद जिले में इसी तरह के एक क़ुरान पाठ कार्यक्रम की घोषणा भी तुरंत कर दी।

राजनीतिक विश्लेषक मैदुल इस्लाम ने कहा कि यह बंगाल की राजनीति में बिल्कुल नया चलन है। उन्होंने कहा, “हुमायूं कबीर जैसे नेता और भाजपा तथा एआईएमआईएम जैसी पार्टियां जानबूझकर हिंदी पट्टी के राजनीतिक विमर्शों को बंगाल में लाने की कोशिश कर रही हैं। तारीख़ें, प्रतीक और बड़े पैमाने पर होने वाले धार्मिक आयोजन—ये सब संयोग नहीं हैं।”

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष समिक भट्टाचार्य ने कहा कि जब एक पक्ष अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करता है, तो “दूसरे से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह चुप रहेगा।”

उन्होंने दावा किया, “चयनात्मक धर्मनिरपेक्षता की राजनीति अब बंगाल में नहीं चलेगी। दशकों तक राज्य के राजनीतिक विमर्श में हिंदू भावनाओं को हाशिये पर रखा गया। अब यह बदलने वाला है।”

बंगाल की राजनीति में हाशिये पर सिमट चुकी कांग्रेस और वाम दलों ने इतिहास के दोहराव को लेकर चेताया है। 1990 के दशक में बाबरी विध्वंस के बाद देशभर में हुई हिंसा को याद करते हुए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष शुभंकर सरकार ने कहा, “हमें पता है कि प्रतिस्पर्धी साम्प्रदायिकता आखिर किस ओर ले जाती है।”

बंगाल एक सीमावर्ती राज्य है, जिसका जन्म विभाजन से हुआ और जिसकी सामाजिक बनावट शरणार्थियों की आमद, जनसांख्यिकीय बदलावों और समय-समय पर हुई हिंसा से गढ़ी गई है। उसने पूरी तरह हिंदी पट्टी के लगातार धार्मिक ध्रुवीकरण वाले मॉडल का कभी अनुसरण नहीं किया, लेकिन उसके घाव आज भी वास्तविक हैं और राजनीतिक रूप से भुनाए जा सकते हैं।

राजनीतिक विश्लेषक शुभमय मोइत्रा ने कहा, “जब रोज़मर्रा की जिंदगी में आर्थिक संकट हावी हो, तब अचानक ‘मंदिर–मस्जिद’ की राजनीति जानबूझकर विमर्श के बदलाव का संकेत देती है।”

विधानसभा चुनाव के कुछ महीने बचे होने के साथ ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चिम बंगाल एक प्रतिस्पर्धी प्रतीकवाद के दौर में प्रवेश कर रहा है, जहां मस्जिदें और मंदिर अब केवल आस्था के केंद्र नहीं रह गए हैं, बल्कि ध्रुवीकृत राजनीतिक मानचित्र पर रणनीतिक चिह्न बन गए हैं।

भाषा आशीष दिलीप

दिलीप